बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक और स्वतंत्रता सेनानियों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले महामना पंडित मदन मोहन मालवीय का नाम तो आप सबने सुना ही होगा। ये अपने समय के न केवल एक प्रभावशाली नेता हुआ करते थे बल्कि अंग्रेजों की नीतियों के विरुद्ध मुखर रूप से अपनी बात कहने वाले पत्रकार, वकील और शिक्षाविद भी हुआ करते थे। परन्तु सामान्य रूप से महामना के बारे में जब भी बात होती है तो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप में इनका जिक्र किया जाता है, जबकि उन्होंने अपने समय में आजादी की लड़ाई से लेकर भारतीयों को शिक्षित और सशक्त करने जैसे कई कार्यों में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। आज इस लेख में हम महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के जीवन से जुड़े कुछ ऐसे अनछुए पहलुओं के बारे में बात करेंगे, जिनके बारे में सामान्य रूप से बात नहीं की जाती है या यूं कहें कि उन पहलुओं को दबा दिया गया।
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महामना का प्रारंभिक जीवन
महामना पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसंबर 1861 को उत्तर-प्रदेश के प्रयागराज में हुआ था। इनका असल उपनाम ‘चतुर्वेदी’ हुआ करता था परन्तु इनके पूर्वज मालवा से प्रयागराज आए थे, इसलिए उन्होंने अपना उपनाम बदलकर मालवीय कर लिया। मालवीय जी ने अपनी आठवीं तक की शिक्षा प्रयागराज के जिला स्कूल से ही पूरी की और यहीं से उन्होंने ‘मकरंद’ नाम से कविताएं करना भी चालू कर दिया। उस समय में इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं की शोभा बढ़ाने और क्रांति की ज्वाला जलाने का काम करती थीं।
आठवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद वो म्योर सेंट्रल कॉलेज में आगे की पढ़ाई करने चले गए और वहां से उन्होंने मासिक स्कॉलरशिप प्राप्त कर कलकत्ता विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन पूरी की। वैसे तो मालवीय अपनी आगे की पढ़ाई करना चाहते थे परन्तु परिवार की स्थिति को देखते हुए उन्होंने वर्ष 1884 में इलाहाबाद के गवर्नमेंट हाई स्कूल में सहायक अध्यापक की नौकरी कर ली। मालवीय जी का मानना था कि भारत को स्वतंत्र कराने के लिए यहां के प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित और सशक्त करना बहुत आवश्यक है ताकि वह सही-गलत में फर्क करना सीखे सके। इसी उद्देश्य को लेकर वे कांग्रेस के मंच से जुड़ने लगे और अपने विचारों को धीरे-धीरे आम जनता तक पहुंचाने लगे।
‘पत्रकार’ और ‘वकील’ मदन मोहन मालवीय
मालवीय जी ने अपने विचारों को जनता तक सीधे तौर पहुंचाने के लिए वर्ष 1887 में शिक्षक की नौकरी छोड़ पूर्ण रूप से पत्रकारिता करना शुरू कर दिया। इस दौरान उन्होंने राष्ट्रवादी साप्ताहिक समाचार पत्र हिन्दुस्तान की शुरुआत की, जिसे कुछ दिनों बाद उन्होंने दैनिक समाचार पत्र में परिवर्तित कर दिया। यही नहीं, उन्होंने ‘अभ्युदय’, ‘लीडर’, और ‘मर्यादा’ जैसे दूसरे समाचार पत्र भी शुरू किए।
पत्रकारिता करने के साथ-साथ मालवीय जी ने अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी की और केवल डिग्री ही प्राप्त नहीं की बल्कि लंबे समय तक प्रैक्टिस भी की। वकालत करने के साथ-साथ मालवीय जी भारतीय राजनीति में भी सक्रिय थे जिसके कारण वर्ष 1909 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था। राजनीति में व्यस्तता के कारण वैसे तो मालवीय जी 1911 में वकालत छोड़ चुके थे परन्तु वर्ष 1922 में चौरी-चौरा कांड हुआ, जिसके बाद लगभग 172 स्वतंत्रता सेनानियों को अंग्रेजी सरकार ने फांसी की सजा सुना दी। ऐसे में मालवीय जी ने एक बार फिर से वकालत में वापसी की और 172 स्वतंत्रता सेनानियों में से न केवल 153 लोगों को सजा से बरी कराया बल्कि बचे हुए लोगों की फांसी की सजा को उम्र कैद में परिवर्तित भी करवाया।
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हिंदू महासभा का गठन और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना
मदन मोहन मालवीय अपने शुरूआती दिनों से ही शिक्षा के क्षेत्र में कुछ बड़ा काम करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने लोगों को जोड़ने के लिए पहले 1915 में हिंदू महासभा का गठन किया और फिर एक वर्ष पश्चात् 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय स्थापना की। यही नहीं, इस विश्वविद्यालय को बनाने के लिए उन्होंने न केवल अपने स्तर पर काम किया बल्कि अलग-अलग लोगों से सहायता भी ली। आज के समय में यह भारत का एक ऐसा विश्वविद्यालय है जहां दुनियाभर से छात्र शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते हैं। भारत को इतना सब कुछ देने के बाद महामना की मृत्यु भारत की आजादी से एक वर्ष पूर्व 1946 में हो गई।
महामना पंडित मदन मोहन मालवीय का भारत को आजादी दिलाने से लेकर विश्वविद्यालय का निर्माण करने तक, कई अतुलनीय योगदान हैं परन्तु आजाद भारत के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने महामना को इतिहास में वह स्थान नहीं दिया, जो उन्हें मिलना चाहिए था। यही नहीं, उन्हें ‘भारत रत्न’ भी वर्ष 2014 में दिया गया जबिक उनके योगदान को देखते हुए यह पुरस्कार बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था। आपको बताते चलें कि भारत के इतिहास में पंडित मदन मोहन मालवीय कोई अकेले व्यक्ति नहीं है, जिन्हें किनारे किया गया हो बल्कि सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह जैसे कई अनगिनत नाम हैं जिन्हें इतिहास की किताबों में सिर्फ कुछ पन्नों में ही सिमटा दिया गया।
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