आरएसएस अब कनाडा में : मोहन भागवत के लिए समय है आत्मवलोकन का

अब भी समय है, ऊटपटाँग बयानों से बचे भागवत

कनाडा आरएसएस

“नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे,
त्वया हिन्दूभूमे सुख: वर्धितोहम।
महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे,
पतत्वेश कायो नमस्ते नमस्ते:”

शीघ्र ही आरएसएस गीत भारतवर्ष में ही नहीं, कनाडा की धरती पर भी गूँजेगा। चौंक गए क्या? ये तो अभी प्रारंभ है।

इस लेख में आपको अवगत  कि कैसे आरएसएस की लोकप्रियता अब कनाडा में भी जड़ें जमा रही है, और कैसे अब समय आ चुका है कि सरसंघचालक मोहन भागवत इस बदलाव को गंभीरता से लें।

हाल ही में एक संयुक्त रिपोर्ट कनाडा प्रशासन को सौंपी गई, जिसके रचयिताओं में कैनेडियन काउन्सिल ऑफ मुस्लिम्स एवं वर्ल्ड सिख ऑर्गनाईज़ेशन प्रमुख तौर पर शामिल थे। इस रिपोर्ट के अनुसार “हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन” आरएसएस अब कनाडा में भी अब अपना प्रभाव बढ़ा रहा है, और ये कनाडा के लिए “चिंता का विषय है”।
परंतु बात यहीं तक सीमित नहीं है। CCM के प्रवक्ता स्टीफेन ज़्हू [Stephen Zhou] के अनुसार कैनेडियन अफसरों को कनाडा में रहने वाले भारतवंशियों एवं उनपर इस संगठन के प्रभाव को ध्यान से देखना होगा, जो विश्व के सबसे NGOs में से एक है, और जिसका दृष्टिकोण “अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे के नागरिकों की भांति ट्रीट करने” का है।

इस रिपोर्ट में स्टीफेन ज़्हू जैसे व्यक्ति का मुस्लिम अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करना ही हास्यास्पद नहीं है, अपितु उससे भी हास्यास्पद है वर्ल्ड सिख ऑर्गनाईज़ेशन का भय, जिनके अनुसार आरएसएस उनकी आइडेन्टिटी को “समाप्त करना चाहते हैं”। विश्वास मानिए, ये सब कुछ इस संयुक्त रिपोर्ट में लिखकर कनाडा के प्रशासन को सौंपा गया है।
परंतु इससे आरएसएस को क्या, और यह मोहन भागवत के लिए आत्मवलोकन का समय कैसे है। रिपोर्ट में जी 20 का भी उल्लेख था, जिसका स्पष्ट अर्थ है कि ये बातें यूं ही नहीं की गई थी। असल में भारत का कूटनीतिक एवं सांस्कृतिक कद दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है, और धीरे धीरे आरएसएस का प्रभाव भी अब भारत से बाहर निकलकर दुनिया के कोने कोने में छा रहा है।

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जितनी शक्ति बढ़ेगी, उतना ही दायित्व भी बढ़ेगा

परंतु वो कहते हैं न, “With Great Power, Comes Great Responsibility”, यानि जितनी शक्ति बढ़ेगी, उतना ही दायित्व भी बढ़ेगा। यह बात मोहन भागवत से बेहतर कोई नहीं समझ सकता, जो आरएसएस के सरसंघचालक यानि प्रमुख हैं, और इन दिनों कई विवादों से घिरे भी हुए हैं।

वो कैसे? अभी हाल ही में एक समारोह में व्याख्यान देते हुए मोहन भागवत ने हमारे धार्मिक ग्रंथों के साथ हुई “छेड़छाड़” पर अपना मत देते हुए बताया कि हमारी संस्कृति वो है, जो धर्म और विज्ञान को साथ लेकर चलती है। उनके अनुसार, “प्रारंभ में ग्रंथों का कोई लिखित स्वरूप नहीं था, उसे मौखिक रूप में रचा और वितरित किया जाता था। परंतु कुछ समय बाद वह ग्रंथ इधर उधर हो गए, और इसका लाभ उठाते हुए कुछ स्वार्थी लोगों ने उन ग्रंथों में वो चीजें घुसेड़ी, जिसका मूल रचना से कोई सरोकार नहीं। ऐसे में इन ग्रंथों की समीक्षा करना आवश्यक है”।

