लोकसभा चुनाव 2024 में अब कुछ माह ही शेष बचे हैं। चुनाव को लेकर एक तरफ जहां सत्ताधारी दल भाजपा ने अपनी रणनीति बनानी शुरू कर दी है, तो वहीं विपक्षी खेमा (इंडी गठबंधन) अभी तक आपसी मतभेद दूर नहीं कर पाया है।
इंडी गठबंधन को खड़ा करने वाले नीतिश कुमार भाजपा के साथ जा जुके हैं। ममता बनर्जी और अरवींद केजरीवाल ने अपने-अपने राज्यों में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा पहले ही कर चुके हैं। इसी बीच आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी ने भी इंडी गठबंधन का साथ छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया है। मतलब विपक्ष का बिखराव देखकर ऐसा लग रहा है मानों चुनाव से पहले ही इन्होंने हार मान ली हो।
जेदयू ने तो कांग्रेस पर गठबंधन पर कब्जा करने तक का आरोप लगाया है। जेडीयू के प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा कि साजिश के तहत कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम इंडी गठबंधन अध्यक्ष के रूप में प्रस्तावित किया गया था। त्यागी ने कहा कि, “हमें अफसोस के साथ-साथ राहत भी है कि हमारे नेता, जो इंडिया गठबंधन को एक साथ लाए थे, इससे बाहर हो गए हैं।”
वहीं, जेदयू के अन्य नेताओं ने विपक्षी गुट में टूट के लिए कांग्रेस पर निशाना साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जदयू प्रवक्ता राजीब रंजन ने तो कांग्रेस की तुलना राक्षस भस्मासुर से की, जिसके स्पर्श मात्र से सब कुछ नष्ट हो जाता है।
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कब शुरू हुआ टकराव
दरअसल, विपक्षी गठबंधन के दलों में अभी तक सीट शेयरिंग पर सहमति नहीं बन पाई है। इसके चलते कई पार्टियां इस गठबंधन से दूरी बनाती दिख रही हैं। दरअसल, अनिश्चितता और असमंजस गठबंधन में तभी से दिखने लगे थे जब 2023 के आखिर में हुए विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सीट बंटवारे की बातचीत एकतरफा ढंग से स्थगित कर दी गई। इसके पीछे यह दलील जरूर रही कि गठबंधन तो लोकसभा चुनावों के लिए प्रस्तावित था, सो विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ने में कोई बुराई नहीं।
लेकिन माना यही गया कि कांग्रेस नेतृत्व विधानसभा चुनावों के बेहतर नतीजों के आधार पर सीट बंटवारे की सौदेबाजी में अपना हाथ ऊपर रखना चाहता था। यह अलग बात है कि नतीजे उसकी उम्मीदों के अनुरूप नहीं आए। लेकिन कांग्रेस के इस रुख ने गठबंधन के कई घटक दलों को यह शिकायत करने का अपेक्षाकृत ठोस आधार दे दिया कि पार्टी गठबंधन को लेकर गंभीर नहीं है।
कांग्रेस के कारण टूटा गठबंधन
समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि कांग्रेस को जमीनी हकीकत को समझना होगा। वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने सपा गठबंधन में 114 सीट पर चुनाव लड़ा था, पर वह सिर्फ 7 सीट जीत पाई थी। इसी तरह 2014 लोकसभा चुनाव में 2 और 2019 में सिर्फ 1 सीट मिली थी। ऐसे में कांग्रेस को अपनी स्थिति को समझते हुए ही सीटों पर दावेदारी करनी चाहिए।
राहुल गांधी ने जब भारत जोड़ो यात्रा शुरू की थी, तो इंडी एलायंस में 29 पार्टियां थी, कुछ ही दिनों में 29 से घटकर अब 24 रह गई हैं। इनमें से छह पार्टियां तो लेफ्ट विंग की हैं, जिनका प्रभाव सिर्फ केरल में बचा है। इन लेफ्ट पार्टियों ने पहले ही क्लीयर कर दिया है कि वह केरल में कांग्रेस के साथ सीट शेयरिंग नहीं करेगी। तो इन छह को भी निकाल दीजिए। बाकी बची 18 पार्टियां, इनमें से 8 पार्टियों की लोकसभा में एक सीट भी नहीं है, और एक सीट जीतने की हैसियत भी नहीं है।
