साल 1947 में भारत की आजादी के साथ-साथ एशिया और अफ्रीका के विभिन्न देश कई सालों की औपनिवेशिक परतंत्रता से स्वतंत्र हो रहे थे। समूचे एशिया और अफ्रीका से सूट-बूट पहनने वाले पश्चिमी लुटेरे धीरे-धीरे अपने घर की ओर प्रस्थान करने लगे थे। जनता ने जिस स्वराज की स्थापना का सपना देखा था वह सच होने जा रहा था। लेकिन दूसरी ओर दुनिया में एक मानसिक और वैचारिक परतंत्रता की लहर चल पड़ी थी, जिसे हम शीत युद्ध के नाम से जानते हैं।
जब दुनिया दो ध्रुवों में बंट गई
शीत युद्ध के दौरान दुनिया दो ध्रुवों में बंट गई थी जिसमें से एक था संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) और दूसरा था सोवियत संघ (USSR)। ये दुनिया के दो नये बाहुबली थे जिसमें एक कट्टर पूंजीवाद का अनुसरण करने वाला और दूसरा कट्टर समाजवादी विचारधारा का अनुसरण वाला था। ऐसे में दुनिया के बाकी देशों के समक्ष इन दोनों देशों में से किसी एक का हाथ थामना आवश्यक जान पड़ता था। लेकिन भारत ने शीत युद्ध के दौरान ‘गुट निरपेक्षता’ यानी दोनों में से किसी के भी साथ न जाने की नीति अपनायी। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व्यक्तिगत रूप से समाजवादी विचाधारा से प्रभावित थे जोकि आने वाले समय में उनकी नीतियों में भी देखने के लिए मिलता है।
नेहरू भू-राजनीति में रुचि रखने वाले और स्वयं की छवि को एक ग्लोबल लीडर के रूप में पेश करने वाले महत्वाकांक्षी नेता थे। देश के स्वतंत्र होने के बाद नेहरू देश के प्रधानमंत्री तो बन ही गए थे लेकिन अब उन्हें वैश्विक स्तर पर अपनी छवि को उभारना था। जिसके लिए उन्होंने कई ऐसे निर्णय लिए जो बाद में बड़े ही दुखदायी सिद्ध हुए। इन्हीं फैसलों में से एक था ‘पंचशील सिद्धांत’ जिसे नेहरू ने एक शांति समझौते के रूप में पेश किया था लेकिन ये आगे चलकर भारत में अशांति फैलाने का सबसे बड़ा कारण सिद्ध हुआ।
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चीन सिद्धांतों पर चलने वाला देश नहीं है
आज नेहरू द्वारा लाए गए पंचशील सिद्धांत के बारे में विस्तार से जानेंगे और जानेंगे कि नेहरू पंचशील सिद्धांत क्यों लेकर आए और इसके असफल होने के बाद भी वे इसी सिद्धांत पर क्यों अड़े रहे? इस लेख में समझने का प्रयास करेंगे कि क्यों उन्होंने नहीं पहचाना कि चीन सिद्धांतों पर चलने वाला देश नहीं है?
1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद एशिया में भारत और चीन दो ही बड़े देश थे और आज भी हैं। एक ओर भारत की बागडोर नेहरू के हाथ में थी तो वहीं दूसरी ओर चीन की बागडोर ‘चाऊ एन लाई’ के हाथ में थी। दोनों देश नये-नये स्वतंत्र हुए देश थे और नेहरू चीन के साथ भारत के संबंधों को बेहतर बनाकर स्वयं को वैश्विक नेता के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। इसीलिए वे पांच सिद्धातों का एक प्रारूप लेकर आए जो पंचशील सिद्धांत के नाम से जाना गया। 29 अप्रैल 1954 को बीजिंग में इस समझौते पर दोनों देशों ने हस्ताक्षर किए जिसका मूल उद्देश्य दोनों देशों के बीच शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की व्यवस्था कायम करना था। इसके अंतर्गत निम्नलिखित पांच सिद्धांतों को रखा गया था-
- एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
- एक-दूसरे पर आक्रमण न करना।
- परस्पर सहयोग एवं लाभ को बढ़ावा देना।
- एक दूसरे की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का परस्पर सम्मान करना।
- शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति को अपनाना।
पंचशील में इन पांच सिद्धांतों को रखा गया था। जिनका प्रभाव न सिर्फ चीन के साथ भारत के संबंधों में देखने के लिए मिला बल्कि भारत की सम्पूर्ण विदेश नीति पर इसका प्रभाव देखा गया।
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कैसे असफल हुआ पंचशील?
