“देखिए बर्मन साब, ये एक गीतकार हैं, अच्छा लिखते हैं, हमारे फिल्म के लिए गीत लिखेंगे!”
“तुम हमारे फिल्म के लिए गीत लिखेगा?”
“जी बर्मन साब, आपके आशीर्वाद से हम अवश्य एक अच्छी रचना प्रस्तुत करेंगे!”
“हम नहीं मानते! बिना शराब के नशा उत्पन्न कर सकते हो?”
“आप तो हमारी प्रतिभा को चुनौती दे रहे हैं!”
“कर सकते हो या नहीं?”
“आपने परीक्षा ली है, तो उसे पूर्ण करना हमारा कर्तव्य है। चुनौती स्वीकार है!”
ये एक वास्तविक वार्तालाप थी, जिसके साक्षी थे हमारे सदाबहार सुपरस्टार देवानन्द और चुनौती देने वाले कोई और नहीं, भारत के सबसे लोकप्रिय संगीतकारों में से एक एस डी बर्मन थे। परंतु उनकी चुनौती को जिस व्यक्ति ने पूर्ण किया, उनके कलम से निकला ‘रंगीला रे’, जहां मदिरा का उल्लेख मात्र भी नहीं था पर इस गीत को सुनकर आप अलग ही मद में चूर हो जाएंगे। इतिहास आज इसी रचनाकार को गोपालदास नीरज के नाम से बेहतर जानती है। इस लेख में हम विस्तार से गोपालदास नीरज से अवगत होंगे, जिन्होंने भारतीय सिनेमा का अनेक अद्वितीय गीतों से श्रृंगार किया परंतु बॉलीवुड ने कभी उन्हें उनका उचित सम्मान नहीं दिया।
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अपनी संस्कृति और आदर्शों से नहीं किया समझौता
किसे पता था कि इटावा के गोपालदास सक्सेना एक समय पंजाबियों और बंगालियों से भरे फिल्म उद्योग विशेषकर गीतकार क्लब में अपने लिए एक विशिष्ट स्थान बनाएंगे। परंतु उन्होंने बनाया और केवल अपने लिए, विशुद्ध हिन्दी गीतों के लिए भी। हिन्दी गीतों में या तो हिन्दी नहीं होती थी और अगर होती भी थी तो उसमें पंजाबी, उर्दू और हिन्दुस्तानी बोलियों का मिश्रण अवश्य होता था।
परंतु गोपालदास नीरज ऐसे व्यक्ति नहीं थे। वो हिन्दी और उर्दू दोनों में निपुण थे और उन्होंने हिन्दी को खूब बढ़ावा दिया। एक समय फिल्म उद्योग में जहां हसरत जयपुरी और साहिर लुधियानवी जैसे गीतकारों का वर्चस्व हुआ करता था, तो वहीं गोपालदास नीरज अकेले थे, जो अपनी संस्कृति और अपने आदर्शों से समझौता किये बिना अनवरत बॉलीवुड के लिए शुद्ध गीत लिखते रहे। उस समय उर्दूकरण का दौर ऐसा था कि लोग या यूं कहें कि गीतकार मंडली अपने नाम के अंत में कुछ उपनाम जोड़ लेती थी, जो उर्दू होता था और वहीं उनकी पहचान बन जाता था लेकिन गोपालदास ने अपने नाम के अंत में ‘नीरज’ जोड़ा और उस दौर में भी आगे बढ़ते रहे।
ये आदर्श के कितने पक्के थे, मेरठ के एक प्रसंग से पता चलता है। उन्होंने मेरठ कॉलेज में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया किन्तु कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएं न लेने व व्यभिचार करने के आरोप लगाये गये। इससे कुपित होकर नीरज ने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वो अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गये और मैरिस रोड जनकपुरी अलीगढ़ में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे।
नीरज ने बॉलीवुड को कई क्लासिक दिए
कवि सम्मेलनों में लोकप्रिय होने के बाद गोपालदास नीरज मायानगरी मुंबई की ओर भी आकर्षित हुए। नीरज को बम्बई के फिल्म जगत ने गीतकार के रूप में नई उमर की नई फसल के गीत लिखने का निमन्त्रण दिया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे और देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वो बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे।
फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा। उनके कई गीत जैसे ‘ए भाई जरा देख के चलो’, ‘बस यही अपराध इक बार करता हूं’ और सदाबहार गाना ‘लिखे जो खत तुझे’ आज भी कई लोग बार बार सुनना पसंद करते हैं। उन्हें तीन बार फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया और उन्हें एक बार 1970 में उनके गीत के लिए यह पुरस्कार भी मिला।
इसके अतिरिक्त उनकी सेवाओं के लिए उन्हें पद्म श्री एवं पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया। परंतु दुर्भाग्य देखिए, जिस गीतकार के आगे शुद्ध, निश्छल गीतों के लिए सर नवाना चाहिए था, वह व्यक्ति तुष्टीकरण की भेंट चढ़ गया। बेहतरीन होने के बावजूद उन्हें कभी भी वो सम्मान नहीं मिला, जो उनके समकालीन लोगों को दिया गया। दुखद!
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