पॉल एर्लिच का “पॉपुलेशन बम” जिसके कारण इंदिरा गांधी ने कुख्यात “सामूहिक नसबंदी” कराई

एक ऐसा सत्य जो कांग्रेस नहीं चाहती हम और आप जाने!

आज जब एक बड़बोले अमेरिकी राजनीतिज्ञ के बचाव में कुछ वामपंथी, विशेषकर कांग्रेसी राजनीतिज्ञों को आते हुए देखता हूँ, तो क्रोध भी आती है और हंसी भी। पर क्या आपको पता है कि दासता इनमें ऐसी घर कर गई है कि इन्होंने इस सनक में इस देश की जनसंख्या की जबरन नसबंदी करने तक का निर्णय ले लिया?

1970 के दशक में आपातकाल के दौरान भारत में जबरन नसबंदी का कुख्यात अध्याय देश के इतिहास में एक तानाशाही युग की भयावह स्मृतियों के रूप में अंकित है। इस घृणित उपाय की जड़ें पॉल एर्लिच की विवादास्पद पुस्तक, “द पॉपुलेशन बम” में खोजी जा सकती हैं, जिसमें अत्यधिक जनसंख्या के गंभीर परिणामों की भविष्यवाणी की गई थी।

इस लेख में आइए पॉल एर्लिच के सिद्धांतों, अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की भूमिका और उस अवधि के दौरान भारत में सामने आई दुखद घटनाओं के बीच संबंध पर गहन चर्चा करें।

ये कैसी प्रेरणा?

कल्पना कीजिए कि भारतीय प्रशासन बर्नी सैंडर्स और ग्रेट थनबर्ग जैसों  की नीति पर शब्दशः कार्य कर रहा है। 70 के दशक की शुरुआत में तत्कालीन कांग्रेस प्रशासन ने ठीक यही किया था। हाल ही में इसी विषय पर @mezaoptimizer नामक यूज़र ने पॉल एरलिच के सुझाव पर भारतीयों की जबरन नसबंदी से संबंधित की ट्वीट किए, जिसपर ट्विटर संचालक एवं चर्चित उद्योगपति एलन मास्क ने भी आश्चर्य और निराशा व्यक्त की, और पॉल को “मानवता के लिए कलंक” बताया।

परंतु ऐसा भी क्या हुआ था? वैश्विक जनसंख्या वृद्धि के बारे में पॉल एर्लिच नामक एक व्यक्ति तरह तरह की अफवाहें फैलाता था। परंतु सोशल मीडिया के अभाव में ऐसा बकैत एक सामाजिक कार्यकर्ता बन गया, जिसने एर्लिच पुरस्कार और प्रशंसा अर्जित करते हुए पर्यावरण विज्ञान और एक्टिविज़्म में अपना प्रभाव जमाया। इनकी भ्रामक धारणाओं का भारत की परिवार नियोजन नीतियों पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिससे एक भयानक और अमानवीय अभियान शुरू हुआ।

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इस कथा का प्रारंभ 1968 में होता है, एर्लिच की पुस्तक ने दुनिया भर में अत्यधिक जनसंख्या और इसके कारण होने वाली भुखमरी के बारे में चिंताएँ पैदा कर दीं। जबरन नसबंदी की उनकी सिफारिशों को विशेषकर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने गंभीरता से लिया था। कथित तौर पर, जॉनसन ने बड़े पैमाने पर नसबंदी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन पर ही भारत को वित्तीय सहायता देने की शर्त रखी, जिसे भारत के नेतृत्व से समर्थन मिला।

एरलिच का इंडिया कनेक्शन

इसी एरलिच के कारण आपातकाल में भारतीय प्रशासन ने जबरन नसबंदी प्रारंभ की। विश्व बैंक, स्वीडिश अंतर्राष्ट्रीय विकास प्राधिकरण और संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों से वित्तीय सहायता के साथ, सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपने स्वयं के नागरिकों को केवल आंकड़ों के रूप में माना। ऐसा लग रहा था मानो 1984 उपन्यास के किसी का वास्तव में रूपांतरण हो रहा है।

आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी का पैमाना चौंका देने वाला था। केवल एक वर्ष में लगभग 6.2 मिलियन भारतीय पुरुषों की नसबंदी कर दी गई। लक्ष्य मुख्य रूप से वंचित क्षेत्रों के गरीब, अशिक्षित पुरुषों पर केंद्रित थे। कुछ उदाहरणों में, पूरे गाँवों को पुलिस द्वारा घेर लिया गया था, और पुरुषों को जबरदस्ती सर्जरी के अधीन किया गया था। दुख की बात है कि ख़राब प्रक्रियाओं के कारण 2,000 से अधिक पुरुषों ने अपनी जान गंवा दी। लेकिन जब तक उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है, तब तक किसे परवाह थी?

एक घिनौनी विरासत

फोर्ड और रॉकफेलर फाउंडेशन जैसे संस्थानों की भागीदारी जबरन नसबंदी को समर्थन और सुविधा देने में उनकी मिलीभगत पर सवाल उठाती है। हालाँकि इन संस्थानों ने भारत की जनसंख्या समस्या के समाधान के साधन के रूप में अपने समर्थन को उचित ठहराया होगा, लेकिन ऐसे कार्यों के नैतिक निहितार्थों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यह उन राष्ट्रों द्वारा प्रदर्शित दोहरे मानकों को उजागर करता है जो आज मानवाधिकारों और लोकतंत्र के समर्थक हैं।

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लाखों भारतीय पुरुषों की जबरन नसबंदी देश के आधुनिक इतिहास के सबसे भयावह अध्यायों में से एक का प्रतिनिधित्व करती है। यह मानवीय गरिमा, व्यक्तिगत अधिकारों की उपेक्षा और सत्ता के दुरुपयोग की एक दर्दनाक याद के रूप में कार्य करता है। इस अंधेरे दौर के निशान आज भी प्रभावित परिवारों और समुदायों पर असर कर रहे हैं। भारत में आपातकाल के दौरान चलाया गया जबरन नसबंदी अभियान गुमराह विचारधारा और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव के सम्मिलन का एक दुखद परिणाम है। यह मानव अधिकारों की रक्षा करने, व्यक्तिगत स्वायत्तता का सम्मान करने और मानवता पर संख्याओं को प्राथमिकता देने वाली नीतियों के प्रति सतर्क रहने के महत्व की याद दिलाता है।

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