असहयोग आंदोलन गांधी की उपज नहीं थी

एकला चलो रे यूं ही नहीं रचा गया....

कुछ समय पूर्व, सीबीआई द्वारा सम्मन भेजे जाने पर आम आदमी पार्टी का हर एक नेता क्रोध से तमतमा रहा था। कुछ अति उत्साही समर्थक तो इतना भावुक हो गए कि केजरीवाल की तुलना बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी से करने लगे। परंतु अनजाने में ही सही, उन्होंने बड़ा नेक कार्य किया है। जो व्यक्ति खुद से मक्खी भी नहीं मार सकता, वही तो दूसरों की मेहनत का श्रेय लूटेगा, जैसे असहयोग आंदोलन के विषय में गांधी ने किया।

इस लेख में पढिये उस सत्य को, जो असहयोग आंदोलन के बारे में आप सबसे छुपाया गया।

जलियाँवाला बाग की त्रासदी

13 अप्रैल 1919 ये दिन आज भी कोई भारतवासी नहीं भुला सकता। राऊलेट एक्ट के विरोध में बैसाखी के दिन जलियाँवाला बाग में एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया गया। इसमें हज़ारों की संख्या में बच्चे, स्त्री एवं वृद्धजन जुटे थे, जिनका हिंसा से दूर दूर तक कोई नाता नहीं था। लेकिन रक्तपिपासु ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को इससे क्या?

पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डवायर इस जनसभा की संभावना से ही इतना भयभीत हो गए कि उन्होंने पूरे पंजाब में मार्शल लॉ घोषित कर दिया। वह भारतीयों की आवाज कुचलना चाहते थे और उस दिन अंग्रेजों ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दी।

उस दिन जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर नाम के अंग्रेज अफसर ने बिना कोई चेतावनी दिए उस सभा में मौजूद 5 हजार से अधिक लोगों पर गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया और देखते ही देखते सभा स्थल लाशों के ढेर में बदल गया। गोलियों का निशाना बनने वालों में जवान, महिलाएँ, बूढ़े-बच्चे सभी थे। जनरल डायर की गोलियों का शिकार वो लोग भी बने, जो केवल जलियाँवाला बाग में मेला देखने आए थे।

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कांग्रेस की बेरुखी

जलियाँवाला बाग में जो हुआ, उसका शब्दों में वर्णन करना लगभग असंभव है। परंतु आपको पता है कांग्रेस उस समय क्या कर रही थी? कहा जाता है कि असहयोग आंदोलन इसी नरसंहार के उपलक्ष्य में प्रारंभ हुआ था। परंतु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत थी, और ये प्रत्यक्ष तौर पर रवींद्रनाथ टैगोर ने देखा।

उदाहरण के लिए मोतिलाल नेहरू ब्रिटिश हुकूमत की तारीफ करने में जुटे हुए थे। कॉन्ग्रेस का 34वाँ अधिवेशन अमृतसर में बुलाया गया था। पहले दिन यानी 27 दिसंबर, 1919 को मोतीलाल नेहरू अपने अध्यक्षीय भाषण में ब्रिटिश शासन की शान में कसीदे पढ़ रहे थे। उस समय ब्रिटिश शासन के उत्तराधिकारी, प्रिंस एडवर्ड अल्बर्ट (VIII) का 1921 में भारत दौरा प्रस्तावित था। अधिवेशन में मोतीलाल ने सर्वशक्तिमान भगवान से प्रार्थना करते हुए भारत की समृद्धि और संतोष के लिए एडवर्ड की बुद्धिमानी और नेतृत्व की सराहना की। मोतीलाल नेहरू ने ब्रिटिश शासन की उदारता और अपनी निष्ठा का भी जिक्र किया।

ये तो कुछ भी नहीं था। जब रवींद्रनाथ टैगोर को इस घटना की भयावहता का आभास हुआ, तो उन्होंने क्रोधित होकर अपना नाइटहुड का सम्मान वापिस कर दिया। परंतु मोहनदास गांधी क्या कर रहे थे?