पंचशील समझौते को अपनाने और उसके बाद आए इसके परिणामों का अध्ययन किया जाए तो पंचशील असफल दिखाई देता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसे व्यवहारिकता नहीं बल्कि सैद्धांतिकता को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था। चीन जिस वामपंथी विचारधारा के साथ अपने यहां शासन चलाता है या उसकी जो विस्तारवाद की नीति है उस पर यदि ध्यान दें तो पंचशील जैसे सिद्धांतों को चीन कभी अपना ही नहीं सकता है। ऐसे में नेहरू का चीन के साथ पंचशील जैसे सिद्धांतों पर समझौता करना भारत को दुर्बल स्थिति में डालने वाला कदम था।
अंततः इसका परिणाम भी कुछ ऐसा ही हुआ। चीन ने पंचशील सिद्धांत पर हस्ताक्षर तो किया लेकिन उसने इसे कभी अपनाया नहीं। वहीं दूसरी ओर भारत इन सिद्धांतों का प्रतिपादक था, इसलिए वह इसका मजबूती से पालन करता रहा जिसके चलते चीन के समक्ष भारत की छवि एक दुर्बल देश के रूप प्रस्तुत होती गई और अंत में उसने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया।
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नेहरू क्यों गाते रहे पंचशील के गान?
पंचशील की शुरुआत होने के बाद से ही चीन ने इसका कभी भी पूर्ण रूप से पालन नहीं किया लेकिन नेहरू फिर भी पंचशील का गान करते हुए हिंदी चीनी भाई-भाई का नारा दे रहे थे। उनकी ये सबसे बड़ी भूल थी कि वे यह मान कर चल रहे थे कि चीन शांति की राह पर आकर भारत के साथ कदम से कदम मिलाकर चलेगा। 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर हमला किया था तब भी नेहरू पंचशील को ध्यान में रखते हुए चीन की आलोचना नहीं की। हालांकि तिब्बत पर कब्जा करने के बाद नेहरू के करीबियों ने उन्हें पंचशील के सिद्धांतों पर अमल न करने की सलाह दी थी क्योंकि जो चीन तिब्बत पर आक्रमण कर सकता है वो तो भारत पर भी कर सकता है।
नेहरू तो नेहरू थे वो इन स्थितियों को समझना ही नहीं चाहते थे, पंचशील पर पूर्ण रूप से विश्वास था इसलिए वे अभी भी यही समझ रहे थे कि चीन-भारत का मित्र देश है। पर नेहरू का यह भ्रम जल्द ही तब टूट गया जब चीन ने 20 अक्टूबर 1962 के दिन सुबह 5 बजे लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर एक साथ हमला किया। 20 अक्टूबर से 21 नवंबर के बीच चले इस युद्ध में भारत को हार का सामना करना पड़ा और नेहरू का हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा धरा का धरा रह गया।
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पंचशील नेहरू की सबसे बड़ी भूल
1962 के युद्ध में भारत के तीन हजार के लगभग सैनिक शहीद हुए थे और लगभग 43 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर चीन ने तब कब्जा किया था, जिसमें से आज भी एक बड़ा भाग चीन के पास ही है। इस तरह नेहरू की वैश्विक नेता बनने की महत्वाकांक्षा धरी की धरी रह गई और हार के बाद देश में उनकी छवि धूमिल हुई सो अलग।
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