“दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे,
आजाद ही रहें हैं, और आजाद ही रहेंगे!”
चंद्रशेखर आजाद एक ऐसा नाम जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का उतना ही अभिन्न अंग है जितना सरदार पटेल, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह इत्यादि। 27 फरवरी 1931 को केवल 24 वर्ष की आयु में इन्होंने मातृभूमि को अपने प्राण अर्पण कर दिए और देश ने मानों अपने एक कर्मठ पुत्र को खो दिया जो अपनी भारत मां के लिए अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार था। परंतु यदि आपको कहा जाए कि चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु रोकी जा सकती थी, तो? चंद्रशेखर आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की खबर पहुंचाया जाना कोई संयोग नहीं थी, अपितु इसके पीछे इसके सुनियोजित योजना थी।
चंद्रशेखर आज़ाद अपने उपनाम के अनुरूप स्वतंत्र रहे और उन्हें जीते जी पुलिस कभी नहीं पकड़ पाई। परंतु ऐसा क्या हुआ कि जो व्यक्ति पुलिस के लाख प्रयास के बाद भी पकड़ में नहीं आया, वह अचानक से इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अल्फ्रेड पार्क में घेरा गया और उनके पास वीरगति को प्राप्त होने के सिवाए कोई चारा ही नहीं बचा? इसके पीछे कई थ्योरी हैं, परंतु इतना स्पष्ट है कि एक व्यक्ति के विश्वासघात से ये संभव हुआ था। तो कौन था वो घर का द्रोही?
यूं तो चंद्रशेखर आज़ाद से द्वेष रखने वाले कई थे, परंतु उन सभी में 3 नाम प्रमुख तौर पर आते हैं, जिन्होंने कहीं न कहीं पण्डित जी के साथ विश्वासघात किया और इससे उन्हें किसी न किसी भांति लाभ होता।
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1) वीरभद्र तिवारी
सर्वप्रथम अभियुक्त इस मामले में ठहरे वीरभद्र तिवारी जिन्हें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) से रोष था और जिनसे चंद्रशेखर आज़ाद रुष्ट थे। जब भी चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु का उल्लेख होता है, अधिकतम संस्मरणों में इनका ही सबसे अधिक उल्लेख होता है। ये HSRA के कनिष्ठ सदस्यों में सम्मिलित थे, जिनसे दल छोटे मोटे कार्य करवाती थी।
अब संदेह तो स्वाभाविक है, परंतु जो पार्टी में बहुत ऊंचे कद का न हो, उसे इतनी जानकारी कहां से मिलती। इसके अतिरिक्त जितने भी स्त्रोत उपलब्ध है, उनसे यही ज्ञात होता है कि वीरभद्र तिवारी को चंद्रशेखर आज़ाद की अधिकतम जानकारियों का कोई आभास नहीं था। अब विश्वासघात भी तो वही करने में योग्य होगा, जिसे पल पल की खबर हो। क्या इस ओर किसी ने ध्यान दिया?
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2) जवाहरलाल नेहरू
एक और नाम, जो चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु के समय चर्चा में रहता है और वह है जवाहरलाल नेहरू का, जो उस समय कांग्रेस के युवा दल का नेतृत्व कर रहे थे। इनके पिता मोतीलाल नेहरू अति लोकप्रिय अधिवक्ता कांग्रेस नेता होने के साथ साथ क्रांतिकारियों का भी अप्रत्यक्ष समर्थन करते थे, एवं उन्हें समय समय पर वित्तीय सहायता भी देते थे। परंतु जवाहरलाल नेहरू न तो इतने प्रबल थे, न ही इतने सशक्त। उल्टे वे क्रांतिकारियों को हीन दृष्टि से देखते थे।
इसके कई अवसर सामने आए हैं। उदाहरण के लिए जवाहरलाल से आज़ाद की भेंट आनन्द भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने अपनी आत्मकथा में ‘फासीवादी मनोवृत्ति’ के रूप में किया है। यानि क्रांतिकारी इनके लिए फासीवादी से कम नहीं थे, परंतु इस बात पर वर्तमान वामपंथियों को सांप सूंघ जाएगा। इस विचार की कठोर आलोचना क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि नेहरू ने आज़ाद के दल के सदस्यों को समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु रूस भेजने के लिये एक हजार रुपये दिये थे जिनमें से 448 रूपये आज़ाद की मृत्यु के पश्चात उनके वस्त्रों में मिले थे।
