जयपुर के 14 वर्षीय किशोर योगेश सिंह की हाल ही में दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। 21 अप्रैल, 2024 को अमरोहा के एक बच्चे अमन को मोबाइल देखते-देखते दिल का दौरा पड़ा और उसकी मौत हो गई। इसी तरह, गत मार्च में पंजाब के पटियाला में केक खाने से 10 वर्ष की बच्ची की मौत हो गई। देखने में ये घटनाएं भले सामान्य लगें, लेकिन इन्हें बच्चों में बढ़ रहे मोटापे से जोड़ेंगे तो भारत के भविष्य की डरावनी तस्वीर सामने आएगी।
बच्चों में बढ़ते मोटापे की समस्या के मामलों ने भारत को अमेरिका, चीन के बाद तीसरे स्थान पर पहुंचा दिया है। बच्चे जिस रफ्तार से मीठे और जंक फूड के दीवाने हो रहे हैं, उससे जल्द ही ऐसे मामलों में और तेज वृद्धि की संभावना है।
अधिक चीनी जानलेवा
भारत में मॉर्डन मेडिसन के चिकित्सक नवजात या छोटे बच्चों को सेरेलक खाने की सलाह देते हैं। बच्चा थोड़ा बड़ा होता है, तो माता-पिता भी उसे शौक से डिब्बाबंद जूस, कोल्ड ड्रिंक्स आदि पिलाते हैं, जिनमें चीनी की मात्रा बहुत अधिक होती है।
नेस्ले का बेबी फूड सेरेलक नवजात शिशुओं को मीठे की लत का शिकार बनाने में सबसे आगे है। यह खुलासा स्विट्जरलैंड के एक एनजीओ ‘पब्लिक आई’ ने किया है। ‘पब्लिक आई’ के साथ जांच में ज्यूरिख स्थित वॉचडॉग और इंटरनेशनल बेबी फूड एक्शन नेटवर्क (आईबीएफएएन) भी शामिल थे।
इस संयुक्त टीम ने एशिया, लातिनी अमेरिका और अफ्रीका में नेस्ले द्वारा बेचे जा रहे 150 उत्पादों की जांच की, जिनमें प्रसिद्ध शिशु आहार सेरेलक और निडो भी शामिल हैं। जांच के लिए नमूने बेल्जियम की एक प्रयोगशाला में भेजे गए।
जांच में पता चला कि भारत, बांग्लादेश और दूसरे कई एशियाई व अफ्रीकी देशों में बेचे जाने वाले सेरेलक की हर खुराक में तीन ग्राम से अधिक चीनी होती है, जो बच्चों के लिए बेहद खतरनाक है। आश्चर्य की बात तये यह कि अफ्रीकी देशों में भी नेस्ले बच्चों को प्रति खुराक 5 से 6 ग्राम चीनी परोस रही है, लेकिन यूरोपीय देशों में वह सेरेलक में चीनी बिल्कुल नहीं मिला।
सेरेलक के विवादों में फंसने के बाद कंपनी के शेयरों में तीन वर्ष की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई। 18 अप्रैल को इसके शेयर 5 प्रतिशत से अधिक तक गिर गए, लेकिन बाद में संभल गए। इस तरह पहले दिन शेयरों में 3 प्रतिशत और दूसरे दिन यानी 19 अप्रैल को 3.5 प्रतिशत की गिरावट आई।
नेस्ले भारत में हर वर्ष 20,000 करोड़ रुपये से अधिक के सेरेलक बेचती है। इससे पहले 2015 में नेस्ले के लोकप्रिय उत्पाद मैगी में सीसा पाए जाने के खुलासे के बाद उसे बाजार से 451.6 करोड़ रुपये के नूडल्स हटाने पड़े थे। इससे दूसरी तिमाही में कंपनी को 64.40 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था, जो 17 वर्ष में पहला तिमाही घाटा था।
सरकार का सख्त रुख
बच्चों के समग्र विकास को प्रभावित करने वाले और बीमार करने वाले सेरेलैक के प्रति भी सरकार गंभीर है और उसने इसके उत्पादों की जांच शुरू कर दी है। राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग ने भी इसका संज्ञान लिया है और खाद्य सुरक्षा नियामक एफएसएआई से पूछा है कि क्या नेस्ले और दूसरी कंपनियों ने बच्चों के उत्पाद बनाने के लिए दिशानिर्देश मांगे हैं? साथ ही, यह भी पूछा है कि क्या इन कंपनियों के उत्पाद उसके दिशानिर्देशों के अनुरूप हैं या नहीं?
आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो के अनुसार, जिस तरह की रिपोर्ट आई है, वह बहुत चिंताजनक है। अगर किसी भी कंपनी के उत्पादों में मीठा तय सीमा से बहुत ज्यादा है, तो इसे तुरंत रोका जाना चाहिए, नहीं तो हमारे बच्चे सिर्फ बीमार ही नहीं होंगे, बलिक जब वे देश के लिए काम करने की स्थिति में पहुंचेंगे तो अपनी क्षमता के मुताबिक काम नहीं कर पाएंगे और इससे देश को बड़ा नुकसान होगा। यह मामला सिर्फ एक बच्चे का नहीं है, बल्कि देश के भविष्य से जुड़ा हुआ है।
बड़ा सवाल यह है कि जिस भारत में 1978 से पहले मधुमेह के शायद इक्का-दुक्का मरीज ही होते थे, वह कैसे दुनिया का ‘डाइबिटिज कैपिटल’ कहलाने लगा है। बीते 30 वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि भारतीय बच्चों को मीठे की लत लग गई? इसका जवाब पिछले कुछ सालों में एडलट्रेडिड ड्रिंक्स, जैसे पेप्सी, कोका कोला और सेरेलक जैसे अतिरिक्त चीनी वाले उत्पादों में मिल सकता है।
कहीं साजिश तो नहीं!
नेस्ले का भारत, एशियाई और अफ्रीकी देशों के प्रति रवैया कोका कोला और पेप्सी की तरह है, जो भारत में अत्यधिक मीठा ड्रिंक्स बेच रही थीं, जबकि यूरोप और अमेरिका में बहुत ही कम चीनी का प्रयोग कर रही थीं। प्रश्न केवल खाद्य एवं पेय उत्पादों में चीनी मिलाने का नहीं है, बल्कि बच्चों को मीठे की लत लगाने का भी है।
यही नेस्ले अपने देश स्विट्जरलैंड में जो सेरेलक बेचती है, उसमें चीनी नहीं मिलाती। लेकिन भारत में वह अतिरिक्त चीनी क्यों मिला रही है? इसका बच्चों, युवाओं और वयस्कों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है? भारत में 1990 से लेकर अब तक बच्चों में मोटापा 4.2 गुना बढ़ गया है। यही स्थिति रही तो 2030 तक 10 मोटे बच्चों में से एक भारत से होगा। इसका सबसे बड़ा कारण है मीठे की आदत।
अधिक मीठा खाने से बच्चों में दिल की बीमारी, मुहांसे, पाचन संबंधी समस्याएं, डिमेंशिया और किडनी सहित किडनी संबंधी बीमारियां होने का खतरा बढ़ जाता है। मीठा दुनिया का सबसे ज्य़ादा ‘एडिक्टिड फूड’ है। इसे धीमा जहर भी कहा जाता है, जो बच्चों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास को बाधित कर सकता है।
क्या कहते हैं डॉक्टर?
