बीर टिकेन्द्रजीत : जिसने मणिपुर और भारत के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया

: मणिपुर के सिंह, और भारत के एक अज्ञात नायक....

भारत का इतिहास एक सागर समान हैं, जितना ही गहरा जाओ, कुछ न कुछ नया ही जानने को मिलता है। हमें पूर्व में ये बताया जाता था  कि गांधी और नेहरू के कारण ही देश स्वतंत्र हुआ था, और हमारे देश को उसका वर्तमान स्वरूप देने में मुगलों की बड़ी महत्वपूर्ण रही है।

कुछ तो यह भी बोलते हैं कि ब्रिटिश से पूर्व भारत देश का अस्तित्व था ही नहीं, परंतु शायद या तो उन्हे इतिहास का ज्ञान नहीं, या फिर वे भारतीयों को उनके विशाल, और लगभग असीमित इतिहास की भव्यता, एवं उसके नायकों से अपरिचित ही रखना चाहते हैं।

इस लेख में पढिये कैसे बीर टिकेन्द्रजीत ने अंग्रेजों को दिन में तारे दिखा दिए।

मणिपुर का गौरवशाली इतिहास

भारत के पूर्वोत्तर को भारत से अलग रखने में कांग्रेस समर्थित सेक्युलर बुद्धिजीवी, कम्युनिस्टों एवं मिशनरियों का विशेष योगदान रहा है। पूर्वोत्तर की बात करना इनके लिए औपचारिकता मात्र थी। परंतु पूर्वोत्तर की संस्कृति इस बात का सूचक है कि भारत कितना विशाल और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध रहा है, और मणिपुर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

इसी भूमि पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने स्वतंत्र भारत का अभियान बुलंद किया था, और इसी भूमि से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को पुनर्जीवित करने का बीड़ा वर्षों पूर्व एक मणिपुरी राजकुमार, टिकेन्द्रजीत सिंह ने उठाया।

1858 में ब्रिटिश प्रशासन ने भले ही भारतवर्ष पर नियंत्रण स्थापित किया, और 1877 में भले ही क्वीन विक्टोरिया भारत की महारानी बनी, परंतु कई प्रांत ऐसे भी थे, जिनपर अंग्रेजों का कोई नियंत्रण नहीं था। इन्ही में से एक था मणिपुर, जहां पर महाराज चंद्रप्रकाश सिंह का शासन था।

इन्ही के चौथे संतान थे टिकेन्द्रजीत सिंह, जिनका जन्म 29 दिसंबर, 1856 को हुआ था। उन्हें “कोइरेंग” भी कहते थे क्योंकि वे बचपन से ही लोकप्रिय तथा स्वतंत्रता प्रेमी थे। धैर्यवान होने के साथ-साथ वे कुशाग्र बुद्धि वाले थे। बाद में वे मणिपुरी सेना के कमाण्डर नियुक्त हुए थे। यूं समझ लीजिए कि वे मणिपुर के “बाहुबली” थे।

इनके पूर्वज, राजकुमार गंभीर सिंह के नेतृत्व में प्रथम आंग्ल-बर्मी युद्ध (1824-1826) में मणिपुर ने बर्मा पर विजय प्राप्त की। परिणामस्वरूप, मणिपुर तबाही से उबर गया और गंभीर सिंह को मणिपुर का राजा बनाया गया। परन्तु उस समय राज्य की सभी महत्वपूर्ण शक्तियाँ अंग्रेजों के हाथ में थीं। राजा ब्रिटिश हस्तक्षेप का विरोध नहीं कर सकता था।

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टिकेन्द्रजीत ने फूंका विद्रोह का बिगुल

अब 1877 में जब ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को “Empress of India”, तो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपना विस्तारवाद प्रारंभ किया। उस समय मणिपुर में राजा चंद्रकान्त सिंह के उत्तराधिकारी महाराजा सूरचंद्र सिंह के शासनकाल में अंग्रेजों का हस्तक्षेप बहुत अधिक बढ़ गया था।

राजपरिवार का सदस्य होने के नाते टिकेंद्रजीत अंग्रेजों के कूट स्वभाव से परिचित थे, इसीलिए वे मणिपुर के वासियों को उनके वास्तविक दृष्टिकोण और अंतरतम दुर्भावनाओं के बारे में सचेत करते रहते थे।

इसी बीच अंग्रेज सूदखोरी से अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे। वे मोटी ब्याज पर राजा और राजपरिवार को कर्ज देकर धीरे-धीरे उनके राज्य के हिस्सों को हड़पते चले जाते थे। यही नीति उन्होंने मणिपुर के राजपरिवार के प्रति भी अपनाई, परंतु बीर टिकेन्द्रजीत को जब इसका आभास हुआ, तो उन्होंने अपने राज्य की संप्रभुता तथा स्वतंत्रता की रक्षा हेतु एक योजना बनाई।

22 सितंबर, 1890 को टिकेंद्रजीत ने दो अन्य राजकुमारों एंगुसन और जिलंगंबा के साथ सूरचंद्र सिंह के खिलाफ विद्रोह किया और राजा सुरचंद्र को सिंहासन से हटा दिया। सुरचंद्र सिंह ने ब्रिटिश निवास में शरण ले ली। तब कुलाचंद्र ने राज्यभार संभाला और टिकेंद्रजीत उसके उत्तराधिकारी बने। इस घटना को मणिपुर के इतिहास में ‘राजमहल विद्रोह’ के रूप में जाना जाता है। बाद में, पूर्व शासक सूरचंद्र सिंह ने टिकेंद्रजीत को सूचित किया कि वे धार्मिक-यात्रा पर वृंदावन जा रहे हैं।

