महाजनपदों का गौरवशाली इतिहास: भाग 4- अवंती

अवंती 16 महाजनपदों के उन महाजनपदों में एक था जो सबसे शक्तिशाली हुआ करता था। यह प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न और धन संपदा से संपन्न राज्य था।

The glorious history of the Mahajanapadas part-4 Avanti

Source- TFI

प्राचीन भारतीय इतिहास में 6वीं शताब्दी ई.पू. के समय को एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल के रूप में माना जाता है। इस काल को आरंभिक राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते प्रयोग और सिक्कों के विकास के साथ जोड़कर देखा जाता है। भारत के लिए 6वीं शताब्दी ई.पू. का काल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता के बाद नगरीकरण की दूसरी प्रक्रिया यहीं से प्रारंभ हुई थी। यही वो समय था जब भारत में शक्तिशाली महाजनपदों का उदय हुआ था। बौद्ध और जैन धर्म  के साथ-साथ महाभारत से भी 16 महाजनपदों के बारे में उल्लेख मिलता है। इसीलिए आज इस हम 16 महाजनपदों में से एक शक्तिशाली महाजनपद अवंती के बारे में विस्तार से चर्चा करने जा रहे हैं।

दरअसल, अवंती 16 महाजनपदों के उन महाजनपदों में एक था जो सबसे शक्तिशाली हुआ करते थे। वर्तमान समय में इसकी पहचान मध्य प्रदेश के आधुनिक मालवा क्षेत्र के रूप में की जा सकती है। अवंती महाजनपद विन्ध्यांचल पर्वत श्रृंखला के कारण दो भागों में बंटा हुआ था। एक उत्तरी अवंती और दूसरा दक्षिणी अवंती। उत्तरी अवंती की राजधानी उज्जैनीय हुआ करती  जिसे आज हम उज्जैन के नाम से जानते हैं। वहीं दूसरी ओर दक्षिणी अवंती की राजधानी माहिष्मति हुआ करती थी इसे आज हम माहेश्वर के नाम से जानते हैं।

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प्राचीन समय में अवंती एक महत्वपूर्ण राज्य हुआ करता था क्योंकि इसकी दोनों राजधानियां उत्तर भारत को दक्षिण से जोड़ने और पश्चिमी समुद्री तट के बंदरगाह से जोड़ने  का काम करती थीं। अवंती को एक प्रमुख व्यापारिक मार्ग के रूप में उपयोग किया जाता था। अवंती जनपद की समय सीमा के बारे में बात की जाए तो लगभग 600 ई.पू. से 300 ई.पू. बताई जाती है।

अवंती के शासक

अवंती मजनपद पर शासन करने वाले राजाओं के बारे में बात की जाए तो हैहय वंश को अवंती का सबसे पहला शासक बताया जाता है। कहा जाता है कि प्रारंभ में हैहय वंश ने माहिष्मती पर शासन किया था लेकिन बाद में उज्जैनीय को अपने अंतर्गत सम्मिलित कर लिया था। हैहय वंश पांच कुलों का एक संघ था जिसमें वितिहोत्र, भोज, अवंती, तुंडिकेर और शरयत नाम के कुल आते थे। इने पांचों कुलों में से वीतिहोत्रों ने आगे चलकर अवंती पर शासन किया था। लेकिन वितिहोत्र के शासक रिपुंजय के बारे में बाताया जाता है कि इनके मंत्री पुलिक ने छलकर इन्हें गद्दी से हटा दिया जिसके बाद पुलिक ने अपने बेटे प्रद्योत को सिंहासन पर बैठाया था। प्रद्योत के सिंहासन पर बैठने के बाद से ही प्रद्योत वंश की शुरुआत मानी जाती है। पद्योत को चंद्रप्रद्योत महासेना के नाम से भी जाना जाता था और इन्हें गौतम बुद्ध के समकालीन बताया जाता है। कथासरित्सागर और अवसरक कथानाका के अनुसार वत्स राज्य प्रद्योत के अंतर्गत ही आता था।