दुनियाभर में डॉक्टर 6 माह के बाद ही बच्चों को ठोस आहार देने की सलाह देते हैं। अमृता अस्पताल में वरिष्ठ नियोनेटोलॉजी एवं पीडियाट्रिक सलाहकार हेमंत शर्मा कहते हैं कि अधिक मीठा खाने से बच्चों में मोटापा, सुस्ती, मधुमेह, उच्च रक्तचाप के अलावा आईक्यू कम होने सहित कई तरह की गंभीर समस्याएं पैदा हो सकती हैं।
सूरत के बाल रोग और नवजात शिशु विशेषज्ञ डॉ. पवन मंडाविया के अनुसार, दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों को अधिक मात्रा में चीनी नहीं देनी चाहिए। इससे उनमें अवसाद, दांतों में सड़न के अलावा टाइप-2 मधुमेह, रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने के अलावा दूसरी गंभीर बीमारियां भी हो सकती हैं।
उनका कहना है कि जिन बच्चों को मीठा खाने की आदत हो जाती है, वे मां का दूध नहीं पीते। मां का दूध उनके विकास के लिए तो जरूरी है ही, उनके शरीर में प्रारंभिक एंटीबॉडी की आपूर्ति भी करता है।
शोध के नतीजे
पिछले माह ‘द लैंसेट’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, बच्चों में मोटापा 1990 से 2022 तक 4.5 गुना तक बढ़ा है। शोधकर्ताओं का कहना है कि जंक-प्रोसेस्ड फूड्स के अलावा बच्चों का बढ़ा स्क्रीन टाइम भी इसका प्रमुख कारण हो सकता है। हालांकि छोटे बच्चों के मामले में इसका सबसे प्रमुख कारण प्रसंस्कृत खाद्य है, जिसमें अत्यधिक मीठा सेरेलक भी एक कारण है।
ग्लोबल बर्डन आफ डिजीज के अनुसार, दुनियाभर में 2.27 लाख बच्चे मधुमेह की चपेट में हैं, जिनमें सबसे अधिक यानी 44,000 बच्चे भारत के हैं। दुनियाभर में मधुमेह से जितने बच्चों की मौत हुई, उनमें 12 प्रतिशत भारतीय हैं। इस बीमारी के कारण बच्चों की औसत आयु 2 साल कम हो गई है। भारत में 1990 के मुकाबले 1 से 4 वर्ष के बच्चों में मधुमेह के मामले 30 प्रतिशत बढ़े हैं, जबकि 10 से 14 वर्ष के बच्चों में 52 प्रतिशत।
भारत में बच्चों में दोनों तरह के मधुमेह यानी टाइप-1, जिसमें शरीर में इंसुलिन बननी बंद हो जाती है। यह लाइलाज बीमारी है और जिंदा रहने के लिए बच्चों को पूरी उम्र इंसुलिन लेनी पड़ती है। वहीं, टाइप-2 मधुमेह में इंसुलिन कम बनता है। विकास की उम्र में बच्चे बीमारियों से जूझ रहे हैं। इसके कारण उनका समग्र विकास ही नहीं हो पा रहा, तो वे ठीक से कैसे पढ़ सकेंगे।
दरअसल जब हम मीठा खाते हैं, तो शरीर में बनने वाला इंसुलिन इसके साथ प्रक्रिया कर इसे शरीर के लिए ऊर्जा में बदल देता है, लेकिन अगर इंसुलिन कम मात्रा में बने या बने ही न, तो यह मीठा सीधे खून में मिल जाता है और उसे दूषित कर देता है। इससे शरीर के अंग जैसे किडनी, दिल आदि धीरे-धीरे काम करना बंद करने लगते हैं और मरीज की मौत तक हो जाती है।
इंटनेशनल डायबिटिज फेडरेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 7.4 करोड़ से अधिक लोग मधुमेह से पीड़ित हैं। यानी भारत इस मामले में विश्व में दूसरे स्थान पर है। यही हाल रहा तो 2029 तक ही मधुमेह मरीजों के मामले में भारत पहले स्थान पर होगा।
देश में हर वर्ष 4 लाख से अधिक लोग मधुमेह से मरते हैं। मोटापा बढ़ने से ह्दयाघात, मेटाबॉलिज्म डिसआर्डर और कैंसर की तो बात ही नहीं हो रही है। एक बार किसी ने मधुमेह की दवाइयां खानी शुरू कर दी, तो पूरी जिंदगी उसे दवाओं पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
दूसरी बात, दुनियाभर की फार्मा कंपनियों को सबसे अधिक लाभ मधुमेह दवाओं से ही होता है। एक अनुमान के अनुसार, मधुमेह की दवाओं का वैश्विक बाजार लगभग 87 अरब डॉलर यानी सात लाख करोड़ रुपये से अधिक का है। इसमें अकेले भारत की हिस्सेदारी 20,000 करोड़ रुपये से अधिक है।
भारत में जिस तेजी से मधुमेह के मरीज बढ़ रहे हैं, उससे जल्दी ही दवा खपत में अमेरिका के बाद यह दूसरे स्थान पर आ जाएगा। उधर नेस्ले, बॉर्नविटा जैसी कंपनियां अधिक चीनी वाले उत्पाद बेचकर इस संभावना को बल ही तो प्रदान कर रही हैं।