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पुर्तगालियों से आत्मसमर्पण कराने वाले वीर चिमाजी अप्पा की कथा

16 मई, 1739 को मराठा वीरों के समक्ष पुर्तगालियों ने आत्म समर्पण किया था। इसके बाद पुर्तगाली गोवा तक ही सिमट गए थे।

Akash Gaur द्वारा Akash Gaur
16 May 2024
in इतिहास
चिमाजी अप्पा, वसई का युद्ध, पुर्तगाली, मराठा योद्धा, मराठा साम्राज्य, बाजीराव पेशवा
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वास्को डी गामा के 1498 में कालीकट, केरल पहुंचने के बाद पुर्तगालियों का भारत आना जाना बढ़ गया। व्यापार से शुरू कर शीघ्र ही पुर्तगालियों ने भारत की जमीन पर अपने पांव बढ़ाने प्रारंभ कर दिए। आगे चलकर गोवा और महाराष्ट्र के समुद्री किनारे से सटा भूभाग उनकी गतिविधियों का केंद्र बन गया। 

पुर्तगालियों के पास बेहतर हथियार थे और  उन्नत नौसेना थी, जिसके बल पर उन्होंने शनै: शनै: काफी बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया। इस भाग में कर वसूली तो वे करते ही थे, साथ ही उन्होंने जबरन धर्मांतरण और प्रजा पर अत्याचारों का जो सिलसिला चलाया वह अवर्णनीय है।

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सन 1567 में पुर्तगालियों ने कईं हिन्दू विरोधी कानून लागू कर दिए। हिन्दुओं को पूजा अर्चना से वंचित कर दिया गया, हिन्दू रीति से विवाह पर रोक लगा दी, सैकड़ों मंदिर तोड़ दिए, जनेऊ धारण करने पर बंदिश लगा दी, त्यौहार मनाने पर बंदिश लगा दी, विरोध करने वालों को जिंदा जला दिया जाता, और हिन्दुओं पर भारी कर लाद दिए गए। 

बाजीराव का स्वयं का ध्यान कमजोर पड़ती जा रही मुगल सल्तनत पर था और वे मराठों की सीमा को उत्तर में लगातार बढाते जा रहे थे। परन्तु पश्चिम में गोवा और अन्य स्थानों से हिन्दू लगातार पलायन को मजबूर हो रहे थे और हर आने वाला परिवार पुर्तगालियों की क्रूरता की नई पराकाष्ठा का वर्णन सुनाता था। 

ऐसी स्थिति में बाजीराव ने अपने छोटे भाई चिमाजी अप्पा को पश्चिम की कमान सौंप कर पुर्तगालियों का निपटारण करने का उत्तरदायित्व सौंपा। चिमाजी कुशाग्र और वीर तो थे ही रणनीति बनाने में भी माहिर थे। 

पुर्तगाली शक्तिशाली थे, संगठित थे, उन्नत आयुधों से लैस थे और नौ सेना उनकी मुख्य शक्ति थी। उन्होंने वसई को अपना मुख्यालय बना रखा था। और आस पास के अधिकांश समुद्री किनारे से लगे क्षेत्रों पर उनका अधिकार था। चिमाजी अप्पा ने  एक एक कर उनके किलों पर हमला कर उन्हे कमजोर बनाना शुरू किया। इस क्रम की शुरुआत सन 1733 में बेलापुर को अपने अधिपत्य में लेने से हुई। 

अगले लगभग चार वर्षों में उन्होंने ठाणे, पारसिक, मारोल, उरन, तंदुलवाडी, अरनाला सहित कईं जगहों पर पुर्तगालियों को पराजित कर अपना आधिपत्य जमाया। लेकिन वे वर्सोवा, बांद्रा, साष्टि और सबसे महत्वपूर्ण वसई पर अधिपत्य जमाने में सफल नहीं हो पाए थे।

चिमाजी ने दो बार वसई पर चढ़ाई की लेकिन वे सफल नहीं हो सके। तभी बाजीराव ने निजाम का सामना करने उन्हे बुला लिया। उनकी अनुपस्थिति में मराठों ने एक और प्रयास किया, लेकिन उनके 5000 सैनिक हताहत होने के बावजूद वे पुर्तगालियों को वसई से हटा नहीं सके। उधर बाजीराव ने निजाम के घुटने टिकवा लिए और युद्ध समाप्त होते ही चिमाजी पुनः पश्चिमी घाट लौट आए। उन्होंने नई ऊर्जा, नई सेना और नई रणनीति के साथ वसई पर पुनः एकबार जोरदार हमला बोल दिया। 