परंतु वे असल में कलकत्ता के लिए निकल पड़े, जहां पहुँचने के बाद उन्होंने मणिपुर राज्य का अपना सिंहासन पुनः पाने के लिए ब्रिटिश सरकार को एक याचिका भेजी। अंग्रेजों को ये एक स्वर्णिम अवसर प्रतीत हुआ मणिपुर को अपने नियंत्रण में लाने का, जिसे वे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते थे, और इसी याचिका ने ब्रिटिशों को मणिपुर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का मौका प्रदान किया।

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अंग्रेज जानते थे कि टिकेंद्रजीत जैसा राष्ट्रवादी उनकी औपनिवेशिक योजनाओं में बहुत बड़ी अड़चन है। उसकी अनुपस्थिति में ही मणिपुर को ब्रिटिश उपनिवेश में रूपांतरित किया जा सकता है।

अतः 22 मार्च, 1891 को मुख्य आयुक्त जेडब्ल्यू क्विंटन सैनिकों की टुकड़ी के साथ मणिपुर पहुँचा। टिकेंद्रजीत को गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेजों द्वारा एक गोपनीय योजना बनाई गई थी। लेकिन उनकी यह गुप्त योजना उजागर हो जाने के कारण विफल हो गई।

राजनीतिक एजेंट ग्रिमवुड ने तब राजा कुलाचन्द्र को टिकेंद्रजीत को अंग्रेजों को सौंपने के लिए कहा। राजा कुलाचंद्र ने इसके लिए साफ इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने टिकेंद्रजीत को गिरफ्तार करने के लिए बल प्रयोग किया।

वर्षों बाद उनकी विरासत को मिला न्याय

24 मार्च, 1891 की शाम को ब्रिटिश सैनिकों ने पैलेस कंपाउंड, विशेष रूप से टिकेंद्रजीत के निवास पर हमला किया। इस हमले में सांस्कृतिक कार्यक्रम देख रहे महिलाओं और बच्चों सहित अनेक निर्दोष नागरिक मारे गए। हालाँकि, मणिपुरी सेना अपने आक्रामक प्रतिरोध में सफल रही और अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा।

पाँच अंग्रेज अधिकारियों- क्विंटन, ग्रिमवुड, लेफ्टिनेंट कर्नल सिम्पसन, कोसिन और बुलेर को भागकर तहखाने में शरण लेनी पड़ी। जिन मणिपुरवासियों के निर्दोष बच्चे, पत्नियों और रिश्तेदारों को अंग्रेजों द्वारा मार दिया गया था, उनके मन में बदले की भावना इतनी प्रबल हो गई कि उन्होंने इन पाँचों अंग्रेजों को मार डाला।

इसके परिणामस्वरूप 1891 में आंग्ल-मणिपुरी युद्ध हुआ। मणिपुरी लोग बड़ी वीरता से लड़े किन्तु इस भयानक युद्ध में अंग्रेजों ने मणिपुर को तहस-नहस कर दिया। 27 अप्रैल, 1891 को कंगला पैलेस को अंग्रेजों ने अपने कब्जे में ले लिया और मेजर मैक्सवेल मुख्य राजनीतिक एजेंट बन गया।

ब्रिटिश भारत सरकार ने जाँच-पड़ताल और सजा-निर्धारण के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन मिशेल के अधीन एक विशेष आयोग का गठन किया। इस जाँच में टिकेंद्रजीत को दोषी ठहराया गया और अंग्रेजी अदालत ने मृत्युदंड का आदेश दिया।

मणिपुरवासियों ने अपने प्रिय राजकुमार की प्राण-रक्षा के लिए उनकी फाँसी का पुरजोर विरोध किया। इतना ही नहीं, मणिपुर राज्य की महिलाओं ने भी उनके बचाव में एक आंदोलन शुरू किया था, परन्तु उनका यह आन्दोलन मणिपुर के भविष्य बीर टिकेन्द्रजित को नहीं बचा सका।

अंग्रेजों ने बीर टिकेंद्रजीत को 13 अगस्त, 1891 को आम जनता के सामने एक खुली जगह पर फाँसी लगाई ताकि लोगों में डर पैदा किया जा सके।

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बीर टिकेन्द्रजीत ने अदम्य साहस और निर्भीकता के साथ अंग्रेजी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध युद्ध किया। इसी कारण उन्हें ‘मणिपुर का शेर’ कहा जाता है। यहाँ तक कि ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सरकार ने उनकी वीरता, निडरता तथा पराक्रम की तुलना एक ‘खतरनाक बाघ’ से की थी।

भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में उनका अद्वितीय स्थान है। परंतु स्वतंत्र भारत में वर्षों तक उनके योगदानों को कोई विशेष स्थान नहीं मिला। परंतु वो कहते हैं, सत्य छुपाये नहीं छुपता। अंतत: इस युद्ध में शहीद होने वाले राज्य के वीर नायकों को श्रद्धांजलि देने के लिए मणिपुर राज्य प्रत्येक वर्ष 13 अगस्त के दिन “देशभक्त दिवस” मनाया जाता है।

उनके कर्मों के लिए मणिपुर विधानसभा ने अगस्त 2019 में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर तुलीहल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम बदलकर ‘बीर टिकेंद्रजीत अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा’ कर दिया है।

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