जस्टिस हंसराज खन्ना: वो न्यायाधीश जिसने जिसने सबकुछ गंवा दिया लेकिन इंदिरा गांधी के विरुद्ध खड़ा रहा

जस्टिस हंसराज खन्ना की कहानी!

Justice Hans Raj Khanna: A Judge Who Stood Firm in the Face of Adversity

Source: Indian Liberals

एक ओर जीवन भर की समृद्धि और ऐशो आराम और दूसरी ओर आदर्शों एवं नीति की रक्षा हो, तो आप क्या चुनेंगे? अधिकतम लोग प्रथम विकल्प ही चुनेंगे, जोकि स्वाभाविक भी है, परंतु कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनके लिए न्याय और नीति बहुत महत्वपूर्ण होती है और इसकी हेतु वो बड़े से बड़े तानाशाह से भी भिड़ जाते हैं। जस्टिस हंस राज खन्ना, ऐसे ही एक व्यक्ति हैं।

इस लेख में जस्टिस हंसराज खन्ना के बारे में पढ़िए, जिन्होंने मुख्य न्यायाधीश का पद छोड़ा, परंतु अपने आदर्शों एवं न्याय के साथ समझौता नहीं किया।

केशवानंद भारती केस

 

जस्टिस हंसराज खन्ना को देशभर में हैबियस कॉरपस के लिए निडर और साहसी जज के तौर पर जाना जाता है। 1970 के दशक में जो कुछ हुआ, बाद के वर्षों में वो इतिहास बन गया। 1971 में हंसराज खन्ना को उनकी सेवाओं के लिए सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया।

उन दिनों इंदिरा गांधी देश के प्रशासन को संभाल रही थी और वे अपने विरुद्ध किसी भी प्रकार की आलोचना स्वीकार नहीं कर सकती थी। परंतु जस्टिस एच आर खन्ना अलग ही मिट्टी के बने थे। वे एक बार नहीं, अपितु दो बार विभिन्न विषयों को लेकर कांग्रेस पार्टी से भिड़ गए, जिसका मूल्य उन्हे मुख्य न्यायाधीश के संभावित पद का बलिदान देकर चुकाना पड़ा।

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केशवानंद भारती केस से आप अवश्य अवगत होंगे- इस मामले ने देश के कोने-कोने में उतना प्रभाव डाला, जितना तीन तलाक और राम जन्मभूमि जैसे मामलों ने डाला था।
सत्ता पर अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए इंदिरा गांधी किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थी लेकिन उनके इन प्रयासों पर जस्टिस हंसराज खन्ना ने पारी फेरते हुए इस बहुचर्चित केस में स्पष्ट किया था कि संविधान के मूल आधार से किसी प्रकार की छेड़खानी नहीं की जा सकती।

इसके बाद 1975 में आपातकाल लागू हो चुका था, जिसका मूल कारण एक महत्वपूर्ण केस ही था। राज नारायण ने प्रधानमंत्री की निरंकुशता के विरुद्ध एक लंबा चौड़ा अभियान चलाया, जिसके परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट द्वारा 12 जून 1975 के बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री के अधिकार छीन लिए गए थे। वे केवल नाम की प्रधानमंत्री थी, क्योंकि ना ही वो संसद में वोट कर सकती थी और न हीं उन्हें लोकसभा में कुछ बोलने का अधिकार था।

इंदिरा के विरुद्ध खड़े हो गए जस्टिस हंसराज खन्ना

इसके बाद इंदिरा गांधी बौखला गईं और उन्होंने 26 जून को देश में आपातकाल लगा दिया। इसके अन्तर्गत अब देश में वे सर्वेसर्वा थीं। उनके बनाए गए कानून को चुनौती देना का हक किसी को नहीं था। वो उस समय देश की तानाशाह बन गई थीं।

इसी समय उन्होंने एक कानून लागू कर दिया कि कोई भी ऐसा व्यक्ति कोर्ट में न्याय के लिए अपील नहीं कर सकता था। जिसके साथ बुरा बर्ताव हुआ हो या फिर जिसके परिवार के सदस्यों को बिना किसी कानूनी अधिकार के ही हिरासत में ले लिया गया हो।

इस कानून की जांच के लिए एक पैनल गठित हुआ था। जिसमें 5 जजों को शामिल किया गया था। मुख्य न्यायाधीश अजित नाथ राय, जस्टिस एम एच बेग, जस्टिस पी एन भगवती, जस्टिस हंसराज खन्ना और जस्टिस चंद्रचूड़ इस पैनल का हिस्सा थे। बता दें कि जस्टिस चंद्रचूड़ कोई और नहीं, वर्तमान चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ के पिता और भारत के न्यायपालिका इतिहास में सबसे युवा चीफ जस्टिस, यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ थे।

परंतु  इनमें से किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो इंदिरा गांधी के विरुद्ध जा सके। किसी में नहीं, सिवाय जस्टिस हंसराज खन्ना के, जिन्होंने ऐसी विकट परिस्थिति में भी न्याय का साथ नहीं छोड़ा।

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उन्होंने महाधिवक्ता से पूछा कि भारतीय संविधान में नागरिकों को प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। आपातकाल में यदि कोई पुलिस अधिकारी केवल व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण किसी व्यक्ति की हत्या कर देता है, तो क्या आपके अनुसार मृतक के संबंधियों को न्याय पाने के लिए कोई रास्ता नहीं है?

जिसके जवाब में महाधिवक्ता नें कहा कि जब तक आपातकाल जारी है तब तक ऐसे व्यक्तियों को न्याय पाने का कोई रास्ता नहीं है। लेकिन फिर भी उन्होंने अपना निर्णय नहीं बदला। जिसके लिए आज भी उनके साहस को याद किया जाता है।

उस केस में 4-1 के बहुमत से फैसला लिया गया कि किसी भी ऐसे व्यक्ति को आपातकाल के दौरान अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ चुनौती देने का अधिकार नहीं है। परंतु ये साहस उन्हे बहुत महंगा पड़ा।

केशवानंद भारती वाले मामले के कारण पहली ही इन्हे मुख्य न्यायाधीश के लिए दरकिनार कर अजीत नाथ रे को चीफ जस्टिस बनाया गया, परंतु 1977 में हद तो तब हो गई, जब सारे समीकरण इनके पक्ष में होने के बावजूद जस्टिस मिर्ज़ा हमीदुल्लाह बेग को चीफ जस्टिस के पद पर मनोनीत किया गया। विरोध स्वरूप जस्टिस खन्ना ने अपना त्यागपत्र सौंप दिया, और इस पर आज भी कई न्याय विशेषज्ञ इंदिरा गांधी को पूर्णत्या दोषी मानती है।

जस्टिस खन्ना को रिटायरमेंट के उपरांत चौधरी चरण सिंह की सरकार में विधि मंत्री भी बनाया गया, परंतु उन्हे राजनीति नहीं भाई, और उन्होंने कुछ ही समय बाद इस्तीफा दे दिए। 2008 में इस विभूति का देहावसान हुआ, और न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना की मृत्यु के बाद ऑस्ट्रेलियन लॉ जर्नल नें शोक संदेश में लिखा कि न्यायमूर्ति एचआर खन्ना भारत के महान न्यायाधीश थे और सारे राष्ट्रमंडल देशों के न्यायाधीशों के लिए सत्यनिष्ठा का एक आदर्श थे।

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