पाकिस्तान अक्सर हमें कश्मीर के विषय पर भड़काने का प्रयास करता है, और इसी के आधार पर दशकों तक उसका घर भी चला है। परंतु पाकिस्तान में एक ऐसा भी क्षेत्र है, जहां वो अपना नियंत्रण तो स्थापित करना चाहता है, परंतु परिणाम निल बट्टे सन्नाटा रहता है : बलूचिस्तान। परंतु अगर हम आपसे कहें कि बलूचिस्तान कभी भारत के साथ मिलना चाहता था, तो?
इस लेख में पढिये कि कैसे नेहरू ने बलूचिस्तान को भारत का अभिन अंग बनाने से साफ मना कर दिया था ।
साम्राज्यवाद का दूसरा नाम पाकिस्तान
कुछ भी कहिए, परंतु अंगरेजों में एक चीज़ तो अवश्य सफल रहे : समाज का बंटवारा, और उनके इसी विकृत सोच का परिणाम था पाकिस्तान। जब जून 1947 में ये सुनिश्चित हो गया कि भारत का बंटवारा होगा, तो इसका भार एक नौसिखिये अधिवक्ता, सिरिल रैडक्लिफ को दिया गया, जिसे भारत के भूगोल का लेशमात्र भी ज्ञान न था। परंतु इनके बारे में फिर कभी।
परंतु पाकिस्तान कितना साम्राज्यवादी है, इसके लक्षण तो स्वतंत्रता पश्चात पूर्वी पाकिस्तान के साथ हो रहे बर्ताव से ही पता चल गया था। पाकिस्तान की वास्तविक सोच की उत्पत्ति पंजाब के पाकिस्तानी क्षेत्र में हुई थी, और उसी के अनुसार आज भी पाकिस्तान की राष्ट्रीय नीति निर्धारित होती है।
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कैसे हुआ विश्वासघात
तो इसका बलूचिस्तान से क्या नाता? असल में जब भारतीय उपमहाद्वीप स्वतंत्र हो रहा था, तो अन्य राज्यों की भांति सिंध और बलूचिस्तान के पास भी विकल्प था कि वे भारत में रहें, या पाकिस्तान को जॉइन करे। परंतु दोनों ही प्रांतों पर बलपूर्वक पाकिस्तान ने नियंत्रण स्थापित कर लिया। इसका उल्लेख ‘The Balochistan Conundrum’ किताब में बखूबी किया गया है। इस किताब को कैबिनेट सचिवालय में विशेष सचिव रहे तिलक देवेशर ने लिखा है।
1948 से ही ज्यादातर बलूचों के मन में यह बात घरकर गई थी कि उन्हें जबरन पाकिस्तान के साथ मिलाया गया है। लेकिन उस वक्त हुए विरोध के सामने तत्कालीन पाकिस्तान की सरकार झुक गई थी। अंग्रेजों की विदाई के साथ ही बलूचों ने अपनी आजादी की घोषणा कर दी थी। पाकिस्तान ने भी उनकी ये बात मान ली थी लेकिन वो बाद में इससे मुकर गए।
उस वक्त बलूचों के सबसे बड़े नेता खुदादाद खान हुआ करते थे। वे कलात के खां के नाम से मशहूर थे। कलात उस वक्त का बलूचिस्तान था और इसके राजकुमार थे खुदादाद। अंग्रेजी हुकूमत के समय में भी उनके राज्य पर अंग्रेजो का अधिकार नहीं था। 1876 में उनके साथ जो संधि अंग्रेजों ने की थी उसके मुताबिक बलूचिस्तान एकआजाद देश था।
उनकी आजाद देश की पहचान को 1946 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नकार दिया था। खान पहले से ही पाकिस्तान की आंखों में चढ़े हुए थे। बलूचों के विरोध की वजह से वह और निशाने पर आ गए और 1948 में खान को पाकिस्तान की सेना ने गिरफ्तार कर लिया और उनसे जबरन बलूचिस्तान के पाकिस्तान में विलय के समझौते पर साइन करवा लिए।
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नेहरू ने पुनः गंवाया एक सुनहरा अवसर
1947 में स्वयं कांग्रेस के नेता इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे कि बलूचिस्तान एक आजाद देश है। कांग्रेस के कई नेता ये भी मानते थे कि भारत की आजादी के बाद बलूचिस्तान शायद ही आजाद राष्ट्र बनकर रह सके। मार्च 1948 में ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित समाचार में प्रेस कांफ्रेंस का जिक्र करते हुए बताया गया कि खुदादाद खान इस बात को लेकर तैयार थे कि बलूचिस्तान का भारत में विलय कर दिया जाए।
परंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसको नकार दिया। वे कश्मीर के विषय को यूएन तक घसीटने पे उद्यत जो ठहरे। भारत सरकार के इस रवैये से खान को गहरा धक्का लगा और आखिर में उन्होंने पाकिस्तान के साथ संधि करने के लिए बातचीत की पेशकश कर दी। हालांकि बाद में पंडित नेहरू ने इस प्रेस कांफ्रेस में कही गई सभी बातों से पल्ला झाड़ लिया। उन्होंने इस पूरी खबर को ही मनगढ़ंत और झूठी बताया था।
अब बलूचिस्तान का 760 किलोमीटर लंबा समुद्र तट पाकिस्तान के कुल समुद्री तट का दो तिहाई है। बलूचिस्तान के ही तट पर ही पाकिस्तान के तीन नौसैनिक ठिकाने ओरमारा, पसनी और ग्वादर हैं। ग्वादर का अपना रणनीतिक महत्व बेहद खास है, और इसीलिए इसे पाकिस्तान चीन को सौंपना चाहता है, जैसे 1963 में POK का कुछ हिस्सा चीन को सौंपा गया था। इसके महत्व को जानते हुए ही चीन ने आर्थिक गलियारे पर 60 अरब डॉलर खर्च करने की योजना को जमीनी हकीकत प्रदान की थी।
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इस इलाके में तांबा, सोना और यूरेनियम बहुतायत मात्रा में है। इसके अलावा इसके करीब चगाई में ही पाकिस्तान का न्यूक्लियर टेस्ट सेंटर भी है। इसी इलाके में कभी अमेरिका के भी सैनिक ठिकाने हुआ करते थे। यहीं सुई में प्राकृतिक गैस का अपार भंडार है जिसकी सप्लाई पाकिस्तान के कई इलाकों में होती है, लेकिन इसका फायदा बलूचों को ही नहीं मिला है।
अब कल्पना कीजिए, यदि जवाहरलाल नेहरू ने “अंतरराष्ट्रीय छवि” को एक साइड रखकर बलूचिस्तान को भारत में शामिल कराया होता, तो क्या होता? रणनीतिक रूप से हम कितने सशक्त होते? इसके साथ ही साथ हिंगलाज माता के दर्शन हेतु पासपोर्ट भी न लगता, पर नेहरू और उसकी नीति….
Sources :
The Balochistan Conundrum
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