मदर टेरेसा : बिन बुलाई “श्वेत मसीहा” !

केवल नाम की संत थी टेरेसा

जो कलकत्ता कभी सनातन संस्कृति के विभिन्न पहलुओं का समागम केंद्र होता था, जहाँ वैष्णव से लेकर शाक्त पंथ के लिए द्वार खुले थे, वह अब ईसाई मिशनरियों के मायाजाल में फंस चुका है. आज हम चर्चा करेंगे बिन बुलाई “श्वेत मसीहा” मदर टेरेसा पर, और यह समझेंगे कि कैसे एक एल्बेनियाई मिशनरी ने भारत की विविध संस्कृति को आघात पहुंचाना अपना ‘कर्त्तव्य’ समझा!

गुरुओं को ज्ञान न दें!

सनातन ज्ञान के गहन इतिहास में, हमें सदैव आत्म-बोध के सिद्धांत और आत्मनिरीक्षण की शक्ति के बारे में सिखाया और पढ़ाया गया है। यहाँ प्रवेश होता है “व्हाइट सेवियर” का, अर्थात एक ऐसा व्यक्ति, जो पाश्चात्य संस्कृति की महिमा के बारे में ज्ञान बांचते हुए अन्य लोगों को उनके “पिछड़ी” हुई संस्कृति से बचाने का दावा करता है. जिस सनातनी ने अनंत काल से विविध दर्शनों का ज्ञान प्राप्त किया हो, उसे ये धारणा सतही और खोखली प्रतीत होगी ही!

हमारे प्राचीन ग्रंथों के अनुसार सम्पूर्ण विश्व एक कुटुंब सामान है, “वसुधैव कुटुंबकम”! अगर आपके मन में सहायता की भावना हो, तो जिसकी सहायता आप कर रहे हो, उसकी संस्कृति पर आप हावी नहीं हो सकते. जैसा कि श्रीमद्भगवदगीता में स्पष्ट है, प्रत्येक सभ्यता का अपना धार्मिक महत्त्व होता है और उसकी मुक्ति का अपना अनूठा मार्ग होता है!

वो कहते हैं, “किसी आदमी को मछली मत दें, उसे मछली पकड़ना सिखाएं!” यहीं पर “व्हाइट सेवियर कॉम्प्लेक्स” पिछड़ जाता है. किसी व्यक्ति को सक्षम बनाने के स्थान पर, ये प्रवृत्ति इसे दूसरे पर लम्बे समय के लिए आश्रित रहने पर विवश कर देती है! जो संस्कृति अपने आध्यात्मिक समृद्धि और प्राचीनता पर गर्व करती हो, वहां पर ऐसी प्रवृत्ति न केवल अनावश्यक लगता है, अपितु अतार्किक भी! संसार को “रक्षकों” की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है तो समझ, आपसी सम्मान और सच्चे सहयोग की!

सनातन संस्कृति के विशाल ज्ञानवट में हिन्दू सदैव इसकी सशक्त जड़ों समान विद्यमान रहे हैं. परन्तु भारतविदों, मानव विज्ञान विशेषज्ञ एवं औपनिवेशिक अंग्रेज़ों द्वारा एक विनाशकारी नैरेटिव रचा गया है, जिसके अनुसार भारतीयों, मुख्य रूप से हिंदुओं को आदिम प्रवृत्ति का  और संस्कृति-विहीन प्राणियों के रूप में चित्रित किया है,  जिन्हें ‘मार्गदर्शन’ की त्वरित आवश्यकता है।

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सनातन ज्ञान का शिखर: कलकत्ता

कलकत्ता वह स्थान है जो भारत की सांस्कृतिक विविधता का ऐतिहासिक प्रतिबिम्ब रहा है. बंगाल की इसी पवित्र भूमि पर चैतन्य महाप्रभु, लाहिड़ी महाराज, रामकृष्ण परमहंस एवं बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय जैसे मनीषी महापुरुषों का उद्भव हुआ. कलकत्ता का नगर कई गहन आध्यात्मिक और दार्शनिक आंदोलनों का साक्षी भी रहा है.

इसी कलकत्ता में भक्ति आंदोलन अपने शिखर पर पहुँचने में सफल हुआ था.  इसी शहर में विविध  धार्मिक धाराओं का समागम हुआ। चाहे भगवान् विष्णु के वैष्णव अनुयायी हों, या फिर शक्ति के अनन्य उपासक शाक्त हों, सभी यहाँ सह-अस्तित्व में रहे और फले-फूले। उनके सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व ने भक्ति लोकाचार के सार का उदाहरण दिया –  जहाँ भक्ति के अतिरिक्त कुछ भी सर्वोच्च नहीं!

