संगीत और भारत का एक बहुत पवित्र नाता रहा है। हमारे सबसे पवित्र ग्रंथों में से माने जाने वेदों में से एक पूरा वेद तो केवल संगीत को ही समर्पित है- सामवेद। ऐसे में आप भली भांति समझ सकते हैं कि भारत में संगीत को कितना अधिक महत्व दिया जाता है और जो इस संगीत को एक नया मंच दें, उसका सम्मान करना तो बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। परंतु एक ऐसे भी सुर सम्राट थे, जिन्होंने इस देश को काफी कुछ दिया, परंतु उनकी प्रतिभा, उनकी योग्यता को बहुत समय बाद लोगों ने पहचाना।
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इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे सी रामचंद्र ने भारतीय संगीत को एक नया मंच प्रदान किया, परंतु इस सुर सम्राट की योग्यता को बहुत अधिक सम्मान नहीं दिया गया?
सी रामचंद्र कौन हैं भाई? बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस व्यक्ति को आप इस नाम से भले न जाने, परंतु अगर ये फिल्म न देखी, विशेषकर ‘ओ बेटा जी, ओ बाबू जी’ इस गीत को न सुना, तो खाक भारतीय सिनेमा के प्रशंसक हुए आप।
जी हां, नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित ‘लूडो’ में प्रसारित इस सुप्रसिद्ध गीत को संगीत देने वाले और कोई नहीं रामचंद्र नरहर चितलकर थे, जिन्हें सी रामचंद्र के नाम से बेहतर जाना जाता है। ये संगीतज्ञ होने के साथ साथ एक प्रसिद्ध निर्माता, अभिनेता एवं अद्वितीय प्रतिभा से परिपूर्ण गायक भी थे। लता मंगेशकर को जिस तरह खेमचंद प्रकाश ने ‘जिद्दी’ के माध्यम से एक मंच दिलवाया, सी रामचंद्र ने एक कदम आगे बढ़ते हुए उन्हें प्रसिद्धि एवं अद्वितीय समृद्धि दिलवाने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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अलबेला के प्रसिद्ध गीत
उदाहरण के लिए 1951 में एक फिल्म आई थी अलबेला, वह केवल इसलिए ही प्रसिद्ध नहीं हुई क्योंकि उसके प्रमुख अभिनेता, भगवान दादा ने अपना सर्वस्व इस फिल्म में अर्पण कर दिया। ये इसलिए भी प्रसिद्ध हुई क्योंकि इसके संगीत का उस समय कोई तोड़ नहीं था और इसके सबसे प्रसिद्ध गीतों में सी रामचंद्र ने न केवल संगीत दिया, अपितु अपनी आवाज़ दी थी। वे अपने अनोखे संगीत शैली के लिए जाने जाते थे, जिसमें सीटियों से लेकर सैक्सोफोन तक का मिश्रण सम्मिलित था। इसी फिल्म से तीन अद्वितीय गीत, “किस्मत की हवा कभी नरम”, “भोली सूरत दिल के खोटे”, और “शोला जो भड़के” थे, जिसमें से “भोली सूरत” और “शोला जो भड़के” में लता जी का साथ सी रामचंद्र ने भरपूर दिया था।
केवल इतना ही नहीं, इनके संगीत का प्रभाव ऐसा था कि इनके कई गीतों को कॉपी भी किया गया। बहुत कम लोग इस बात को जानते होंगे कि दामिनी का सुप्रसिद्ध गीत ‘गवाह है’ असल में सी रामचंद्र के एक मराठी फिल्म ‘घरकुल’ से या तो प्रेरित था ये फिर टीपा गया था, क्योंकि सब अनुराग बासु जितने समझदार तो हैं नहीं।
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‘ए मेरे वतन के लोगों’ की रचना की
परंतु उनकी सबसे सुप्रसिद्ध रचना थी ‘ए मेरे वतन के लोगों’, जिसे गाया लता मंगेशकर ने और बोल रचे थे कवि प्रदीप ने। ये गीत भारतीय सैनिकों की स्मृति में रचा गया था, विशेषकर तब जब 1962 के युद्ध में भारत विपरीत परिस्थितियों में प्रशासनिक अक्षमता के कारण चीन से पराजित हुआ था। ऐसे में देश को हतोत्साहित होने से रोकने के लिए एक चैरिटी समारोह आयोजित किया, जिसमें स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी भाग लिया।
परंतु इतना प्रसिद्धि प्राप्त करने के बाद भी सी रामचंद्र को क्या मिला? न उन्हें बॉलीवुड से कोई यश प्राप्त हुआ, न ही उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से कभी सम्मानित किया गया। ऐसे ही गुमनामी का बोझ ढोते हुए वे 5 जनवरी 1982 को इस संसार से सदैव के लिए विदा हो गए। परंतु उनकी विरासत अनदेखी नहीं गई और इसी का परिणाम है कि वर्षों बाद, एक OTT फिल्म के माध्यम से उनके संगीत को पुनः वो सम्मान मिला, जिसके वे वास्तव में योग्य थे। सही कहा था किसी ने, ज्ञान पर निवेश कभी व्यर्थ नहीं जाता।
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