18 अप्रैल 1919 को महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों के दमन के लिए अंग्रेजों के बजाय अपने देशवासियों को ही जिम्मेदार ठहराते हुए सत्याग्रह वापस ले लिया। इससे अंग्रेज और भी खुलेआम दमन और अपमान के लिए प्रेरित हुए। रवींद्रनाथ को नरसंहार की तत्काल जानकारी नहीं मिली। एक-दो दिन के भीतर महात्मा गाँधी द्वारा आंदोलन वापस लेने की खबर अखबार में छपी।

टैगोर ने तब भी गाँधी के नेतृत्व पर भरोसा जताया और शांतिनिकेतन से कोलकाता चले गए तथा वहाँ नरसंहार के खिलाफ एक विरोध सभा आयोजित करने की कोशिश की, परंतु चित्तरंजन दास समेत किसी भी नेता का उन्हें समर्थन नहीं मिला। टैगोर ने सीएफ एंड्रूज को गाँधी के पास यह अनुरोध करने के लिए भेजा। तब महात्मा गाँधी ने जवाब दिया कि वह सरकार को शर्मिंदा नहीं करना चाहते। इसके बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने खुद नाइटहुड की उपाधि त्यागने का फैसला लिया और हाथ से लिखकर एक पत्र वायसराय को भेजा। ये प्रत्यक्ष विरोध की एकमात्र ध्वनि थी, लेकिन उन्होंने देश के साथ-साथ बाहर के लोगों को भी अपने यादगार गीत ‘एकला चलो रे’ को सच साबित कर दिखाया।

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गलत नहीं थे वी विजयेन्द्र प्रसाद

एक वर्ष पूर्व प्रदर्शित “रौद्रम रणम रुधिरम” में जब असहयोग आंदोलन का चित्रण किया गया, तो आश्चर्यजनक रूप से गांधी और नेहरू का कोई उल्लेख नहीं था, और समस्त भारत के अग्रणी नेताओं में से एक, लाला लाजपत राय को इस आंदोलन का दल प्रमुख दिखाया जा रहा था।

परंतु अगर ऐतिहासिक तथ्यों को देखें, तो शायद इसमें कुछ भी गलत नहीं था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1919 की अमृतसर कॉन्ग्रेस में रवींद्रनाथ के उस त्याग का कोई जिक्र नहीं हुआ, जबकि वायसराय काउंसिल से सीएस नायर के इस्तीफे की प्रशंसा की गई। यहाँ तक कि पट्टाभि सीतारमैया ने भी द हिस्ट्री ऑफ द इंडियन कॉन्ग्रेस में रवींद्रनाथ के इस साहसिक कृत्य का कोई जिक्र नहीं किया। ऐसे में रवींद्रनाथ का त्याग अनूठा था, उनमें लोकप्रिय होने की कोई इच्छा नहीं थी, और प्रारंभ में वे राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुखर भी थे। परंतु ऐसे गंभीर संकट के क्षणों में वह आम लोगों के साथ खड़े हुए।

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लेकिन सब गांधी और उसके चमचों की भांति हाथ पे हाथ धरे नहीं बैठे थे। क्रांतिवीर भगत सिंह घटनास्थल से रक्तरंजित मिट्टी उठा कर अपने घर ले गए और देश को स्वाधीन कराने का संकल्प लिया। इस नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी ऊधम सिंह ने 21 वर्ष बाद 1940 में ब्रिटेन जाकर जनरल डायर को गोलियों से भून दिया। अब जैसे जैसे वास्तविक इतिहास सामने आ रहा है, ये भी स्पष्ट होता है कि गांधी खाली क्रेडिट के भूखे थे, भारत की स्वतंत्रता से इनका कोई लेना देना नहीं था।

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