सीआईए जासूस रबिन्दर सिंह की अनकही कथा, जो न घर का रहा न घाट का!

ट्रुथ इज स्ट्रेंजर दैन फिक्शन!

आपने इन कथनों को कहीं न कहीं सुना या पढ़ा होगा, “Karma is watching” या “Truth is stranger than fiction”? सुनने में ये बड़े प्रभावी लगते थे, पर कइयों को, यहाँ तक कि मुझे भी इन कथनों के प्रभाव का पूर्ण आभास नहीं था, जब तक मैंने हाल ही में ‘ख़ुफ़िया’ फिल्म का ट्रेलर नहीं देखा. कहने को ये फिल्म सच्ची घटनाओं पे आधारित एक थ्रिलर है, जहाँ एक जासूस हमारे देश के साथ विश्वासघात करता है, परन्तु एक ऐसी राह पर चलता है, जहाँ से वापसी लगभग असम्भव है! इस कथा को जानकर मन में सर्वप्रथम प्रश्न यही आया : कहीं इसे पहले भी सुना या देखा था? उत्तर एक ही था : हाँ!

‘ख़ुफ़िया’ कोई साधारण कथा नहीं है। यह रबिंदर सिंह के जीवन की कथा है, जिसने अपने देश के साथ गद्दारी की, लेकिन ऐसा करते हुए उसने अपने सम्मान, अपने सपनों और अंततः अपने जीवन नष्ट कर दिया। वह सीआईए में चले गए, परन्तु जो उसे चाहिए था, वह उसे कभी मिला। उसका अंत एक ऐसे व्यक्ति के रूप में हुआ, जो न घर का रहा, न ही घाट का! आज हम कथा बताएँगे उसी रबिन्दर सिंह की, जिसका लोभ ही उसके विनाश का कारण बना!

कौन था रबिंदर सिंह?

तो कौन था रबिन्दर सिंह? कैसे वह एक आम सरकारी कर्मचारी से सीआईए के दलाल में बदल गया?

इसके लिए हमें उसके अतीत में झांकना होगा। अब रबिंदर सिंह की यात्रा एक सेना अधिकारी के रूप में प्रारम्भ हुई, जहाँ वे मेजर के पद पर सेवानिवृत्त हुए। हालाँकि, सशस्त्र बलों के दायरे में उनकी प्रतिष्ठा कम थी। शायद इसीलिए उन्होंने विदेश मंत्रालय में एक आरामदायक सरकारी पद चुना, जहां उनकी प्रतिभा, या उसकी कमी, उतनी ध्यान देने योग्य नहीं होगी। धीरे धीरे रबिन्दर रॉ की ओर आकृष्ट हुए । फिर भी, अपनी सैन्य पृष्ठभूमि और योग्यता के बावजूद, रबिंदर सिंह को सामान्य डेस्क नौकरियों में धकेल दिया गया। उन्हें प्रारम्भ में कोई गंभीरता से लेता भी नहीं था, परन्तु एक दिन…

कब और क्यों रबिंदर ने किया देश से विश्वासघात?

तो फिर ऐसा अदृश्य, जो रबिन्दर सिंह सीआईए का ‘ख़ास’ बन गया? क्या यह व्यक्तिगत द्वेष, अपने जीवन के प्रति गहरे असंतोष से प्रेरित था, या उसे “हनी ट्रैप” जैसी रणनीति के माध्यम से फंसाया गया था? आज भी इसका स्पष्ट शायद ही किसी को पता होगा, परन्तु एक बात स्पष्ट है : यह 1990 के दशक की शुरुआत में सीआईए की एक महिला केस अधिकारी के हाथों दमिश्क या हेग में स्थित रॉ स्टेशन पर हुआ हो सकता है। कुछ लोगों का सुझाव है कि रबिंदर सिंह, अपनी समृद्ध पृष्ठभूमि के साथ, सीआईए के लिए एक आसान टार्गेट नहीं थे। इसके बजाय, उसकी भर्ती एक सावधानीपूर्वक आयोजित, लंबा मामला प्रतीत हुआ, जिसमें हनी ट्रैप का घातक आकर्षण शामिल था।

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सीआईए के गुप्त संरक्षण के तहत, रबिंदर सिंह को अपने आकाओं से सीधे संपर्क किए बिना दस्तावेजों को प्रसारित करने में सावधानीपूर्वक प्रशिक्षण प्राप्त हुआ। विदेशी पोस्टिंग से लौटने पर भी ये गुप्त व्यवस्थाएँ जारी रहीं। विशेष रूप से, नेपाल की उनकी लगातार यात्राओं ने संदेह पैदा किया, सीआईए एजेंटों के साथ गुप्त मुलाकात और भुगतान की प्राप्ति का सुझाव दिया।

