दक्षिणपंथ की बेवकूफियों को अपना रहे वामपंथी कलाकार

कभी इसी बात पर करते थे दक्षिणपंथियों की खिंचाई

बड़े बुजुर्ग कहते हैं, आवश्यकता पड़ने पर भी अपनी विरोधी से अच्छी बातें सीखो। हमारे शास्त्रों में इस बात को काफी महीनता से परिभाषित किया गया है। परंतु वामपंथी एक स्पेशल ब्रीड है। ये किसी भी पंथ या संप्रदाय से केवल उनकी खामियों का ही अनुसरण करते हैं, जैसे फिल्म उद्योग में दक्षिणपंथी गुट से भारतीय वामपंथी सीख रहे हैं।

इस लेख में पढिये कैसे निरंतर असफलताओं के बाद भारतीय फिल्म उद्योग का वामपंथी गुट बौखला गया है और कैसे वह उन्ही बातों का अनुसरण कर रहे हैं, जिसके लिए कभी दक्षिणपंथियों का उपहास उड़ाते थे।

अपने गिरेबान में भी झांक ले!

“द केरल स्टोरी” ने क्या कहर बरपाया है, ये किसी से नहीं छुपा है। जहां बड़ी बड़ी फिल्में ओपनिंग वीकेंड के बाद ही हांफने लगती है, वहीं ये फिल्म दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा है। सब कुछ सही रहा, तो इसका प्रथम हफ्ते का कलेक्शन ही 70 करोड़ पार कर जाएगा, और 100 करोड़ इसके लिए हाथ की सफाई होंगी।

अब इस फिल्म का प्रभाव बढ़ने से रोकने हेतु वामपंथी “साम दाम दंड भेद” की नीति अपना रहे हैं। कोई इस फिल्म को प्रतिबंधित कर रहा है, तो कोई इसके समर्थकों को धमका रहा है। कोई इस फिल्म पर सम्पूर्ण प्रतिबंध लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक के दरवाजे खटखटा रहा है, तो कोई इसके रचनाकारों को सरेआम फांसी देने की मांग कर रहा है।

परंतु इन वामपंथियों के पास तो सब कुछ है न? पैसा, पावर, सिस्टम, नहीं? ज्यादा दूर क्यों जाएँ, “द केरल स्टोरी” के ही दिन सुधीर मिश्रा की अफवाह भी प्रदर्शित हुई थी। इसमें तो वो सब कुछ था, जो वामपंथी चाहते हैं, चाहे वह हिंदुओं के लिए घृणा हो, या फिर सामाजिक उन्मूलन के नाम पर अराजकता को बढ़ावा देना। तो भी ये फिल्म ओपनिंग वीकेंड में 1 करोड़ भी नहीं जुटा पाई, ऐसा क्यों?

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वर्चस्व से सनक तक

जब बात कलेक्शन की उठी ही है, तो अनुभव सिन्हा की “भीड़” पर भी दृष्टि डाल लेते हैं। ये फिल्म वामपंथियों की प्रिय थी, क्योंकि कोविड 19 पर भारतीय सरकार के रवैये का सच दिखा रही थी, और इसपे लगभग सभी क्रिटिक्स ने खूब प्रेम लुटाया।

इसमें तो लॉकडाउन की तुलना 1947 के विभाजन तक से कर दी गई, परंतु ऐसा क्या हुआ कि ये फिल्म 10 करोड़ भी नहीं जुटा पाई? इसका बहुत सरल और स्पष्ट कारण है : जब कॉन्टेन्ट ही कबाड़ होगा, तो नाना प्रकार की लॉबिंग भी कोई काम न आवेगी।

ये बात हमसे अधिक तो वामपंथियों को समझनी चाहिए। ये वही लोग है जिन्होंने बड़े से बड़े फिल्म के माध्यम से अपना एजेंडा इतने सलीके से फैलाया है, कि आज भी फिल्म उद्योग में इन्ही का सिक्का चलता है। आप “पीके”, “गली बॉय”, “संजू” को जितना चाहे सुना ले, परंतु आप भी इस बात को मानेंगे कि वामपंथियों को सलीके से विष परोसने की कला बखूबी आती है। जैसे द कश्मीर फाइल्स में कहा गया था, “सच जब तक जूते के फीते बांधता है, झूठ दुनिया का एक चक्कर लगा चुका होता है”।

परंतु यही आत्मविश्वास कब अतिआत्मविश्वास में बदल गया, पता ही नहीं चला। रही सही कसर कोविड 19 ने पूरी कर दी। और देशों का तो नहीं पता, लेकिन जिस पद्वति पे वामपंथियों ने हॉलीवुड में उत्पात मचाया, उसका लेशमात्र भी असर भारतीय सिनेमा पे देखने को मिला, उलटे अब विभिन्न फिल्मों के माध्यम से इनके एजेंडावाद को जमकर प्रत्युत्तर मिल रहा है।

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ये आदत ही ले डूबेगी!

जब “इंदु सरकार” और “द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर” ने भारतीय सिनेमा में वैचारिक लड़ाई को एक नया मोड़ देने का प्रयास किया, तो वामपंथी तुरंत “एजेंडावाद”, “प्रोपगैंडा” जैसे शब्दों के साथ इनकी वैलिडिटी को ही ध्वस्त करने में लग गए। परंतु वो क्या है, काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती। जो कार्य “उरी” से प्रारंभ हुआ, वो पहले “तान्हाजी”, फिर “द कश्मीर फाइल्स”, और अब “द केरल स्टोरी” जैसे फिल्मों के माध्यम से वामपंथियों को ही हास्य का पात्र बनाने पर तुली हुई है। दक्षिणपंथी की जिस अपरिपक्वता का वामपंथी उपहास उड़ाते थे, आज वे उसी अपरिपक्वता का पर्याय बन गए हैं। यदि ऐसे ही चलता रहा तो इनकी भी हालत वैसे ही हो जाएगी, जैसे राजनीति में आजकल समाजवादी पार्टी की हो चुकी है।

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