इस बीच पुर्तगालियों ने ठाणे पर हमला कर दिया लेकिन चौकन्ने मल्हार राव होलकर ने उन्हे पराजित कर खदेड़ दिया और उनके जहाजों को भी नष्ट कर दिया। दूसरी ओर, सिंधिया वंश के प्रथम पुरुष  राणोजी शिंदे ने पुर्तगालियों के अधीन के दमन, दहानू और नागरोल पर आक्रमण कर वहां से वसई को मिलने वाली मदद काट दी। दक्षिण में व्यंकोजी राव ने गोवा पर आक्रमण कर मडगांव और कॉन्कोलिम जीत लिए। 

इस प्रकार दमन और गोवा जीत कर चिमाजी ने वसई को मिलने वाली मदद के रास्ते बंद करवा दिए। चिमाजी स्वयं अपनी फौज के साथ पुर्तगालियों पर टूट पड़े और शीघ्र ही माहिम, धारावी, कलवे, आदि महत्वपूर्ण स्थान पुर्तगालियों से छीन लिए। अब पुर्तगाली वसई में चारों ओर से घिर चुके थे। उनके तमाम जहाज भी मराठों की जद में थे।

इस रणनीतिक श्रेष्ठता को हासिल करने के बाद चिमाजी ने 40000 पैदल और 15000 घुड़सवारों की भारी फौज के साथ वसई पर हमला बोल दिया। इसके अतिरिक्त उनके साथ बारूदी सुरंग बिछाने वाले 5000 प्रशिक्षित तकिनिशियन भी थे। पानी में सुरंगे बिछाना अत्यन्त कठिन था। वसई किले के पास पहुंचने पर पुर्तगाली भून डाल रहे थे। 

अत्यंत दुष्कर परिस्थितियों में जान पर खेल कर मराठा वीरों ने कुछ सुरंगे किले तक बिछा कर किले की दीवार कईं जगहों से ध्वस्त कर दी जहां से मराठा जाबांज किले में घुस पड़े और पुर्तगालियों का सफाया शुरू कर दिया। 

चिमाजी अप्पा, मल्हारराव होलकर और रानोजी शिंदे स्वयं बीच मैदान पर अपने सैनिकों के साथ लड़ाई में शामिल थे। हजारों पुर्तगाली मारे गए और अंततः 16 मई 1739 को पुर्तगालियों ने मराठों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। 

दो सौ वर्षों तक जो क्षेत्र पुर्तगालियों के अधीन थे उन्हें चिमाजी अप्पा ने मुक्त करवा लिया था। युद्ध के बाद हुई संधि में पुर्तगालियों को गोवा में हिंदुओं को अपने धर्म पालन के अधिकार देने का वचन भी देना पड़ा। इस पराजय के बाद पुर्तगाली कभी भी उबर नहीं सके और गोवा तक ही सिमटे रहे।

यह हमारे देश का परम दुर्भाग्य था कि अगले एक वर्ष में ही दोनो महान भाई बाजीराव और चिमाजी की मृत्यु अपनी अपनी बीमारियों की वजह से हो गई। अन्यथा भारत एक ऐसे कालखंड में पहुंच चुका था जहां मुगल कमजोर हो कर समाप्त हो रहे थे, पुर्तगाली भारत के मुख्य भागों से पराजित हो कर गोवा तक सिमट गए थे और अंग्रेज अभी ताकत बने ही नहीं थे। उल्लेखनीय है कि प्लासी की लड़ाई वसई की लड़ाई के 18 वर्षों बाद लड़ी गई थी। हम कल्पना ही कर सकते हैं कि यदि परमपिता इन भाइयों को उम्र प्रदान करता तो हमारे देश का भविष्य क्या होता?

और पढ़ें:- कौन थे सरदार हरि सिंह नलवा? जिनके नाम से खौफ खाते थे अफगानी।

Tags: Bajirao Peshwabattle of vasaiChimaji AppaMaratha EmpireMaratha warriorPortugueseचिमाजी अप्पापुर्तगालीबाजीराव पेशवामराठा योद्धामराठा साम्राज्यवसई का युद्ध
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