भाजपा केवल कर्नाटक नहीं हारी है। पार्टी की प्रतिबद्धता पर प्रश्न लगा है, और यह 2024 के पूर्व कोई शुभ संकेत नहीं है। परंतु ये इन्ही के कर्मों की देन है, और अगर ये अब भी नहीं चेते, तो 2018 की कुटाई पुनः दोहराई जा सकती है।
इस लेख में पढिये कैसे अपने मूल आदर्शों से समझौता करने का ही परिणाम भाजपा ने कर्नाटक में भुगता है, और क्यों अब भी समय है कि वे सतर्क हो जाएँ।
कर्नाटक की वो भूल, जो छुपाये नहीं छुप सकती
हाल ही में विधानसभा चुनावों में भाजपा को अप्रत्याशित पराजय का सामना करना पड़ा है। 224 सीटों में भाजपा को कुछ 66 सीट ही मिली। यह 2004 के बाद से भाजपा के सबसे न्यूनतम प्रदर्शन में से एक है।
अब इस पीछे सोशल मीडिया दो धड़ों में बँटा है। एक, जिन्हे लगता है कि भाजपा ने हिन्दुत्व त्याग दिया है, और “सबका साथ सबका विश्वास” के कारण इन्हे मुंह की खानी पड़ी है। दूसरे वे हैं, जिन्हे लगता है कि भाजपा गलत नहीं है, गलती तो हिंदुओं की है, जिन्होंने मुफ्तखोरी के पीछे अपने राज्य को अवसरवादियों के हवाले कर दिया।
परंतु सत्य कहीं बीच में अटका है, जिसका अन्वेषण बहुत आवश्यक है। ये वही भाजपा है, जिसने कर्नाटक में मंदिरों के प्रशासन को पुनः पुजारियों के हाथ में देने का निर्णय किया। परंतु ये वही भाजपा है, जिसने प्रवीण नेट्टारु समेत कई हिंदुओं की हत्या पर चुप्पी साधे रखी, और उनके लिए आवाज उठाने वालों पर ही लाठी बरसाई। जब तटीय कर्नाटक में भी बहुमत सिद्ध करने के लिए भाजपा को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़े, तो स्थिति बिल्कुल भी ठीक नहीं है। ठीक है PFI पर प्रतिबंध लगाया, परंतु काम आधा अधूरा क्यों छोड़ा? सम्पूर्ण प्रतिबंध सारे धड़ों पर क्यों नहीं लगाया।
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नूपुर शर्मा को भूले तो नहीं
अब बात जब हिंदुओं के अधिकारों से समझौता की हुई है, तो नूपुर शर्मा की भी बात हो जाए। कुछ लोगों की माने तो नूपुर शर्मा को खतरे में डालने के पीछे भी कई लोग रुष्ट हुए हैं। अब इस बात पर काफी वाद विवाद चलता है, परंतु इसे तो नहीं नकारा जा सकता कि संयमित निर्णय लेने के चक्कर में भाजपा ने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली।
नूपुर शर्मा को निलंबित कर भाजपा ने बहुत गलत संदेश भेजा। उन्होंने किसी संप्रदाय के नरसंहार की बात तो नहीं की, न ही किसी स्वघोषित फ़ैक्ट चेकर की भांति जघन्य अपराधों का बचाव किया। उन्होंने केवल एक कट्टरपंथी से वाद विवाद करने की भूल की, जिसके पीछे आज वह अपने घर से स्वच्छंद होकर भी नहीं निकल सकती। जब अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं की रक्षा नहीं कर सकते, तो बाकी जनता में कैसे विश्वास बढ़ेगा?
हिन्दुत्व से समझौता बिल्कुल नहीं
बात नूपुर शर्मा की उठी ही है, तो तनिक भाजपा के हिन्दुत्व पे भी प्रकाश डाल लेते हैं। इस समय केन्द्रीय नेतृत्व बगलें झांक रही है। उदाहरण के लिए त्रिपुरा को ही देख लीजिए। जिस बिप्लब कुमार देब ने कट्टरपंथियों को उन्ही की भाषा में जवाब दिया, और त्रिपुरा को एक सशक्त गढ़ में विकसित किया, तो उन्हे अचानक से स्थानांतरित कर दिया।
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परंतु जब इनका राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वयं टीवी पर आकर रहें कि भगवा और भाजपा एक नहीं है, तो आप और क्या आशा कर पाओगे? तो क्या कोई उपाय नहीं है? जिनको ऐसा लगता है, और जो ये मानते हैं कि कांग्रेस की भांति मुफ्तखोरी पे उतर आए, उन्हे तनिक यूपी और उत्तराखंड की ओर देखना चाहिए। उत्तराखंड तो कर्नाटक की भांति कांग्रेस की राह देखने लगा था। अचानक से पुष्कर सिंह धामी ने सत्ता संभाली, और एक के बाद एक ताबड़तोड़ हिन्दू हित वाले निर्णय लिए। स्थिति यह हो गई कि भारत विरोधी तत्वों को सुप्रीम कोर्ट में शरण लेनी पड़ी। जब उत्तराखंड ये कर सकता है, उत्तर प्रदेश हिन्दुत्व और विकास के अनोखे कॉम्बो पर आगे बढ़ सकता है, तो फिर बाकी का भारत क्यों नहीं? क्या रोक रहा भाजपा को?
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