हालाँकि, उनकी बढ़ती संपत्ति ही एकमात्र खतरे का संकेत नहीं थी। संदेह तब बढ़ गया जब रबिंदर सिंह की दस्तावेजों की फोटोकॉपी करने की नियमित आदत असामान्य आवृत्ति के साथ होने लगी। इस विशिष्ट व्यवहार पर उनके कुछ साथी R&AW एजेंटों का भी ध्यान गया, परन्तु बिना ठोस दस्तावेज़ों के वे उसे हाथ भी नहीं लगा सकते थे।

रॉ के पूर्व उच्चाधिकारी अमर भूषण के अनुसार, जिन्होंने बाद में इसी विषय पर ‘एस्केप टू नोव्हेयर’ नामक पुस्तक लिखी, रबिंदर सिंह की गतिविधियों पर संदेह होने के बाद रॉ के काउंटर इंटेलिजेंस एंड सिक्योरिटी डिवीजन (सीआईएस) की निगरानी तेज़ हो गई। सीआईए की संबद्धता दिसंबर 2003 में सामने आई। जनवरी 2004 में सीआईएस ने गुप्त रूप से उनके कार्यालय और डिफेंस कॉलोनी स्थित उनके आवास पर तार लगा दिए, जिससे चौंकाने वाला सच सामने आया – कि रबिंदर सिंह न केवल एजेंसी के भीतर विभिन्न स्रोतों से खुफिया जानकारी एकत्र कर रहे थे, बल्कि गुप्त रूप से इसे सीआईए को आगे बढ़ा रहे थे।

न घर का रहा, न घाट का!

वाशिंगटन की सुबह के भयानक अंधेरे में, रवि मोहन और उनकी पत्नी, विजिता, डलेस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरे। सुबह के 3:40 बज रहे थे और जैसे ही वे विमान से उतरे, पैट्रिक बर्न्स नाम का एक व्यक्ति उनका इंतजार कर रहा था। जल्दबाजी में परिचय देकर, वह उन्हें दूर ले गया, कुशलतापूर्वक आप्रवासन और सीमा शुल्क को दरकिनार करते हुए, उन्हें मैरीलैंड के एकांत जंगल के बीचोंबीच ले गया। वहां, दुनिया से छिपकर, भगोड़े छाया के रूप में अपने नए जीवन का इंतजार कर रहे थे”।

यह सिर्फ एक उपन्यास का एक अंश नहीं है; यह रबिंदर सिंह की भयावह वास्तविकता थी, एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपने विश्वासघात के लिए भारी कीमत चुकाई।
कई लोगों को ये संदेह था कि रबिन्दर सिंह के वापस न आने पाने में तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, ब्रजेश मिश्रा की भी भूमिका थी. उन्होंने सीआईए सहयोग के बारे में जानने के बाद भी कथित तौर पर जानबूझकर रबिंदर की गिरफ्तारी में देरी की थी। सूत्रों ने संकेत दिया कि मिश्रा ने कोई कार्रवाई नहीं की और ऐसा करके सीआईए को एक सफल जासूसी तख्तापलट को अंजाम देने की अनुमति दी, जिससे उनके नेटवर्क को उजागर होने से बचाया जा सके।

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परन्तु अमर भूषण ऐसा नहीं मानते. उनकी माने तो निस्संदेह रबिन्दर का सीआईए एजेंट निकलना रॉ के लिए झटका था, परन्तु उसे ऐसे क्षितिज पर छोड़ दिया गया, जहाँ से वह या तो अपने ही साथियों द्वारा मारा जा सकता था, या फिर उन्ही का हो जाता, जिसके कारण उसने भारत से विश्वासघात करने की सोची भी. ये निर्णय सरल नहीं था, पर अमर भूषण सहित उच्चाधिकारियों के पास संभवत कोई अन्य विकल्प भी नहीं बचा था.

रबिंदर सिंह की विश्वासघाती यात्रा के लिए उसे कोई पुरस्कार नहीं मिले। जासूसी की गलाकाट दुनिया में, उसने अपने आकाओं के लिए अपनी उपयोगिता खो दी थी। शायद इसीलिए ख़ुफ़िया में एक संवाद है, “ज़िंदा आदमी बस एक मांस का टुकड़ा है आप लोगों के लिए, जब तक काम आये, तब तक एसेट, वरना लायबिलिटी!: संयुक्त राज्य अमेरिका में जीवन उस ग्लैमरस अस्तित्व से बहुत दूर था जिसकी रबिंदर ने कल्पना की होगी।

इस दुखदायी यात्रा का अंत 2016 में हुआ, जब ये सामने आया कि मैरीलैंड में एक दुखद सड़क दुर्घटना ने रबिन्दर सिंह की जान ले ली, और इसके साथ ही, उसका केस परमानेंटली बंद हो गया। रबिंदर सिंह की कहानी इस बात की याद दिलाती है कि जासूसी किस हद तक सबसे सुरक्षित संगठनों और मानव प्रेरणा के स्थायी रहस्य में भी प्रवेश कर सकती है। उनकी कहानी जटिल है, परन्तु मानव विकल्पों की अप्रत्याशित प्रकृति और राष्ट्रों और जीवन पर उनके गहरे प्रभाव का एक प्रमाण है।

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