Bihari Ke Dohe बिहारी के दोहे-
स्वागत है आपका आज के इस लेख में हम जानेंगे Bihari Ke Dohe के बारे में साथ ही इसके अर्थ के बारें में भी चर्चा की जाएगी अतः आपसे निवेदन है कि यह लेख अंत तक जरूर पढ़ें.
बिहारी (बिहारीलाल चौबे) हिंदी के रीति काल के विख्यात महाकवि थे। वह अपनी प्रमुख रचना सतसई के नाम से जाने जाते हैं। बिहारी जी का जन्म संवत् 1603 ई. ग्वालियर में हुआ। उनके पिता का नाम केशवराय था।
सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात।
मनौ नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात ।।
इस दोहे में बिहारी ने श्री कृष्ण के साँवले शरीर की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहा है कि, कृष्ण के साँवले शरीर पर पीला वस्त्र ऐसी शोभा दे रहा है, जैसे नीलमणि पहाड़ पर सुबह की सूरज की किरणें पड़ रही हो।
दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित्त प्रीति।
परिति गांठि दुरजन-हियै, दई नई यह रीति ।।
प्रेम की रीति अनूठी है। इसमें उलझते तो नयन है, पर परिवार टूट जाते हैं, प्रेम की यह रीति नई है इससे चतुर प्रेमियों के चित्त तो जुड़ जाते हैं पर दुष्टों के हृदय में गांठ पड़ जाती है।
अधर धरत हरि कै परत, ओठ-डीठि-पट जोति।
हरि बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष-रँग होति ।।
इस दोहे में राधा जी की सखी कृष्ण जी के मुरली से प्रभावित होकर उनसे कहती है कि जब श्री कृष्ण हरे बांस की बांसुरी को बजाने के लिए, लालिमा लिए हुए अपने होठों पर रखते है और जब उनके काले नैनो का रंग और श्री कृष्ण जी के द्वारा पहने हुए पीले रंग के वस्त्रों का पीला रंग, उस हरे बांस की बांसुरी पर पड़ता है तो वह हरे रंग के बांस की बांसुरी इंद्रधनुष के समान सात रंगों में चमक उठती हैं अर्थात बहुत सुंदर एवं आकर्षक प्रतीत होती है।
मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।
राधा जी के पीले शरीर की छाया नीले कृष्ण पर पड़ने से वे हरे लगने लगते है। दूसरा अर्थ है कि राधा की छाया पड़ने से कृष्ण प्रसन्न हो उठते हैं।
हुकुम पाय जयशाह को, हरिराधिका प्रसाद।
करी बिहारी सतसई, भरी अनेक सवाद।।
इसके दोहे गागर में सागर कहे जाते हैं। इनके दोहों का प्रत्येक शब्द एक गूढ़ अर्थ छिपाए हुए होता है। इसलिए इनके दोहों का सही अर्थ निकालना बहुत कठिन होता है।
दीरघ साँस न लेइ दुख, सुखसाईं मति भूल।
दई दई कत करत है, दई दई सुकुबूल।।
दुख में दीर्घ निःश्वास मत लो और सुख में भगवान को मत भूलो। भाग्य-भाग्य क्यों चिल्लाते हो। भाग्य ने जो दिया है, उसे स्वीकार करो।
कनक कनक ते सौं गुनी मादकता अधिकाय।
इहिं खाएं बौराय नर, इहिं पाएं बौराय ।।
इस दोहे में बिहारी जी कहते हैं कि सोने में धतूरे से सौ गुनी मादकता अधिक है। धतूरे को तो खाने के बाद व्यक्ति पगला जाता है, सोने को तो पाते ही व्यक्ति पागल अर्थात अभिमानी हो जाता है।
अधर धरत हरि कै परत, ओठ-डीठि-पट जोति।
हरि बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष-रँग होति ।।
इस दोहे में राधा जी की सखी कृष्ण जी के मुरली से प्रभावित होकर उनसे कहती है कि जब श्री कृष्ण हरे बांस की बांसुरी को बजाने के लिए, लालिमा लिए हुए अपने होठों पर रखते है और जब उनके काले नैनो का रंग और श्री कृष्ण जी के द्वारा पहने हुए पीले रंग के वस्त्रों का पीला रंग, उस हरे बांस की बांसुरी पर पड़ता है तो वह हरे रंग के बांस की बांसुरी इंद्रधनुष के समान सात रंगों में चमक उठती हैं अर्थात बहुत सुंदर एवं आकर्षक प्रतीत होती है।
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