“मेरे मित्र ने मुझसे एक बाइक ली, और कहा कि जब अपने घर पहुंचेगा, तो पैसे का भुगतान कर देगा। वो 1000 रुपये उसने आज तक नहीं दिए, पर कोई नहीं, उस बाइक के बदले उसका आधा देश ले लिया” ।
ऐसे थे हमारे सैम मानेकशॉ, जिन्होंने अपने मित्र याहया खान बाद में पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्ष] से कुछ यूं अपना हिसाब चुकता करवाया। पर इसके पीछे इनकी और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी में लगभग तनातनी की नौबत आ गई थी।
इस लेख में पढिये उस वार्तालाप को, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप का नक्शा ही बदल दिया, और जिसने सैम मानेकशॉ को एक अद्वितीय योद्धा सिद्ध किया।
भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव
भारत और पाकिस्तान में तनाव तभी से व्याप्त है, जब से ये दोनों देश स्वतंत्र हुए। अगर नेहरू ने यूएन जाकर भीख न मांगी होती, तो सम्पूर्ण कश्मीर आज हमारा होता। लेकिन 1970 में सब कुछ सदैव के लिए बदलने वाला था। सम्पूर्ण पाकिस्तान में चुनाव सम्पन्न हुए, जिसमें पूर्वी पाकिस्तान में अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान प्रचंड बहुमत से पूर्वी पाकिस्तान के अधिपति बन चुके थे, और अगर सब कुछ ठीक रहता, तो वे पाकिस्तान के प्रथम राष्ट्राध्यक्ष होते, जो पूर्वी पाकिस्तान से आए थे, क्योंकि पश्चिमी पाकिस्तान में भी उनकी पार्टी ने अच्छी खासी सीट जीत ली।
परंतु इतना बहुमत होने के बाद भी सरकार बनाना तो छोड़िए, उलटे पूर्वी पाकिस्तान में मार्शल लॉ घोषित कर दिया गया। कारण था जनरल याहया खान और उनके विश्वासपात्र, जुल्फिकार अली भुट्टो की कुंठा, जो पूर्वी पाकिस्तान को किसी भी स्थिति में आगे बढ़ते नहीं देखना चाहते थे। इसी के परिणामस्वरूप मार्च 1971 में ऑपरेशन सर्चलाइट के अंतर्गत पूर्वी पाकिस्तान में वो तांडव हुआ, जिसके बार में सोचकर आज भी वहाँ के निवासी सिहर उठते हैं।
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“मैं आपको गारंटी देता हूँ हार की!”
तो इन सब से भारत को क्या था? असल में पाकिस्तान के अत्याचारी शासन से बचने हेतु कई बांग्ला शरणार्थी, जिनमें अधिकतर हिन्दू थे, भारत के पूर्वी हिस्सों, विशेषकर बंगाल में बसने लगे थे। अब भौगोलिक और सामरिक रूप से ये आव्रजन संकट इंदिरा गांधी के प्रशासन के लिए दुष्कर प्रतीत हो रहा था।
ऐसे में लगभग एक माह बाद, 25 अप्रैल के आसपास एक विशिष्ट कैबिनेट मीटिंग बुलाई गई, जिसमें केंद्र सरकार के अधिकतम मंत्री, एवं भारत के सैन्य प्रमुख, जनरल सैम मानेकशॉ भी सम्मिलित थे। इंदिरा गांधी चाहती थी कि भारतीय सेना अविलंब एक्शन ले, परंतु सैम ने मना कर दिया।
उन्होंने ये प्रस्ताव यूं ही नहीं ठुकराया। उनका तर्क था कि न भारतीय सेना के पास पर्याप्त समय है, और न ही पर्याप्त लॉजिस्टिक्स। इसके अतिरिक्त अप्रैल का माह था, और यदि वे चीन के प्रकोप से बच भी जाते, तो भी जब तक सेना युद्ध के लिए तैयार होती, तो जून या जुलाई आ जाता, जब पूर्वी पाकिस्तान का मौसम भयानक मोड़ लेता, क्योंकि वहाँ बरसात नहीं होती, सैलाब आता, जैसा कि वह क्षेत्र चर्चित है। इसके बाद भी अगर इंदिरा चाहती हैं कि भारतीय सेना वहाँ जाए, तो वे गारंटी देते हैं कि 100 प्रतिशत भारत की हार होती।
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कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा
स्वयं सैम मानेकशॉ के शब्दों में वह क्रोध से तमतमायी हुई थी। कैबिनेट बैठक बर्खास्त हुई, परंतु सैम को एक अलग वार्तालाप के लिए रोका गया। जनरल सैम अपना त्यागपत्र सौंपने को तैयार थे, परंतु न तो ये 1960 का दशक थे, और आश्चर्यजनक रूप से जवाहरलाल नेहरू वाली गलती दोहराने के लिए इंदिरा गांधी बिल्कुल भी तैयार नहीं थी। उन्होंने सैम से स्थिति पूछी, और ये भी जानना छह कि उन्हे कितना समय चाहिए। सैम ने पूरा प्लान समझाया, और उन्हे आश्वासन दिया कि अगर भारतीय सुरक्षाबलों को पर्याप्त समय और अवसर दिया गया, तो वे खाली हाथ नहीं लौटेंगे, और 16 दिसंबर 1971 इसी परिपक्वता का साक्षी है।
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