इसके अतिरिक्त अपने बलिदान से कुछ दिनों पूर्व चंद्रशेखर आज़ाद एक अंतिम बार अपील करने आए थे कि वे गांधी को समझाए और अंग्रेज़ सरकार से भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु के मृत्युदंड को क्षमा करने पर दबाव दिया। परंतु नेहरू गोलमोल उत्तर देने लगे, जिसके कारण चंद्रशेखर आज़ाद क्रोध में भुनभुनाते हुए बाहर चले आए।
तो क्या नेहरू ने चंद्रशेखर आज़ाद के साथ विश्वासघात किया? हो भी सकता है और नहीं भी। नेहरू क्रांतिकारियों से चिढ़ते अवश्य थे और वे चाहते तो उनका पूरा दल समाप्त कर सकते थे। परंतु उस समय उनकी मंशा कांग्रेस पार्टी में अपना स्थान सशक्त करने की अधिक थी। ऐसे में चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारी उनके लिए अधिक मायने शायद ही रखते। नेहरू अपरिपक्व और अधीर अवश्य थे, परंतु कुटिल नहीं।
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3) यशपाल
परंतु इन सब के अतिरिक्त जिस व्यक्ति के बारे में सबसे कम चर्चा होती है, वह है HSRA के प्रमुख सदस्यों में से एक यशपाल। यशपाल, भगत सिंह एवं उसके साथियों के साथ नेशनल कॉलेज से जुड़ा हुआ था, परंतु वह प्रारंभ में इतना सक्रिय नहीं था। लेकिन जब भगत सिंह एवं उनके कई साथी हिरासत में लिए गए, तो यशपाल, भगवती चरण वोहरा एवं चंद्रशेखर आज़ाद पर HSRA को संभालने का कार्यभार आ पड़ा।
अब यशपाल प्रारंभ में कांग्रेस के प्रति आकर्षित हुए, परंतु असहयोग आंदोलन से मोहभंग के कारण वे नेशनल कॉलेज से जुड़ गए, जहां उनका परिचय भगत सिंह, सुखदेव थापर जैसे युवाओं से हुआ। इनके विचारों से वे बड़े प्रेरित हुए और वे भी क्रांति के मार्ग पर चल पड़े। परंतु वे बाकियों की भांति उतने सक्रिय नहीं थे, जितने अन्य थे। कभी सोचा ऐसा क्यों?
यशपाल को चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु का दोषी माना जाता है? परंतु ये कैसे संभव है? प्रख्यात इतिहासकार और चर्चित आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल के ट्वीट अनुसार- “कहा जाता है कि यशपाल ही चंद्रशेखर आज़ाद की वीरगति का प्रमुख कारण थे। इसलिए कुछ क्रांतिकारी हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गए। उसे बचाने के लिए जेल में रखा गया और अंग्रेज़ों ने उसका भरपूर ख्याल रखा। इतना ही नहीं उसने आम क्रांतिकारियों की तुलना में अपना दंड केवल 6 वर्ष में पूरा किया और जेल में विवाह भी किया (जो अस्वाभाविक था)। 1946 में एक पत्र मिला कि कैसे यशपाल को एक ‘खबरी’ के रूप में हस्तांतरित किया गया। उसने फिर कम्युनिस्टों में भी सेंध लगाई और उसका समर्थन करने में सहारनपुर से मुस्लिम लीग का एक सदस्य और इलाहाबाद से कांग्रेस का एक सदस्य भी शामिल था।”
A major structural problem with Indian intellectual life is that it was taken over mostly by those who had collaborated rather than opposed colonial occupation. See attached letter from 1946 on how Hindi writer Yashpal was "handed over" as an informer 1/n pic.twitter.com/f9y6ILYhYq
— Sanjeev Sanyal (@sanjeevsanyal) April 17, 2019
अब संजीव गलत भी नहीं है, क्योंकि स्वतंत्रता के पश्चात कई क्रांतिकारियों को गुमनामी का जीवन जीना पड़ा, जबकि यशपाल पूरे ठाट-बाट से रहे, मानों सरकार के निजी दामाद हों। इतना ही नहीं, इस व्यक्ति ने ये भी आरोप लगाए कि वीर सावरकर ने चंद्रशेखर आजाद और उसके साथियों को मोहम्मद अली जिन्ना को मारने की सुपारी दी थी, जबकि सत्य तो यह था कि आज़ाद उनके वित्तीय सहायता और उपकार से चकित हुए, परंतु उनकी विचारधारा तनिक अलग थी और इसलिए वे पूर्णत्या सावरकर के समर्थन में नहीं आए। स्वयं HSRA की प्रमुख सदस्य और क्रांतिकारियों की आराध्य, दुर्गावती वोहरा अथवा दुर्गा भाभी भी यशपाल से सचेत रहती थी।
ऐसे में चंद्रशेखर आज़ाद के साथ किसने विश्वासघात किया, ये आज भी रहस्य है, परंतु इतना तो स्पष्ट है कि हमारे वीर योद्धाओं को जितने घाव अंग्रेज़ों ने नहीं दिए उससे अधिक इनके अपनों ने दिए।
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