अब जिसकी इतनी समृद्ध बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत, वहां कोई आक्रांता कैसे नहीं आकृष्ट होगा? बंगाल, विशेषकर कलकत्ता की इसी समृद्ध विरासत की ओर ब्रिटिश उपनिवेशवादी आकृष्ट हुए. ये भूमि केवल संसाधनों से ही नहीं, अपितु सांस्कृतिक रूप से भी समृद्ध व्यक्तियों से सुसज्जित थी! साम्राज्यवादियों की भाषा अंग्रेजी को बोलने में यहाँ के निवासियों को अद्भुत दक्षता प्राप्त थी, जो इस  क्षेत्र की बौद्धिक विरासत एवं अनुकूलन व्यवस्था का परिचायक था.

इसी भाषाई पुल का लाभ उठाते हुए कलकत्ता को ईसाई मिशनरियों ने अपना लांचपैड बनाया। जितनी सरलता से वे स्थानीय समुदाय के साथ वार्तालाप कर सकते थे, उसी आधार पर उन्होंने कलकत्ता को अपने प्रचार प्रसार का केंद्र बनाया! इसके अतिरिक्त, मिशनरियों ने कोलकाता के प्रतीकात्मक और रणनीतिक मूल्य को समझा; यह शहर केवल एक महानगर नहीं था अपितु भारत के बौद्धिक और आध्यात्मिक परिदृश्य का हृदय स्वरुप था। ऐसे में कोलकाता को अधीन करना, अर्थात भारतीय संस्कृति के आधारस्तम्भ को अपने अधीन करने समान था. बात केवल संख्या की नहीं थी, बात थी प्रभाव की. अगर कलकत्ता अपने समृद्ध आध्यात्मिक इतिहास के साथ ईसाई मिशन के अधीन कर लिया जाता, तो इसकी गूँज समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में होती!

एंट्री ‘मदर’ टेरेसा की!

इसी बीच स्कोप्जे, मैसेडोनिया में, 26 अगस्त, 1910 को अंजेज़े गोंक्से बोजाक्सीहु का जन्म हुआ, जिन्हें बाद में टेरेसा के नाम से जाना गया. एक एल्बेनियाई परिवार में पली बढ़ी इस कैथोलिक किशोरी की प्रारम्भ से ही मिशनरी कार्यों में रूचि अधिक थी। 12 साल की आयु तक, इनमें मिशनरी कार्य में शामिल होने की भावना उत्पन्न हुई, एवं 18 साल की आयु में, इन्होने आयरलैंड के राथफर्नहैम में सिस्टर्स ऑफ लोरेटो की ओर प्रस्थान किया।

यहां उसने अंग्रेजी सीखी, जो भारत में प्रस्तावित मिशन के लिए आवश्यक थी। ‘टेरेसा’ नाम अपनाकर 1929 तक वह कोलकाता (तब कलकत्ता) आ गईं, जहाँ उन्होंने एंटली में लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में एक शिक्षिका के रूप में शुरुआत की।

Die, you brown Hindoo!

मदर टेरेसा कलकत्ता के समाज के साथ घुलने मिलने लगी, और धीरे धीरे वे कुछ ऐसा करने लगी, जिसका वर्णन इनके समर्थकों ने “शहर में गंभीर मानवीय पीड़ा को संबोधित करने के लिए एक गहरी प्रेरणा” के रूप में चित्रित किया. १९५० में इन्होने “मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी” की स्थापना की, जिसके अंतर्गत इन्होने और इनके  सहयोगी मिशनरियों ने विभिन्न प्रयास शुरू किये, जिसमें कैथोलिक धर्मान्तरण सर्वोपरि था। उन्होंने गंभीर रूप से बीमार लोगों के लिए आश्रम, विकलांगों के लिए केंद्र, अनाथालय और स्कूलों की स्थापना की। परन्तु संगठन के तरीकों एवं गुणवत्ता पर इनके ध्यान को देखते हुए “नारकीय” शब्द भी तनिक विनम्र ही लगेगा!

इनकी धर्मशालाएं तो एक अलग ही चित्र प्रस्तुत करती है, और वह निस्संदेह मनोरम नहीं! एक ही कक्ष में कोढ़ के रोगियों  से लेकर भांति भांति के रोगी खाटों पर पड़े होते. पेचिश के रोगियों की समस्याएं यानी भूमि पर पड़ा मल मूत्र समस्त वातावरण को अझेल एवं असहनीय बनाने के लिए पर्याप्त था. पीड़ा से भरी चीखें एवं निरंतर खांसी का रुदन सम्पूर्ण वातावरण को दमघोंटू एवं असाध्य बना देता. जिसे रोग नहीं होता, वो भी इस दृश्य को देख असहज हो जाता.  कई वृत्तांत स्पष्ट रूप से बताते हैं कि जो यहाँ पीड़ा से ‘मुक्ति’ की आस में आते थे, उन्हें सबसे पीड़ादायक मृत्यु से गुज़रना पड़ता!

