कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन से निकले थे ये 3 क्रांतिकारी, जिन्हें नहीं मिला उनका उचित सम्मान

कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन जो आयोजित तो बातचीत के उद्देश्य से हुआ था लेकिन उसी अधिवेशन से तीन अद्भुत क्रांतिकारी निकले, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को नई दशा और दिशा प्रदान की।

कलकत्ता अधिवेशन

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“इतिहास में कोई भी परिवर्तन केवल वार्तालाप से कभी प्राप्त नहीं हुआ”

कलकत्ता अधिवेशन: इस बात में कितनी सत्यता है इसे प्रमाणित करने के लिए हमारे देश का भूगोल ही पर्याप्त है। यदि बातचीत से सबकुछ संभव होता और हमें अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए इतने यत्न नहीं करने पड़ते बल्कि जो स्वतंत्रता हमें 1947 में मिली, वह हमें 1930 के आसपास ही मिल जाती। एक अधिवेशन ने इस देश का इतिहास बदलकर रख दिया, क्योंकि वह आयोजित तो बातचीत के उद्देश्य से ही हुआ था परंतु उससे उत्पन्न हुई क्रांति ने भारत का इतिहास बदलकर रख दिया।

इस लेख में हम परिचित होंगे कांग्रेस के उस कलकत्ता अधिवेशन से, जिससे तीन अद्भुत क्रांतिकारी निकले और जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को नई दशा और दिशा दोनों प्रदान की।

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कलकत्ता अधिवेशन सबसे अलग था

कांग्रेस के कलकत्ता में कई अधिवेशन हुए, परंतु 1928 का कलकत्ता अधिवेशन सबसे अलग था। इसका नेतृत्व किया मोतीलाल नेहरू ने, जो उस समय के एक कद्दावर अधिवक्ता एवं प्रख्यात राजनेता थे।  मोतीलाल नेहरू का कद कांग्रेस में ऊंचा था, उनके स्वागत के लिए कांग्रेस के कई वॉलन्टियर तैयार थे, परंतु सबकी वेशभूषा में एक अंतर था। कांग्रेस सेवादल के पारंपरिक खादी परिधान के स्थान पर इन्होंने ब्रिटिश इंडियन आर्मी के खाकी परिधान पहने, और इनके नेता प्रमुख स्वयं एक ब्रिटिश आर्मी जनरल की वेशभूषा में सभी सेवकों के ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ का निरीक्षण कर रहे थे।

परंतु वो कौन व्यक्ति था, जिसके प्रभाव से अंग्रेज़ तो अंग्रेज़, स्वयं गांधी तक पसीने पसीने हो गए? इन सेवकों का नेतृत्व करने वाला कोई और नहीं, अपने नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे, जो उस समय बंगाल कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय युवा नेताओं में से एक थे, और जिन्हे गांधीवादी विचारधारा में अधिक विश्वास नहीं था।

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मोहनदास करमचंद गांधी बहुत खिन्न थे

हालांकि इस अधिवेशन और इस प्रकरण की बहुत चर्चा हुई, चाहे भारत के राजनीतिक केंद्रों में या फिर ब्रिटिश एम्पायर के क्लब्स में। कांग्रेस के अघोषित प्रमुख मोहनदास करमचंद गांधी इससे बहुत खिन्न थे, क्योंकि ये कथित तौर पर कांग्रेस को एक ‘हिंसक संगठन’ के रूप में चित्रित कर रहा था और वे ठहरे अहिंसा के पुजारी, जिन्हें ‘डोमिनियन स्टेटस’ से अधिक कुछ नहीं चाहिए। अपने अंग्रेज़ी आकाओं को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने कलकत्ता अधिवेशन के आयोजकों का उपहास उड़ाया और कहा कि ये ‘बर्टरैम मिल्स के सर्कस’ से अधिक कुछ नहीं है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसी अधिवेशन में एक और क्रांतिकारी ने बतौर श्रोता हिस्सा लिया था, और वे कांग्रेस की विचारधारा से बिल्कुल भी सहमत नहीं थे। परंतु यहीं इनका परिचय एक कांग्रेसी सेवक से हुआ, जो नेताजी के वॉलन्टियर्स दल में बतौर मेजर तैनात हुए थे। ये कोई और नहीं, यतीन्द्र नाथ दास थे, जिनका नाता अनेक क्रांतिकारी दलों से भी जुड़ा हुआ था, और जो क्रांतिकारी बतौर श्रोता आए थे, वह कोई और नहीं, अपने भगत सिंह थे, जो सॉन्डर्स को मार गिराने के बाद कलकत्ता में भेष बदल कर रह रहे थे। इन्हीं यतीन्द्र नाथ दास ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन को बम बनाना सिखाया, जिसके कारण भगत सिंह 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली के केन्द्रीय विधान परिषद [अब भारतीय संसद] में बम फोड़ने में सफल रहे।

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क्रांतिकारियों का पूरा दल

परंतु इस अधिवेशन से केवल यतीन्द्र नाथ दास ही नहीं निकले। इस अधिवेशन से क्रांतिकारियों का पूरा दल उत्पन्न हुआ, जिन्होंने लगभग एक दशक तक बंगाल और भारत के अन्य राज्यों में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की नाक में दम कर दिया था। इस दल का नाम था बंगाल वॉलन्टियर्स, और ये केवल सशस्त्र क्रांति में विश्वास रखते थे। इन्हें सम्पूर्ण रूप से बोस बंधुओं का संरक्षण प्राप्त था। जहां सुभाष चंद्र बोस राजनीतिक रूप से इन्हें समर्थन देते, तो वहीं कानूनी तौर पर इनकी सहायता करने के लिए सुभाष के अग्रज और चर्चित अधिवक्ता शरत चंद्र बोस सामने आए।

इस दल के क्रांतिकारियों ने कभी चट्टोग्राम [चटगांव] को लगभग एक हफ्ते तक ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र रखा, तो कभी राइटर्स बिल्डिंग में घुसकर दुष्ट अंग्रेज पुलिसकर्मी आईजी एनएस सिम्पसन को मार गिराते, और कभी तो सीधे बंगाली गवर्नर स्टेनली जैक्सन पर ही धावा बोल देते। इसी दल के कई क्रांतिकारी जैसे बिनॉय बसु, बादल गुप्ता, दिनेश गुप्ता, शांति घोष, सूर्य कुमार सेन [मास्टरदा], आनंद प्रसाद गुप्ता एवं देबी प्रसाद गुप्ता इत्यादि जैसे कई क्रांतिकारी निकले, जिन्होंने भारतीय इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया।

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त्यागपत्र देने पर विवश किया गया

अब इन्हीं कारनामों और उपलब्धियों से उत्साहित नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सोचा, जब ये प्रयोग बंगाल में सफल हो सकते हैं, तो देशभर में क्यों नहीं। इस प्रकरण में आग में घी का काम त्रिपुरी अधिवेशन ने किया, जहां जनाधार होने के बाद भी सुभाष चंद्र बोस को महात्मा गांधी ने त्यागपत्र देने पर विवश किया। यहीं से पड़ी थी आजाद हिन्द फौज की नींव, जिसने देशवासियों को ऐसा प्रेरित किया कि जब 1946 में रॉयल इंडियन नेवी और रॉयल इंडियन एयरफोर्स में सैनिक विद्रोह पे उतरे तो पूरा देश उनके साथ एक हो लिया। यूं समझ लीजिए कलकत्ता के उस कांग्रेस अधिवेशन से देश में असली क्रांति की नींव पड़ी, जिसके अधिनायक केवल एक थे – नेताजी सुभाष चंद्र बोस।

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