Atiq Ahmed Case: अतीक अहमद की मृत्यु से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। क्या बुद्धिजीवी, क्या राजनीतिज्ञ, सभी अतीक पर अपने अपने विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे में फिल्म उद्योग का पीछे रहना लगभग असंभव है, और यहीं पर समस्या उत्पन्न हो जाती है।
इस लेख में पढिये कैसे भारतीय फिल्म उद्योग अपराध का महिमामंडन करता है, और कैसे यह बात हमारे समाज के साथ हमारे फिल्म उद्योग की प्रतिबद्धता को भी संदेह के घेरे में डालता है।
Atiq Ahmed Case: अतीक अहमद का भी फ़िल्मीकरण होगा?
कुछ ही दिनों पूर्व प्रयागराज में कुख्यात माफिया अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ का हत्या (Atiq Ahmed Case) हो गया। इससे कुछ ही दिन पूर्व अतीक के बेटे और उमेश पाल हत्याकांड के प्रमुख आरोपी मोहम्मद असद को भी झांसी के निकट एनकाउन्टर में ठोंक दिया गया।
कई लोग Atiq Ahmed Case के पीछे यूपी प्रशासन पर मीम्स बना रहे हैं, जिसमें कुछ तो इस सम्पूर्ण प्रकरण की तुलना क्रिस्टोफर नोलन के रोमांचकारी स्क्रिप्ट्स से कर रहे हैं। कुछ लोग तो ये कयास लगा रहे हैं कि अगला बायोपिक अतीक के कारनामों पर ही बनेगा।
परंतु हास्य परिहास से इतर जिस प्रकार से कई बार अपराधियों का महिमामंडन हुआ है, वह चिंता का विषय है। ये बात दो अलग अलग तरह से हाल ही में सत्यापित भी हुई। चाहे बीबीसी द्वारा अतीक को “रॉबिनहुड” टाइप छवि देना हो, या फिर इंडिया टुडे द्वारा आश्चर्यजनक रूप से अपराधियों का फिल्मी महिमामंडन पे उनकी चिंता हो, दोनों ने एक ही समस्या के विभिन्न रूप दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।
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यहाँ कोई दूध का धुला नहीं….
कल्पना कीजिए कि कसाब पे एक फिल्म आए, जहां उसे एक उभरता हुआ खिलाड़ी दिखाया जाए, जिसके माता पिता को एक क्रॉस बॉर्डर फायरिंग में भारतीय सेना ने निर्ममता से मार डाला, और वह उनसे प्रतिशोध लेने के लिए वह आतंकियों के गुट में सम्मिलित हो जाए।
क्या हुआ, क्रोध आ रहा है, आपको भी लग रहा है कि यह क्या नौटंकी हो रही है? परंतु यही विगत कई वर्षों से हमारे सिनेमा में चल रहा है। स्मगलर, डॉन, गुंडे, आतंकी, अपराध के हर वर्ग का महिमामंडन ऐसे किया जाता है, मानो ये न हो, तो देश ही न चले। यहाँ पर अलग ही प्रकार की एकता है, क्योंकि न केवल बॉलीवुड, अपितु तमिल से लेकर कन्नड़ फिल्म उद्योग तक अपराधियों को लार्जर दैन लाइफ किरदारों के रूप में पेश करती है। “रईस” हो, “KGF” हो या फिर “पुष्पा”, कोई दूध का धुला नहीं है।
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ऐसा कब तक चलेगा?
परंतु अगर बात केवल काल्पनिक कथाओं तक सीमित रहती तो एक बार को चलता भी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जो काम राम गोपाल वर्मा ने “सत्या” और “कंपनी” से प्रारंभ किया, उसे एक अलग ही स्तर पे ले जाते “रक्त चरित्र” से लेकर “हसीना पारकर” तक एक ऐसा नेटवर्क रचा गया, जिसमें अपराध और अपराधियों का जबरदस्त महिमामंडन हुआ। अभी तो हमने दाऊद इब्राहिम और वरदारजन मुदलियार के महिमामंडन पर प्रकाश भी नहीं डाला है।
विश्वास नहीं होता तो कश्मीर पर इन दोनों फिल्मों का विश्लेषण कर लीजिए, “लम्हा” और “हैदर”। इन दोनों फिल्मों के माध्यम से कश्मीर की जो छवि पेश की गई, उससे ऐसा ही सिद्ध हो रहा था मानो कश्मीर पर भारतीय प्रशासन अनगिनत अत्याचार ढा रही है। इस नैरेटिव को तोड़ने में वर्षों लगे थे, और “द कश्मीर फाइल्स” ने जब कश्मीर समस्या का वास्तविक चित्रण करने का प्रयास किया, तो वही लोग जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई दे रहे थे, अब इस फिल्म के पीछे हाथ धोकर पड़ गए। लेकिन जिस उद्योग ने विभाजन के दोषियों तक का महिमामंडन करने में कोई प्रयास अधूरा न छोड़ा हो, उनसे और क्या आशा करें! ऐसे में अतीक अहमद के अपराधों का अगर आगे चलकर महिमामंडन होता है, जिसकी संभावना प्रबल भी है, तो हमारे देश और हमारे फिल्म उद्योग के लिए ये शुभ संकेत नहीं है।
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