गुप्तचर, ये शब्द अपने आप में रोमांच से भरा एक अद्भुत संसार आपके समक्ष खोल देता है। निस्संदेह इस संसार का भाग होना सरल नहीं है परंतु अगर आप इसका भाग बन जाएं तो यश भी आपका और दुर्गति भी आपकी, अंतर इस बात से है कि आपका भाग्य आपको किस ओर ले जाता है। कुछ गुप्तचर ऐसे होते हैं जिन्हें जीते जी उनका सब कुछ मिल जाता है और कुछ ऐसे भी हैं, जिनके मृत्यु के बाद भी उनका उचित सम्मान नहीं मिल पाता। इस लेख में हम जानेंगे बहिर्जी नाईक (Bahirji Naik) के बारे में जिन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज की ऐसी सहायता की, जिसके कारण आज मराठा समुदाय ही नहीं सम्पूर्ण भारत की भारतीयता विद्यमान है, परंतु उनके शौर्य और उनके योगदान को कभी भी स्वतंत्र भारत में उचित सम्मान ही नहीं दिया गया।
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युद्ध का साक्षी बना प्रतापगढ़ का दुर्ग
इतिहास बदलने हेतु कभी-कभी एक-एक छोटा कदम भी बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा ही एक कदम सन् 1659 में भी उठाया गया था जिसने न केवल एक व्यक्तित्व के विशाल विरासत की स्थापना की अपितु हमारे भारतवर्ष के इतिहास को भी सदैव के लिए पलट दिया। उसी दिन भारत का द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ, जिस युद्ध का साक्षी बना प्रतापगढ़ का दुर्ग और जहां से भारत के सबसे वीर योद्धाओं में से एक छत्रपति शिवाजी महाराज का उदय हुआ।
परंतु जैसे श्रीराम को पवनपुत्र हनुमान मिले, श्रीकृष्ण को अर्जुन, वैसे ही छत्रपति शिवाजी महाराज को भी कोई ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो उनके समस्त कार्य पूर्ण कर सके, ऐसा व्यक्ति जो हर संकट से मराठा साम्राज्य की रक्षा कर सके, साथ ही उनके गुप्तचरों की संरचना को सुदृढ़ रख सके। उन्हें बहिर्जी में वह व्यक्ति मिले।
बहिर्जी नाईक (Bahirji Naik) के प्रारम्भिक जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी है, परंतु जितने भी संकलित शास्त्र हैं, उनके अनुसार उनका जन्म शिंगवे नाइक में हुआ था जो वर्तमान महाराष्ट्र राज्य में स्थित है। वे जनजातीय थे, और प्रारंभ में केवल खेती तक सीमित थे, परंतु ये शाहजी भोंसले के पुत्र छत्रपति शिवाजी महाराज के कारनामों से काफी प्रभावित हुए, और उनके सेना में सम्मिलित को तैयार हो गए। वहीं बहिर्जी नाईक बाद में शिवाजी के साये जैसे बन गए। क्या प्रतापगढ़, क्या लालमहल, क्या आगरा, जो अभियान बोलिए, हर जगह वे अपने राजे की सेवा में उपस्थित रहे,।
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बहिर्जी नाईक- एक कुशल गुप्तचर
शिवाजी राजे की सेना में एक कुशल गुप्तचर के रूप में उनके अभियानों और कारनामों ने मराठा साम्राज्य की सफलता में बहुत योगदान दिया। बहिर्जी अपने अभियानों के हर पहलू के बारे में विस्तृत जानकारी इकट्ठा करने में माहिर थे और छत्रपति शिवाजी के कई अद्भुत कारनामों का श्रेय बहिर्जी नाइक और उनके आदमियों को दिया गया। इसका प्रमाण प्रतापगढ़ के अभियान से ही मिलता है, जहां उनका अद्वितीय योगदान भी एक कारण है कि छत्रपति शिवाजी महाराज भारतवर्ष को अत्याचारियों के राज से मुक्त कराने हेतु एक सफल अभियान चलाने के लिए उद्यत हो पाए।
