लेफ्टिनेंट कर्नल हरीपाल कौशिक की वो कहानी जो आपके रोंगटे खड़े कर देगी

युद्ध भूमि से लेकर खेल के मैदान तक- भारत के 'नायक' की कहानी।

हरीपाल कौशिक

Source: SportsKeeda

लेफ्टिनेंट कर्नल हरीपाल कौशिक की कहानी: भारत और पाकिस्तान के बीच में आधिकारिक रूप से चार युद्ध लड़े गए: 1948, 1965, 1971 एवं 1999। परंतु अनाधिकारिक रूप से, कई मोर्चों पर दोनों ही देश आपस में भिड़ते रहे हैं, जिसमें 2016 एवं 2019 की झड़प कोई नहीं भूल सकता।

परंतु एक ऐसा ही मोर्चा था, जहां पर पाकिस्तान और भारत एक नहीं, अनेक बार भिड़े, 1964 में ये भिड़ंत टोक्यो के कोमाज़ावा मैदान पर हुई थी, जहां हाथों में बंदूक नहीं, हॉकी स्टिक थे, और लक्ष्य था ओलंपिक गोल्ड मेडल। यह एक प्रतियोगिता नहीं बल्कि युद्धभूमि अधिक प्रतीत हो रही थी, इस युद्ध में भारत विजयी हुआ और अपना 7वां ओलंपिक स्वर्ण पदक जीता।

लेफ्टिनेंट कर्नल हरीपाल कौशिक की कहानी

इस टीम की टोक्यो यात्रा से लेकर इस टीम के हर सदस्य की अपनी एक अनोखी कहानी थी, जिसे अगर परदे या कागज़ पर उतारो तो जाने कितनी वाहवाही बटोरे। ऐसे ही एक नायक थे लेफ्टिनेंट कर्नल हरीपाल कौशिक।

इस लेख में आप पढ़ेंगे लेफ्टिनेंट कर्नल हरीपाल कौशिक के बारे में जो न केवल एक उत्कृष्ट हॉकी खिलाड़ी थे, अपितु उतने ही दृढ़निश्चयी योद्धा भी थे।

हरीपाल कौशिक का जन्म जालंधर के निकट खुसरोपुर गाँव में 2 फरवरी 1934 को हुआ था। वो हॉकी के प्रति बचपन से ही आकर्षित थे और कुछ भी करके इससे जुड़ना चाहते थे।

उनकी मेहनत सफल हुई और उन्होंने 1956 में मेलबर्न ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया। वो लगातार 6 ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम का भाग भी बने।

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हरीपाल कौशिक बने सेना का भाग

इसके बाद हरीपाल कौशिक 1959 में भारतीय सेना का भाग बने और उन्हे सिख रेजिमेंट में पोस्ट किया गया। 1960 के रोम ओलंपिक का भी वे हिस्सा बने पर उन्हे अधिकतम समय बेंच पर ही बिठाए रखा।

इस ओलंपिक में लगभग अजेय रहे भारत को फाइनल में ज़ोर का झटका, जब नसीर अहमद ने एक अवसर का लाभ उठाया और गेंद भारतीय गोलपोस्ट में फ्लिक की, जिसे गोलकीपर शंकर लक्ष्मण चाहकर भी नहीं रोक पाए, और 6 बार की चैंपियन को इस बार रजत पदक से ही संतोष करना पड़ा।

इसी बीच 1962 में भारत पर संकट आ पड़ा, जब चीन ने पूर्वोत्तर भारत के अनेकों पोस्ट्स पर आक्रमण कर दिया। भारत और चीन के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया और इसी बीच हरीपाल कौशिक भी युद्धभूमि पहुँच गए।

मूल तौर पर खिलाड़ियों का युद्ध में भाग लेना अवश्यंभावी नहीं था पर हरीपाल ने ठान लिया और वे मोर्चे पर पहुंचकर ही माने। 23 अक्टूबर 1962 को जब चीन ने अरुणाचल में टोंगपेन ला के मोर्चे पर हमला किया, उस वक्त वहाँ 1 सिख रेजिमेंट की एक बटालियन भी तैनात थी, जिसमें हरीपाल भी सम्मिलित थे।

पर्याप्त शस्त्र तो छोड़िए, सैकड़ों की तादाद में आक्रमण कर रहे चीनी सैनिकों से भिड़ने वाले भारतीय जवानों के पास ठंड से बचने हेतु पर्याप्त कपड़े भी नहीं थे। परंतु इन सब कठिनाइयों को ताक पर रखते हुए 1 सिख रेजिमेंट के जवानों ने डटकर शत्रुओं का सामना किया और उन्हे बढ़त नहीं बनाने दी।

