आज एक युद्ध नायक की वीरगति का 58वां वर्ष है, जो प्रारम्भ से नायक नहीं था, परन्तु अपने कर्मों से जल्द ही बन गया, और जिनकी कथा अपने आप में एक बायोपिक या वेब श्रृंखला के योग्य है। आज के दिन हम लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, जो एक उल्लेखनीय सैनिक थे, जिनके अटूट साहस और समर्पण ने उन्हें भारत का सर्वोच्च युद्धकालीन वीरता पुरस्कार, परमवीर चक्र दिलाया, जिससे वह इस सम्मान के सबसे उम्रदराज़ प्राप्तकर्ता बन गए।
अर्देशिर तारापोर की अनूठी विरासत उनके नाम से ही शुरू हुई। उनके पूर्वजों ने महान छत्रपति शिवाजी महाराज का समर्थन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और बदले में, उन्हें इनाम के रूप में तारापुर गांव और कई अन्य गांव दिए गए थे। हालाँकि, जब अर्देशिर का जन्म हुआ, तब तक विरासत में आमूल-चूल परिवर्तन आ चुका था। उनके पिता, बीपी तारापोरे, फ़ारसी और उर्दू भाषाओं में पारंगत विद्वान थे, और उन्होंने निज़ाम शाही साम्राज्य की सेवा की थी – एक ऐसा साम्राज्य जिसका मराठाओं से छत्तीस का आंकड़ा था।हालाँकि अर्देशिर का जन्म बॉम्बे में हुआ था, लेकिन उनकी प्रारंभिक वफादारी हैदराबाद प्रांत की ओर थी। महज 19 साल की उम्र में, वह हैदराबाद सेना में शामिल हो गए और जल्दी ही मेजर जनरल सैयद एल एड्रोस की नजर में आ गए, जिन्होंने उनके असाधारण कौशल को पहचाना और उन्हें आर्टिलरी इकाई, हैदराबाद इंपीरियल लांसर्स में स्थानांतरित कर दिया।
अर्देशिर की निर्भीकता तब स्पष्ट हुई जब उन्होंने निडरता से एक ब्रिटिश वरिष्ठ का सामना किया जिसने भारतीय सैनिकों का अपमान किया था और जवाब दिया, “आप मेरे देश और मेरे राजा का अपमान कर रहे हैं, और मैं इंग्लैंड के राजा के बारे में बात नहीं कर रहा हूँ!” अपनी यूनिट के संभावित विघटन का सामना करने के बावजूद, मेजर जनरल एड्रोस ने हस्तक्षेप किया और अर्देशिर के करियर को बचाया। फिर भी, अर्देशिर इस कठिन समय के दौरान अपनी वफादारी पर विचार करने से खुद को रोक नहीं सके।
जैसे ही भारत को स्वतंत्रता मिली, और ऑपरेशन पोलो के दौरान हैदराबाद को आज़ाद किया गया, यह मेजर अर्देशिर तारापोर ही थे, जिन्होंने इस्तीफा देने के बजाय, स्वेच्छा से भारतीय सेनाओं में विलय करने का विकल्प चुना। 1951 तक, कैप्टन अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर ने न केवल अपनी प्रतिष्ठा वापस पा ली थी, बल्कि पूना हॉर्स के टैंक स्क्वाड्रन में शामिल होकर अपने पूर्वजों की विरासत को भी पुनर्जीवित किया था।
वह एक सच्चे “सैनिक अधिकारी” थे, एक ऐसे नेता जिन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनके अधीनस्थ कभी भी उपेक्षित महसूस न करें। उनकी मूंछें उनके स्क्वाड्रन के हवलदार बहादुर सिंह से भी मिलती जुलती थीं। जब 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया, तो लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर को पाकिस्तान में प्रसिद्ध सेंचुरियन टैंक स्क्वाड्रन का नेतृत्व करने का काम सौंपा गया।
सियालकोट को लाहौर से अलग करने के मिशन के साथ, पूना हॉर्स आई कोर से जुड़ी पहली बख्तरबंद डिवीजन का हिस्सा बन गया। पाकिस्तानियों को चकमा देने के लिए, उन्होंने फिलोरा पर पीछे से हमले की योजना बनाई, जिसके परिणामस्वरूप सियालकोट के पास बुट्टर डोगरांडी की लड़ाई हुई। दुश्मन के भारी टैंक और तोपखाने की गोलीबारी का सामना करने के बावजूद, लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने बहादुरी से अपना मोर्चा संभाला और फिलोरा पर हमले का नेतृत्व किया।
घायल होने के बाद भी, उन्होंने वहां से हटने से इनकार कर दिया और अपनी रेजिमेंट को प्रेरित करना जारी रखा। 14 सितंबर को, उनकी रेजिमेंट ने वज़ीरवाली पर कब्ज़ा कर लिया, जबकि उनके नेतृत्व में, उन्होंने केवल नौ भारतीय टैंकों के नुकसान के साथ साठ पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट कर दिया था। स्वाभाविक तौर पर लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर को परमवीर चक्र के लिए रिकमेंड किया गया था। दुख की बात है कि उन्हें जीवित रहते हुए कभी भी यह प्रतिष्ठित पदक पहनने का अवसर नहीं मिला।
16 सितंबर, 1965 को, अचानक से एक टैंक शेल उनके टैंक ख़ुशाब पर गिरा, जहाँ वह एक ख़ुफ़िया अधिकारी के साथ हाथ में स्लिंग डाले चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर की अकस्मात् मृत्यु हुई थी। लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर का जीवन और विरासत उनके देश के प्रति अटूट देशभक्ति, बहादुरी और निस्वार्थ सेवा का प्रमाण है। उनके वीरगति के ५८वें वर्षगांठ पर, हम उस नायक को याद करते हैं और उसका सम्मान करते हैं जिसने इतिहास के पन्नों पर एक अमिट छाप छोड़ते हुए अपनी वीरतापूर्ण यात्रा तय की।
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