शिवाजी राजे ने जिस स्वतंत्र भारत, जिस ‘हिंदवी स्वराज्य’ का सुनहरा स्वप्न देखा था, उसके लिए उन्हें आभास था कि उन्हें हर स्थिति के लिए पूर्व से ही तैयारी करनी पड़ेगी। जिसके लिए एक ओर उन्होंने योद्धाओं के रूप में नेताजी पालकर, हम्बीर राव मोहिते, प्रताप राव गुर्जर, ताणाजी मालुसारे जैसे लोग चुने, तो दूसरी ओर उन्होंने बहिर्जी नाईक जैसे गुप्तचर भी चुने, जो शत्रुओं के बीच में से उनकी गुप्त जानकारियां प्राप्त करने में निपुण थे। वो बहिर्जी नाईक ही थे, जो हर स्थिति में शिवाजी राजे के संकटमोचक बने, और उन्होंने अफज़ल खान के कुटिल नीतियों से जुड़ी सभी सूचनाएं प्राप्त कीं।
अंततः वो समय आ ही गया, जब शिवाजी राजे का उद्भव हुआ। संयोग भी देखिए, यह समय भी तब आया जब भारत में औरंगज़ेब जैसे आक्रांता ने सत्ता पर पैठ बना ली। परंतु मुगल शिवाजी का प्राथमिक लक्ष्य नहीं थे, एक बार फिर उनका सामना आदिलशाही से हुआ। सुल्तान मोहम्मद आदिलशाह भले ही नहीं रहे, परंतु उनकी बेगम रक्तपिपासु थी और उसने अपने विश्वासपात्र, अफ़जल ख़ान को शिवाजी का संहार करने के लिए भेजा।
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दुर्गों पर धावा
आदेशानुसार अफ़जल ख़ान ने शिवाजी राजे के दुर्गों पर धावा बोला और निर्दोषों पर बहुत अत्याचार भी ढाए। शिवाजी राजे को आदिलशाही सेना ने प्रतापगढ़ के दुर्ग के निकट घेर लिया, जहां शिवाजी ने अफ़जल ख़ान को ‘संधि’ के लिए मनाया।
संधि के लिए शिवाजी महाराज ने अफ़जल के निर्देशानुसार एक छावनी में मिलने का निर्णय किया, जहां केवल एक व्यक्ति और एक अंगरक्षक को साथ आने की अनुमति थी। परंतु बहिर्जी नाईक (Bahirji Naik) और उसके विश्वासपात्रों की सूचना अनुसार शिवाजी महाराज पहले से ही तैयार थे, क्योंकि अफ़ज़ल खान की मंशा कुछ और ही थी। अपना बिछुआ और बाघनख अपने कवच के साथ धारण कर वो अफ़जल से मिलने प्रतापगढ़ दुर्ग के निकट शामियाने में पहुंचे। अफ़जल ने शिवाजी को गले मिलने के लिए बुलाया, परंतु जैसे ही शिवाजी महाराज उसके निकट पहुंचे, अफ़जल ने उन्हें जकड़ लिया।
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सतर्क थे शिवाजी महाराज
पहले से ही सतर्क शिवाजी महाराज ने अपने बाघनख से उसकी पीठ पर प्रहार किया, उसके बाद जब अफ़जल ख़ान ने प्रतिघात में अपनी कटार चलाई, तो शिवाजी ने अपने बिछुआ से उसके पेट पर वार किया और अफ़जल खान की आंतें फाड़ डाली। अफ़जल ख़ान किसी तरह अपने सहयोगियों के सहारे बाहर निकला, परंतु शिवाजी महाराज के विश्वासपात्र, संभाजी कविजी कोणढालकर ने अफ़जल ख़ान का सर धड़ से अलग कर दिया। इसके साथ ही आदिलशाही की जो सेना शिवाजी का नाश करने आई थी, उल्टे उसी का सर्वनाश करके ‘हिंदवी स्वराज्य’ की नींव स्थापित हुई। शायद इसीलिए कहा गया है-
‘तेज तम अंस पर, कान्ह जिमी कंस पर,
त्यों म्लेच्छ वंस पर, सेर सिवराज है’
जय भवानी, जय शिवाजी!
हर हर महादेव!
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