Death of Bhindranwale: जरनैल सिंह भिंडरावाले। एक ऐसा नाम, जिसके बारे में कम ही लोग पंजाब में खुलकर चर्चा करने को इच्छुक है। एक ऐसा नाम, जिसने कुछ समय के लिए देश की नाक में दम करके रख दिया था। हम सभी जानते हैं कि कैसे इंदिरा गांधी की सरकार के नेतृत्व में जरनैल सिंह भिंडरावाले जैसे निर्दयी पशु को उसके दुष्परिणाम (Death of Bhindranwale) भुगतने पड़े। परंतु 1984 में उसकी मृत्यु से उसकी विरासत खत्म नहीं हुई थी। इसे समाप्त करने में कई लोगों को आगे आना पड़ा।
इस लेख में पढिये उन लोगों के बारे में, जिन्होंने उन लोगों से, जिन्होंने यह सुनिश्चित किया कि जरनैल सिंह भिंडरावाले को कोई भी सम्मान की दृष्टि से न देखे, और जिनके कारण पंजाब में कई दशकों तक पुनः शांति और समृद्धि छाई थी।
के एस बरार
आज जैसे अमृतपाल सिंह पंजाब एवं केन्द्रीय प्रशासन के लिए सरदर्द बना हुआ है, एक समय ऐसे ही जरनैल सिंह भिंडरावाले पंजाब के लिए सरदर्द बना हुआ था। 1980 के दशक के प्रारंभ तक भिंडरावाले ने हिंसा और उग्रवाद की वो आग लगाई, जिसे बुझाते बुझाते कई पीढ़ियों की कमर टूट गई थी।
ऐसे में जब ये स्पष्ट हो गया कि भिंडरावाले को केवल बातचीत के माध्यम से नहीं मनाया जा सकता, तो सैन्यबलों को बुलाया गया। इसमें के एस सुंदर्जी [जो बाद में सेनाध्यक्ष बने], लेफ्टिनेंट जनरल रंजीत सिंह दयाल, एवं मेजर जनरल कुलदीप सिंह बरार सम्मिलित थे।
के एस बरार को दो कारणों से चुना गया था : एक वे भिंडरावाले के तौर तरीकों से परिचित थे, और दूसरा, वे पूर्व सैन्य अफसर एवं भिंडरावाले के अनुचर, शाहबेग सिंह के ‘शिष्य’ भी थे। इसके अतिरिक्त, वे भिंडरावाले की भांति जट्ट सिख भी थे, और उनपर तत्कालीन सेनाध्यक्ष अरुण श्रीधर वैद्य को काफी विश्वास था।
भिंडरावाले तो मारा (Death of Bhindranwale) गया, परंतु ऑपरेशन ब्लूस्टार के कारण भारतीय सेना को काफी आलोचना झेलनी पड़ी। स्वयं के एस बरार भी खालिस्तानियों के हिटलिस्ट पर थे, और 2012 में उनपर घातक हमला भी हुआ था। परंतु उनका स्पष्ट था कि उनकी लड़ाई किसी संप्रदाय से नहीं, केवल उग्रवादियों से है।
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कंवर पाल सिंह गिल [आईपीएस]
1984 में जो हुआ, वह आज भी वाद विवाद का विषय है। परंतु कम लोग जानते हैं कि 1988 में पंजाब पुलिस एवं सैन्यबलों की संयुक्त निगरानी में एक और ऑपरेशन भी हुआ, जहां जरनैल सिंह भिंडरावाले जैसी स्थिति बनने से पूर्व ही उसे समाप्त करने में सफलता प्राप्त हुई थी। ये काम दो लोगों के नेतृत्व में पूर्ण हुआ, जिनमें से एक थे कंवर पाल सिंह गिल।
अपने कड़क स्वभाव, बिना परिणाम की सोचे अपने निर्णय को लागू करने हेतु चर्चा का केंद्र बने केपीएस गिल 1984 में अपने गृह राज्य पंजाब आए थे। उस समय पंजाब खालिस्तानी उग्रवाद की गिरफ्त में था, और ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद स्थिति बद से बदतर हो रही थी।
ऐसे में सर्वप्रथम केपीएस गिल ने कमान संभालते हुए पंजाब पुलिस के टूटे हुए मनोबल को संभाला, और उन्हे मिलिट्री शैली की ट्रेनिंग दिलवाई। इसके पश्चात केन्द्रीय एजेंसियों के साथ इन्होंने कदम से कदम मिलाते हुए एक ऐसा ब्लूप्रिंट तैयार किया, जिससे खालिस्तानी संगठनों हेतु समर्थन भी समाप्त हो, और साथ ही साथ उन्हे खत्म करने में भी सरलता हो।
अजीत डोवाल
केपीएस गिल का यह ‘पंजाब मॉडल’ काफी सफल रहा, और ऑपरेशन ब्लैक थंडर के अंतर्गत कई उग्रवादियों ने आत्मसमर्पण भी किया। इसके अतिरिक्त इनके नेतृत्व में पंजाब पुलिस ने जरनैल सिंह भिंडरावाले के समर्थकों को किस तरह से 1990 के दशक में मार मारकर (Death of Bhindranwale) या तो परलोक पहुंचाया, इसके बारे में विशेष शोध की आवश्यकता नहीं।
परंतु वे अकेले नहीं थे, क्योंकि कुछ मोर्चों पर बल से ही नहीं, अपितु बुद्धि से भी काम लेना था। यहाँ पर इंटेलिजेंस की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी, और इसी में प्रमुख थे आईपीएस अफसर एवं गुप्तचर के रूप में चर्चित अजीत डोवाल, जो वर्तमान भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी हैं।
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बहुत कम लोग जानते हैं कि जब ऑपरेशन ब्लूस्टार की भांति 1988 में खालिस्तानियों ने हरमंदिर साहिब यानि अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में डेरा जमाया, तो वहाँ की खबर लेने के लिए अजीत डोवाल भेस बदलकर एक जत्थेदार के रूप में गए थे। उन्होंने पूरी योजना समझी, और यही बात उन्होंने भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को भी समझाई। ऑपरेशन ब्लैक थंडर को सफल बनाने में इनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। अजीत डोवाल को बाद में उनकी सेवाओं के लिए कीर्ति चक्र से भी सम्मानित किया गया था।
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