“यहाँ इक खिलौना है इसां की हस्ती, ये बस्ती हैं मुर्दा परस्तों की बस्ती, यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.” साहिर लुधियानवी के ये बोल जाने कब गुरुदत्त के जीवन का पर्याय बन गए, पता ही नहीं चला। आज भी कई लोग इस बात को लेकर ग्लानि भरते हैं कि समाज और उद्योग ने गुरुदत्त और उनकी कला के साथ न्याय नहीं किया। निस्संदेह उनकी कला को काफी अनदेखा किया गया परंतु क्या उनका जीवन इसी अन्याय की बलि चढ़ गया या इसके पीछे उनके अपने कर्म भी थे? इस लेख में हम विस्तार से गुरुदत्त (Guru Dutt) के जीवन के उस पहलू से अवगत होंगे, जिस पर चर्चा कम की जाती है लेकिन जितने शालीन और सज्जन वो ऑनस्क्रीन थे, ऑफस्क्रीन पर उतने ही निर्लज्ज और रंगीले थे।
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गुरदत्त की कहानी
गुरुदत्त के बारे मे कहा जाता है कि वह कार्य को लेकर काफी “कड़क रहते थे परंतु निजी जीवन में उतने ही ढीले ढाले”। ये बात कहीं न कहीं उनके व्यक्तित्व में भी झलकती है। हमने गुरुदत्त को एक धीर गंभीर, सज्जन पुरुष के रूप में देखा है, जिन्होंने ‘कागज़ के फूल’, ‘बाज़ी’, ‘साहिब बीबी और गुलाम’ जैसे रत्न दिए थे परंतु इनके निजी जीवन पर तनिक प्रकाश डालें तो राज कपूर, संजय दत्त, रणबीर कपूर, रणवीर सिंह जैसे नमूने इनके चरण पखारते हुए बोल पड़ेंगे, “गुरुजी, कहाँ थे आप?”
वो कैसे? बंधु जिनके कर्मों को स्वयं फिल्मफेयर और फिल्म कम्पेनियन छिपा पाए तो समझ लीजिए क्या कर्मकांड किए होंगे वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण ने, जिन्हें इतिहास गुरुदत्त के नाम से बेहतर जानता है। जब गुरुदत्त 16 वर्ष के थे उन्होंने 1941 में पूरे पांच साल के लिये 75 रुपये वार्षिक छात्रवृत्ति पर अल्मोड़ा जाकर नृत्य, नाटक व संगीत का प्रशिक्षण लेना प्रारंभ किया। 1944 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण उदय शंकर इण्डिया कल्चर सेंटर बन्द हो गया और गुरु दत्त वापस अपने घर लौट आये। फिर गुरु दत्त ने पहले कुछ समय कलकत्ता जाकर लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की लेकिन जल्द ही उनका मोहभंग हो गया और वो वहां से इस्तीफा देकर 1944 में अपने माता पिता के पास बम्बई लौट आये।
उनके चाचा ने उन्हें प्रभात फ़िल्म कम्पनी पूना में तीन साल के अनुबन्ध के तहत फ़िल्म में काम करने भेज दिया, जहां कभी वी शांताराम जैसे चर्चित निर्देशक कार्यरत थे। परंतु गुरुदत्त का प्रारम्भिक अनुबन्ध 1947 में खत्म हो गया। उसके बाद उनकी मां ने बाबूराव पाई, जो प्रभात फ़िल्म कम्पनी व स्टूडियो के CEO थे, उनके साथ एक स्वतन्त्र सहायक के रूप में फिर से नौकरी दिलवा दी। वह नौकरी भी छूट गयी तो लगभग दस महीने तक गुरुदत्त बेरोजगारी की हालत में माटुंगा बम्बई में अपने परिवार के साथ रहते रहे।
गीता दत्त और वहीदा रहमान के साथ प्रेम प्रसंग
परंतु ठहरिए, यहां कुछ तो मिसिंग है ना? है क्यों नहीं, क्योंकि गुरुदत्त (Guru Dutt) अल्मोड़ा से स्वयं नहीं लौटे, उन्हें निकाला गया था। असल में उदय शंकर इंडिया कल्चर सेंटर के संगीत एवं कला केंद्र की प्रमुख नृत्यांगना के साथ इनका प्रसंग चर्चा में आ गया, जिसके पश्चात इन्हें निष्कासित किया गया। ये तो कुछ भी नहीं। प्रभात फिल्म कंपनी में एक नृत्यांगना, विद्या की ओर ये आकर्षित हो गए और उसके साथ ये भाग गए थे और जब पुलिस कार्रवाई तक बात पहुंची तो प्रसंग एक बार फिर बंद हो गया। ये कौन सी सज्जनता है, तनिक कोई बताए जरा?
अब आते हैं गुरुदत्त के सबसे स्याह पहलू पर, जब उन्होंने दो महिलाओं से प्रेम किया और दोनों से विश्वासघात। उनमें से एक अपने समय की सर्वश्रेष्ठ गायिकाओं में से एक थी और दूसरी अपने समय की उत्कृष्ट अभिनेत्री। जी हां, हम बात कर रहे हैं गीता रॉय एवं वहीदा रहमान की। अनेक फिल्मों को अपने मधुर स्वर से सजाने वाली गीता रॉय को गुरुदत्त से प्रेम हुआ और उन्होंने 1953 में विवाह किया और 1956 तक उन्होंने पाली हिल में अपने लिए एक विशाल भवन भी बनाया। परंतु ये प्रेम अधिक दिन नहीं टिक सका, कारण गुरुदत्त ही थे।
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गुरुदत्त कहने को पिछड़ों और महिलाओं के अधिकारों के लिए स्क्रीन पर काफी लड़ते थे परंतु वास्तव में इससे उनका छत्तीस का आंकड़ा था। इसके अतिरिक्त वहीदा रहमान के साथ उनका क्या प्रसंग हुआ, इस पर कोई विशेष शोध की आवश्यकता नहीं है। परंतु इसके कारण गीता दत्त (Geeta Dutt) का जीवन नारकीय बन चुका था। वो गुरुदत्त के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति/प्रोडक्शन के लिए गीत नहीं गा सकती थी। कागज़ के फूल में ये गीत कहीं न कहीं उनके पीड़ा को परिलक्षित भी करता है, जो वह खुलकर कभी व्यक्त नहीं कर पाईं। गुरुदत्त तो अपने कर्मकांडों के कारण चल बसे, परंतु छोड़ गए एक टूटी, बिखरी हुई गीता दत्त को, जो फिर कभी पहले जैसी नहीं रही और स्वयं वहीदा रहमान को भी इनके कर्मकांडों से उबरने में काफी समय लगा। ऐसा बताया जाता है कि वहीदा रहमान के साथ उनके अफेयर की खबरें धीरे-धीरे गीता दत्त को तोड़ रही थी और इसी के कारण वह नशे का शिकार हो गईं, जिसके बाद 41 वर्ष की उम्र में उनकी आत्महत्या की खबर भी सामने आई थी। ऐसे में सवाल यह है कि यह कैसा प्रगतिवाद था, जो किसी स्त्री के इच्छा, उसके स्वप्नों को ही समाप्त कर गया?
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