 

हरीपाल कौशिक वीर चक्र से सम्मानित

जहां हरीपाल ने आवश्यक शस्त्रों एवं आयुध को चीनियों की पहुँच से दूर रखा एवं अपनी तोपों की भी रक्षा की तो वहीं फॉरवर्ड प्लाटून के कमांडर, सूबेदार जोगिंदर सिंह साहनन ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए करीब 20 जवानों के साथ सैकड़ों चीनी सैनिकों पर टूट पड़े, और तब तक लड़े, जब तक वे मरणासन्न नहीं हो गए और वीरगति को प्राप्त हुए।

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इस अदम्य साहस के लिए जोगिंदर सिंह को मरणोपरांत जहां देश के सर्वोच्च वीरता सम्मान परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया, तो वहीं तत्कालीन लेफ्टिनेंट हरीपाल कौशिक को देश के तीसरे सर्वोच्च युद्धकालीन सम्मान वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

परंतु हरीपाल इससे अधिक प्रसन्न नहीं थे, क्योंकि उनके कई मातहत इस युद्ध में मारे गए थे। उन्हे एक अवसर चाहिए था, अपने आप को सिद्ध करने का और यह अवसर मिला 1964 में टोक्यो ओलंपिक के रूप में। केवल एक ओलंपिक जीतने से पाकिस्तान का भाव सातवें आसमान पर चढ़ गया। दूसरी तरफ जब भारत ने कुछ अभ्यास मैच हारे, तो मीडिया ने यह प्रचारित करना प्रारंभ किया कि ओलंपिक में पदक की आशा छोड़ ही दीजिए।

परंतु भारतीय टीम ने इस नकारात्मक अभियान को अपने पक्ष में लेते हुए अपने खेल से इन्हे मुंहतोड़ जवाब देने की ठान ली। जर्मनी और स्पेन से ड्रॉ कराने के बाद टीम इंडिया ने हर टीम पर ताबड़तोड़ धावा बोला और अपने बाकी सभी मैच जीतकर सेमीफाइनल में प्रवेश किया।

ऑस्ट्रेलिया से एक गोल से पिछड़ने के बाद भी भारतीय टीम ने पराजय नहीं मानी और विपक्षी टीम के डिफेंस पर ताबड़तोड़ धावा बोलते हुए भारत ने 3-1 से मैच जीतकर फाइनल में प्रवेश किया। इस पूरे समय हरीपाल ने रक्षण एवं टीम की एकता में कप्तान चरणजीत सिंह का भरपूर साथ दिया।

पाकिस्तान को सिखाया सबक

अब फाइनल में पुनः भारत और पाकिस्तान आमने-सामने थे। ये एक प्रतियोगिता कम और युद्धभूमि अधिक प्रतीत हो रही थी और कई बार ऐसे अवसर भी आए जब लगा कि खिलाड़ी अभी हॉकी स्टिक त्यागकर हाथापाई पे उतर आएंगे।

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परंतु सेकेंड हाफ में हरीपाल का दांव रोकने में पाकिस्तानी कप्तान मुनीर डार ने गलती कर दी और भारत को शॉर्ट कॉर्नर जिसे अब पेनाल्टी कॉर्नर कहा जाता है, मिला। जिसे मोहिन्दर लाल ने गोल में परिवर्तित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह मैच का एकमात्र गोल था और फाइनल सीटी बजने पर भारत के दर्शक खुशी से झूम पड़े। यह भारत का सातवाँ ओलंपिक गोल्ड मेडल था।

हरीपाल ने भारत को एशियाई खेल 1966 में उसका प्रथम स्वर्ण पदक दिलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जहां टोक्यो ओलंपिक के एक अन्य नायक, और गोलकीपर शंकर लक्ष्मण टीम के कप्तान थे।

परंतु दोनों ही खिलाड़ियों को मेक्सिको ओलंपिक 1968 के लिए नहीं चुना गया और दोनों ही खिलाड़ियों को एक एक करके सन्यास लेने को विवश होना पड़ा। आज यदि के एल राहुल जैसे क्रिकेटर सांस ले ले, तो वो भी खबर बन जाती थी, परंतु इतनी अभूतपूर्व विजय एवं उसके नायकों को अब भी उनका उचित सम्मान नहीं मिला।

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