अब वे दस पार्टियां भी सुन लीजिए, कांग्रेस, डीएमके, समाजवादी पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस, उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की एनसीपी। लोकसभा में शून्य सीट वाली पार्टियों में बिहार की बड़ी पार्टी आरजेडी भी है, क्योंकि पिछली बार वह एक भी सीट नहीं जीती थी। पिछली बार भी बिहार में कांग्रेस, वामपंथियों और कांग्रेस का चुनावी गठबंधन था, इनमें से सिर्फ कांग्रेस एक सीट जीती थी, बाकी 39 सीटें एनडीए जीता था।
अब आप इसी से अंदाज लगा लीजिए कि इंडी एलायंस के पल्ले क्या बचा है। जो यूपीए पहले था, वही बचा है, उसमें सिर्फ अखिलेश यादव नए जुड़े हैं, जिनकी समाजवादी पार्टी पिछली बार मायावती से गठबंधन के कारण पांच सीटें जीती थी।
गलत मुद्दे पर बना गठबंधन
एलायंस करीब करीब धराशाही है, क्योंकि एलायंस की नींव ही गलत मुद्दे पर पड़ी थी। नींव यह थी कि मोदी अपने विरोधियों के खिलाफ ईडी, सीबीआई का इस्तेमाल करके सब को बेनकाब कर रहे हैं| सबके भ्रष्टाचार को उजागर करके सबको जेल में डालने की साजिश रच रहे हैं। इसलिए सबको एकजुट हो कर मोदी को हटाना चाहिए। तो उद्देश्य क्या था, उद्देश्य यह था कि मोदी रहे तो उनकी लूट खसोट हमेशा के लिए बंद हो जाएगी।
दूसरे शब्दों में कहें, तो इंडी एलायंस भ्रष्टाचार के ठोस आधार पर खड़ा था। सब को लगता था कि मोदी विरोधी वोटों का विभाजन रोक कर वे मोदी को हरा सकते हैं। एलायंस बनने का दूसरा ठोस आधार यह था कि कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद का दावा छोड़ दिया था। लेकिन जैसे ही एलायंस बना राहुल गांधी फिर से यात्रा पर निकल पड़े।
संकेत साफ था कि कांग्रेस बाकी दलों का इस्तेमाल करके सत्ता हासिल करना चाहती है। इनमें से ज्यादातर क्षेत्रीय दलों का वोट कांग्रेस विरोधी वोट है। जैसे नीतीश कुमार और जयंत चौधरी, या फिर ममता बनर्जी और केजरीवाल। तो ये सभी नेता अपने वोट से कांग्रेस को क्यों मजबूत होने दें। इसलिए इन सब ने गठबंधन को बाय-बाय बोल दिया।
मोदी विरोध में बना गठबंधन
वहीं, सिर्फ मोदी विरोधी वोटों का विभाजन रोकना भी उद्देश्य होता, तो बुरी बात नहीं थी| देश में ऐसा पहले भी हो चुका है, जब कांग्रेस विरोध के नाम पर परस्पर विरोधी विचारधारा वाले नेता एकत्र हुए थे। 1967 से लेकर 1977 तक ऐसे कई प्रयोग हुए। फिर 1996 से लेकर 2014 तक कई प्रयोग हुए। लेकिन वे सभी प्रयोग किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं थे।
पहली बार यह गठबंधन किसी व्यक्ति से नफरत पर आधारित था। इसलिए वैसे नतीजे भी नहीं दिखाई दे रहे थे, जैसे 1977 या 1996 और 1998 में बने कांग्रेस विरोधी गठबन्धनों से निकल कर आए थे। इसलिए सब को लगा कि कांग्रेस ने उनका इस्तेमाल करके राहुल गांधी को रीलांच कर दिया है। जबकि नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल खुद विपक्ष का प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे थे।
नीतीश कुमार के बारे में तो साफ ही था कि कि वह प्रधानमंत्री का सपना लेकर ही 2022 में एनडीए छोड़ गए थे| यह भी किसी से छिपा नहीं कि ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल ने मिल कर नीतीश कुमार और राहुल गांधी का रास्ता रोकने के लिए ही मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए प्रस्तावित कर दिया था। तो कुल मिलाकर हुआ यह कि राहुल गांधी के रीलांच ने इंडी एलायंस के चीथड़े चीथड़े उड़ा दिए हैं।