भगवान परशुराम और भीष्म पितामह युद्ध: भारतीय समाज में भगवान श्रीराम एक ऐसे इष्ट हैं जिनमें न केवल लोगों की अटूट आस्था है अपितु वो लोगों के दैनिक जीवन के भाग भी हैं। परन्तु उनके जीवन को प्रदर्शित करने वाली रामायण को लेकर भी हमारे समाज में कितने सारे भ्रम व्याप्त हैं, जिन्हें हमने पहले भी असत्य सिद्ध किया है। इसी कड़ी में आज हम एक और ऐसे प्रसंग के बारे में बात करने जा रहे हैं जिसे लेकर भगवान परशुराम के बारे में भ्रामक बातें प्रसारित की जाती हैं।
दरअसल, हम भीष्म पितामह और भगवान परशुराम के बीच होने वाले युद्ध के बारे में बात कर रहे हैं। जिसे लेकर कहा जाता है कि भीष्म पितामह इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने भगवान परशुराम को बड़ी ही सरलता से पराजित कर दिया था। इसे लेकर कई तरह की कहानियां भी बनाई जाती हैं और भ्रामक खबरें भी फैलाई जाती हैं। आज हम उसी की कलई खोलेंगे परन्तु इसे समझने से पूर्व हमें भगवान श्रीराम और परशुराम के बीच होने वाले संवाद के बारे में जानना आवश्यक है क्योंकि इसे जाने बिना भीष्म पितामह और भगवान परशुराम के बीच होने वाले तथाकथित युद्ध को समझना संभव नहीं है।
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भगवान परशुराम और भीष्म पितामह युद्ध – यहां समझिए पूरी कहानी
प्रभु श्रीराम और परशुराम के बीच होने वाले संवाद की कथा माता सीता के स्वयंवर से आरंभ होती है। भगवान राम जब स्वयंवर में शिव धनुष ‘अजगव’ को उठाते हैं तो उसकी प्रत्यंचा टूट जाती है और ध्वनि महेंद्र पर्वत पर तपस्या में लीन परशुराम तक पहुंचती है। परशुराम इस ध्वनि को सुनने के बाद व्याकुल हो जाते हैं और खोज-बीन करने लगते हैं कि शिव धनुष के टूटने की ध्वनि कहां से आई।
दूसरी ओर भगवान राम अपने पिता राजा दशरथ, अपनी धर्मपत्नी माता सीता और अपने तीनों भाइयों और उनकी पत्नियों के साथ मिथिला से जा रहे होते हैं तभी क्रोधित भगवान परशुराम मिथिला में प्रवेश करते हैं और अयोध्या जाने वाले दल को रोकते हुए अपने रौद्र रूप और आग्नेय नेत्रों से पूछते हैं, “किसने धनुष को तोड़ने का दुस्साहस किया?” कई लोग परशुराम का यह रूप देखते ही भयभीत हो गए और कुछ तो इस बात से आशंकित हो गए कि कहीं परशुराम पुनः ‘क्षत्रियों का नाश’ करने तो नहीं आए हैं। राजा दशरथ ने उनसे विनती की कि कोई भूल चूक हो गई हो तो क्षमा करें परंतु क्रोधित परशुराम तो युद्ध पर लगभग उतारू थे।
इतने में श्रीराम निर्भीक होकर आगे आए और मुस्कुराते हुए बोल पड़े- “मेरे हाथों से हुआ था”। प्रारंभ में तो परशुराम आक्रामक हुए परंतु धीरे-धीरे उन्हें आभास हो गया कि ये तो स्वयं नारायण के अवतार हैं और एक दूसरे को ऐसे देखने लगे मानों दोनों का बहुत पुराना नाता है। जो वाल्मीकि रामायण के इस श्लोक से भी स्पष्ट झलकता है–
कृतवानस्मि यत् कर्म श्रुतवानसि भार्गव |
अनुरुन्ध्यामहे ब्रह्मन् पितुरानृण्यमास्थितः || १-७६-२
अर्थात् “मैं जानता हूँ कि आप क्यों मेरी परीक्षा ले रहे थे और मैं आपको आपकी पितृभक्ति के लिए नमन करता हूँ”।
ये हैं इसके पीछे के कारण
ज्ञात हो कि उस समय तक परशुराम पृथ्वी पर अत्याचारियों को समाप्त कर चुके थे इसलिए अब वो इस पदभार से मुक्त होना चाहते थे। भगवान श्रीराम ने परशुराम की आधी शक्तियों को अपने अंदर समाहित कर लिया और वचन दिया कि जब भी उन्हें इसकी आवश्यकता होगी तो उनकी शक्तियां उन्हें निराश नहीं करेंगी। ध्यान देने योग्य है कि महाभारत में अंबा और भीष्म का एक पूरा प्रकरण है जिसमें ऐसी स्थितियां बनती हैं कि परशुराम और भीष्म पितामह को आमने-सामने आना पड़ता है और दोनों के बीच युद्ध होता है।दूसरी ओर भीष्म से युद्ध में पराजित होने का एक तो सबसे बड़ा कारण यह है कि उनकी शक्तियां आधी हो चुकी थीं और वो मुक्ति भी चाहते थे।
परन्तु इसके अतिरिक्त अन्य कई कारण हैं, जैसे- भीष्म की माता सत्यवती ने उन्हें आजीवन विवाह न करने के निर्णय से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि “जाओ तुम जीवनभर अजेय रहोगे अर्थात् तुम्हें कितना भी बड़ा योद्धा हो पराजित नहीं कर पाएगा”।
इसके अलावा भीष्म और परशुराम की आयु में भी बहुत अधिक अंतर था और उनके अंदर ब्रह्मचर्य की शक्ति के साथ परशुराम से मिला अस्त्र भी था। इन्हीं कुछ कारणों के चलते भीष्म के पास अधिक शक्तियां थी, जिस कारण परशुराम को पराजित करने में उन्हें सरलता हुई। वरना परशुराम ने तो पृथ्वी पर अत्याचारियों का विनाश करके रक्त के सोरवर बना दिए थे, उन्हें कौन पराजित कर सकता था।
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