उपचार की बात छोड़िये, विभिन्न मुद्दों पर मदर टेरेसा के विचार और इनके फंड्स की उत्पत्ति आज भी रहस्य में डूबी हुई है. आज भी मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी, इसका सञ्चालन एवं प्रभाव चर्चा के केंद्र में है, परन्तु ये आवश्यक नहीं कि सभी बातें सकारात्मक हो!

सच में इनकी सहायता की आवश्यकता थी मृत्युशैया पर पड़े रोगियों को?

अब आते हैं सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न पर: क्या ऐसे लोगों को वास्तव में मदर टेरेसा की सहायता चाहिए थी? या “व्हाइट सेवियर” का भाव ही इनके इरादों का मार्गदर्शन करता था? क्या स्वीकृति का कोई स्थान नहीं? सेवाभाव में मुक्ति का भाव स्वेच्छा से आना चाहिए, स्वार्थ भाव से नहीं, पर यहाँ तो ऐसा कुछ भी नहीं था. सेवा और स्वार्थ के बीच एक बहुत महीन रेखा है। ऐसे में हम ये भी सोचने को विवश हो जाते हैं, कि क्या इन लोगों का दान वास्तव में परोपकार की भावना से किया गया, या फिर बात कुछ और ही थी!

इसके अतिरिक्त, कभी आपने ये सोचने का प्रयास किया कि मृत्युशैय्या पर पड़े इन रोगियों को एक “श्वेत रक्षक” की ही आवश्यकता क्यों चाहिए थी? क्या पीड़ा नस्लों के बीच अंतर करती है, या फिर ईसाई मिशनरियों ने टेरेसा को जानबूझकर ‘श्वेत सेवियर’ के रूप में दिखाया है, जिसके लिए पीड़ितों की सेवा कभी प्राथमिक लक्ष्य था ही नहीं?

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केवल नाम की संत थी टेरेसा

सच कहें तो मदर टेरेसा का सामाजिक कार्य एक छलावा था, जिसमें परोपकार के नाम पर धर्मान्तरण को बढ़ावा दिया जाता रहा. विश्वास नहीं होता तो इस उदाहरण पे ध्यान दीजिये. जिस टेरेसा को कुछ अनुयायी ‘संत’ की उपाधि देते हैं, उसी ने एक मरते हुए व्यक्ति की पीड़ा को यीशु के आलिंगन के बराबर बताया। उत्तर में पीड़ित ने इतना ही कहा, “तो फिर यीशु से कहें कि मुझे चूमना बंद करें।”

माइकल हकीम सहित अनेक आलोचकों का तर्क है कि टेरेसा एक कट्टरपंथी धार्मिक परिप्रेक्ष्य की अधिवक्ता थी। उनका तर्क था कि टेरेसा दर्द और पीड़ा को अद्वितीय अनुभवों के रूप में देखती थी, जिसे वह यीशु मसीह के सूली पर चढ़ने समान बताती थी। किसी की पीड़ा का ऐसा व्यापार ही अंग्रेज़ी में संभवत: ‘सोल हार्वेस्टिंग’ कही जाती है.

इसके अतिरिक्त टेरेसा के अनेकों संबंध, चाहे सांस्कृतिक हो या राजनीतिक, पर अक्सर प्रश्न उठते रहे हैं, विशेष रूप से हैती के कुख्यात डुवेलियर परिवार-पापा, मामा और बेबी डॉक के साथ उनके संबंधों पर, जो अपने दमनकारी शासन के लिए जाने जाते थे. इसी भांति, भारतीय लोकतंत्र के काले अध्याय, यानी इंदिरा गांधी के आपातकाल युग पर उनके विचारों को राजनीतिक नेतृत्व के साथ तालमेल बनाए रखने के एक रणनीतिक कदम के रूप में देखा गया है। दोनों उदाहरण इनकी नैतिकता पर एक विशाल प्रश्नचिन्ह लगाती है!

पीड़ा में आनंद और “White Saviour Complex”

इस परिप्रेक्ष्य में मदर टेरेसा विशुद्ध “White Saviour” सिद्ध होती हैं, जिन्होंने उपचार के लिए नहीं अपितु धर्मान्तरण के उद्देश्य से ऐसे रुग्णालय बनाये, जहाँ रोगी की मृत्यु बाद में होती, पहले उसे असाध्य कष्ट और पीड़ा का अनुभव करना होता!  इनके प्रतिष्ठान अस्पताल कम, प्रचार केंद्र अधिक थे। इनके वास्तविक इरादों को समझने हेतु एक तीक्ष्ण दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जो अक्सर तालियों की गड़गड़ाहट और प्रशंसा की झड़ी में कहीं छुप सी जाती है.

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