दिवेर का युद्ध (Battle of Dewair in Hindi): जो भी कहते हैं कि मुगल सर्वशक्तिशाली थे, उन्हे कोई मात नहीं दे पाया, उन्हे केवल एक बार मेवाड़ की ओर ध्यान देना चाहिए। कहने को अकबर महान था, परंतु फिर भी आयुपर्यंत महाराणा प्रताप को कभी झुका नहीं पाया। इसके अतिरिक्त एक ऐसी भी घटना हुई, जिसने मुगलों को उनके शिखर पर भी बता दिया, कि वे शक्तिशाली हो सकते हैं, परंतु अभेद्य नहीं।
इस लेख में पढिये दिवेर का युद्ध के बारे में, जिसने ये सिद्ध कर दिया कि महाराणा प्रताप क्यों इतना माने जाते हैं, और कैसे उनके प्रभाव से भयभीत होकर 36000 से अधिक मुगलों आत्मसमर्पण करने को तैयार हो गए।
महाराणा प्रताप के नाम से काँपते मुगल
प्रताप सिंह का जीवन विपत्तियों से घिरा हुआ था। परंतु उन विपत्तियों को जिस तरह उन्होंने कुचला, उसी ने उन्हे देशभर में लोकप्रिय बनाया। राणा उदय सिंह द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र और सबसे योग्य होने के बाद भी उन्हे मेवाड़ की सत्ता के लिए उचित नहीं माना गया, और उदय सिंह ने अपनी प्रिय पत्नी, धीरबाई के पुत्र जगमाल को मृत्युशैय्या पर मेवाड़ का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । परंतु मेवाड़ के दरबारी अपने आदर्शों से विमुख नहीं हुए थे। उन्होंने विद्रोह किया और गोगुण्डा में प्रताप सिंह को मेवाड़ का नया राणा घोषित किया।
ये वो समय था जब अकबर दिल्ली और आगरा के आगे मुगल साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। उसने दोहरे मापदंडों की एक ऐसी नीति अपनाई, जो एक समय जोसेफ स्टालिन तक को आश्चर्यचकित कर दे। एक ओर वह जज़िया माफ कर अपने आप को पंथनिरपेक्ष सिद्ध करना चाहता था। दूसरी ओर वह विभिन्न राजपूत शासकों से संधि के नाम पर उनकी पुत्रियों से विवाह कर अपने राज्य को और सशक्त बनाने में जुट गया। उसके दरबारी भी ऐसे ऐसे थे, जिन्होंने उसकी चाटुकारिता में कोई कसर नहीं छोड़ी।
परंतु मेवाड़ उन चंद राज्यों में सम्मिलित था, जिनका स्वाभिमान नहीं मरा था। राणा प्रताप ने प्रारंभ से ही मुगलों के विरुद्ध आक्रामक रुख अपनाया। जब मुगलों ने उनके प्रभाव की थाह पहचानी, तो उन्होंने संधि प्रस्ताव के लिए मानसिंह को भेजा। परंतु राणा प्रताप का रुख स्पष्ट था : मृत्यु आ जाए, परंतु मेवाड़ का एक अंश भी मुगलों को नहीं मिलेगा।
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विपत्ति में काम आए भामाशाह
आखिरकार मुगल और राजपूत सेना हल्दीघाटी के रणभूमि में मिले। कहने को मुगल इस युद्ध में विजयी हुए थे, परंतु अगर ऐसा होता, तो सम्पूर्ण मेवाड़ उनका होता, जो बिल्कुल भी नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त इस युद्ध का प्राथमिक उद्देश्य था प्रताप को पराजित कर उन्हे बंदी बनाना, जिसमें वे बुरी तरह असफल रहे। इस युद्ध ने प्रताप सिंह को महाराणा प्रताप में परिवर्तित किया, क्योंकि अब उनकी कीर्ति केवल राजपूताना तक सीमित नहीं थी।
परंतु परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि महाराणा प्रताप को कुछ समय वन में शरण लेनी पड़ी। कुंभलगढ़ के दुर्ग पर मुगलों ने कब्ज़ा कर लिया था, और उनके परिवार को कोई शरण देने को तैयार नहीं था। पर घास की रोटी खाकर भी उन्होंने अपना कर्तव्यपथ नहीं छोड़ा। उनकी कीर्ति सुन पहले भील आदिवासी, और फिर भामाशाह नामक एक सेठ उनके पास आए, और उनकी सहायता से महाराणा प्रताप ने पुनः अपनी सेना गठित की। इन दोनों का योगदान ये माटी कदापि नहीं भूल सकती।
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दिवेर का युद्ध: कुंभलगढ़ और दिवेर से पड़ी विद्रोह की नींव
अपनी सेना सुगठित कर महाराणा ने सर्वप्रथम कुंभलगढ़ पुनः प्राप्त किया। इसके पश्चात 1582 में उन्होंने देवार पर धावा बोला, जिसके माध्यम से मुगल मेवाड़ के 36 चौकियों का नियंत्रण अपने हाथ में लिए थे।
परंतु महाराणा प्रताप ने भी लोई कच्ची गोलियां नहीं खेली थी। उन्होंने उसी युद्धनीति को स्मरण किया, जिसके आधार पर कभी उनके पूर्वज, महाराणा हम्मीर ने मेवाड़ का गौरव पुनर्स्थापित किया। उन्होंने देवार पर धावा बोला, और मुगल खेमे में ऐसा त्राहिमाम मचाया कि कोई भी मेवाड़ी सेना के समक्ष नहीं टिक पाया। 36000 मुगल सैनिकों ने बिना लड़े आत्मसमर्पण किया, जबकि कई मुगल महाराणा की सेना से भिड़ने के भय से ही भाग खड़े हुए।
अगले 15 वर्षों में महाराणा ने लगभग समस्त मेवाड़ को मुगल साम्राज्य के चंगुल से छुड़ा लिया था। परंतु मंडलगढ़ और चित्तौड़ को वे अपने जीते जी नहीं छुड़ा पाए। परंतु दिवेर के युद्ध (Battle of Dewair in Hindi) ने एक बात तो स्पष्ट कर दी थी, न मुगल अविजित हैं, और न ही वे कोई वीर समुदाय हैं।
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