अब इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अनेक अर्थ निकाले जा सकते हैं, परंतु इतना तो स्पष्ट है कि मोहन भागवत संघ की मूल भावना, यानि सनातन संस्कृति को विद्यमान रखने को आतुर हैं। परंतु इसकी आवश्यकता क्यों आन पड़ी? विगत कुछ माह में मोहन भागवत ने कुछ ऐसी बातें बोली हैं, जिसका अर्थ जो भी रहा हो, परंतु संदेश तो यही जा रहा है कि आरएसएस अपने मूल आदर्शों से विमुख हो चुकी है।

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आरएसएस को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं मोहन भागवत?

वो कैसे? उदाहरण के लिए एक समय इन्होंने किसी संगोष्ठी में जातिवाद पर अपने विचार रखते हुए कहा कि हमारे संस्कृति में जातिवाद के लिए कोई स्थान नहीं था, जातिवाद कुछ पंडितों ने बनाई थी। अब इस बात पर बवाल मच गया, और शीघ्र ही मोहन भागवत एवं आरएसएस को “ब्राह्मण विरोधी” बताया जाने लगा था। अब कुछ समय बाद सामने आया कि यहाँ अनुवादन में एजेंडा परोसने का प्रयास किया गया, क्योंकि मोहन भागवत ने मूल भाषण मराठी में दिया था। परंतु अगर बयान का थोड़ा विश्लेषण करे, तो आपको यही लगेगा कि जब जाति व्यवस्था थी ही नहीं, जैसा कि मोहन भागवत बताते हैं, तो “पंडित पुजारी” आसमान से आए थे वैमनस्यता फैलाने?

अब चलिए, ये मान लेते हैं कि यहाँ अनुवाद का विवाद था, परंतु समलैंगिकता के विषय पर जो मोहन भागवत ने बोला, उसपे क्या कहेंगे आप? अपने आप को समावेशी यानि इन्क्लूसिव दिखाने की होड़ में मोहन भागवत ने महाभारत को समलैंगिकता से जोड़ दिया, जिसे देख सबसे प्रथम प्रश्न आपके मन में यही कौंधेगा, “कोई सेंस है इस बात की”?

इसके अतिरिक्त भी मोहन भागवत ने अनेक ऐसी बातें बोली, अथवा ऐसे निर्णयों को अप्रत्यक्ष तौर पर बढ़ावा दिया, जिससे लोग इस संदेह में पड़ गए कि क्या आरएसएस वास्तव में सनातन संस्कृति के हित में काम करती है या नहीं। उदाहरण के लिए कुछ दिनों पूर्व इस बात पर व्याख्यान होने लगा कि जो लोग सनातन धर्म को छोड़ चुके हैं, उन्हे जाति के आधार पर आरक्षण मिलना चाहिए कि नहीं? भई, आरएसएस तो वो संस्था है, जो आरक्षण तो छोड़िए, जातिवाद की मूल भावनाओं का खुला विरोध करते हुए सनातन संस्कृति को हृदय से अपनाने पर ज़ोर देती है। तो आखिर ये विरोधाभास क्यों और किसलिए?

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ऐसे में मोहन भागवत ने अपने वर्तमान व्याख्यान से ये स्पष्ट करना चाहा कि वे सनातन संस्कृति के मूल आदर्शों से विमुख नहीं हुए हैं, और न ही आरएसएस को उस दिशा में ले जाना चाहते हैं। परंतु अगर वे वास्तव में इस दिशा में काम करना चाहते हैं, और अगर वे चाहते हैं कि आरएसएस का वैश्विक स्तर पर जो प्रभुत्व बढ़ रहा है, उसमें किसी प्रकार की कोई बाधा न आए, तो उन्हे अपने बयानों को भी तोल मोल के पेश करना होगा, ताकि आरएसएस की छवि पर अनावश्यक लांछन न लगने पाए।

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