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अवंती की शासन व्यवस्था

महाजनपदों की शासन व्यवस्था के बारे में बात की जाए तो अधिकतर जनपद राज व्यवस्था के द्वारा ही चलाए जा रहे थे। लेकिन वज्जि और लिच्छावि जैसे कुछ ऐसे जनपद भी थे जो एक गणराज्य की तरह कार्य कर रहे थे। गणराज्य के अंतर्गत काम करने वाले जनपद एक समूह के द्वारा चलाए जाते थे यानी सभी निर्णय समूह की सहायता से लिए जाते थे। हालांकि अवंती एक राज व्यवस्था के अंतर्गत चलने वाला राज्य था यहां अंतिम निर्णय राजा का ही हुआ करता था। लेकिन मगध,कौशल और वत्स के साथ-साथ अवंती उस समय के सबसे शक्तिशाली राज व्यवस्था चलाने वाले जनपदों में से एक था। यही नहीं लोगों को अपनी बात कहने का अधिकार भी हुआ करते थे।

अवंती की सामाजिक व्यवस्था

अवंती के समय को अगर याद किया जाए तो 6वीं शाताब्दी ई.पू. में अवंती जनपद फला-फूला इस दौरान समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्णों में विभाजित था। योग्यात के आधार पर चारों वर्णों में उनका काम विभाजित किया गया था। उदाहरण के लिए ब्राह्मणों का काम शिक्षा व्यवस्था को चलाना था, क्षत्रियों का राज करना और राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखना, वैश्य वर्ण का व्यापार व्यवस्था को नियंत्रित करना था। वहीं शूद्र वर्ण का काम अन्य दूसरे कार्य करना था। उस समय का समाज वर्णों में विभजित अवश्य था लेकिन लोगों को उनके अधिकार थे। जन्म के आधार पर नहीं बल्कि योग्यता के आधार पर समाज विभाजित था।

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अवंती की व्यापारिक व्यवस्था

व्यापार किसी भी राज्य के लिए एक महत्वपूर्ण आय का साधन होता है। कुछ इसी प्रकार अवंती जनपद के लोग भी व्यापार से अनजान नहीं थे। ज्ञात हो अवंती एक ऐसे स्थान पर स्थित था जो न केवल उत्तर भारत को दक्षिण भारत से  जोड़ता था बल्कि अरब सागर में स्थित बरकछा जिसे आज बरूच के नाम से जाना जाता है को भी जोड़ने का काम करता था। इसमें कोई दो राय नहीं कि व्यापारिक दृष्टि से अवंती एक धनी जनपद था। यही नहीं व्यापार करने के लिए उस समय के लोग बैल गाड़ियों के साथ-साथ नावों का भी उपयोग किया करते थे। हस्तशिल्प कला उस समय के अधिकतर कारीगरों के जीवनयापन का आधार हुआ करती थी। वस्तुओं का आदान-प्रदान करने के लिए वस्तु विनिमय प्रणाली (barter system) के साथ-साथ सिक्के भी चलन में थे। हालांकि वर्तमान युग की तरह कोई व्यवस्थित बैंकिक सुविधा तो नहीं हुआ करती थी लेकिन वणिक समाज के लोग लेन देन की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाया करते थे।

अवंती जनपद के बारे में यदि संक्षेप में कहा जाए तो यह 6वीं शाताब्दी में प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न और धन संपदा से संपन्न राज्य था। इसके पास के जितने भी जनपद थे वे सभी अवंती की धन संपन्नता के सामने बहुत कम समृद्ध और कम विकसित थे। 6वीं शताब्दी में अवंती सिंधु घाटी के बाद पुनः एक बार शहरीकरण और कृषि के विकास में महत्वपूर्ण राज्य था। यदि महजनपद काल को भारत में खेतीबड़ी और शहरीकरण के विकास का काल कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। इसके अलावा महजनपद काल में ही बौद्ध और जैन धर्म फले फूले थे।

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