भारतीय समाज और संस्कृति में सदियों से एक गहरा गर्व बसा हुआ है। यह गर्व उस सभ्यता और संस्कृति पर है जिसने हजारों सालों से न केवल भारतवर्ष को बल्कि समूचे विश्व को ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य, और दर्शन में अग्रणी भूमिका निभाने का अवसर दिया है। लेकिन आज के समय में, जब हम अपनी पहचान और संस्कृति की बात करते हैं, तो एक वर्ग ऐसा भी है जो ‘भारत‘ नाम से चिढ़ता है और इसे लेकर सांस्कृतिक गौरव को समझने में असमर्थ है।
विदेशी एक्टिविस्ट और एक तरह का एजेंडा चलाने वाले लोग हमेशा इस प्रयास में लगे रहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को बदनाम कैसे किया जाए। वे यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है, और इसके लिए वे बड़ा ही ‘सेलेक्टिव’ दृष्टिकोण अपनाते हैं।
गुरुवार, 22 जून 2024 को सोशल मीडिया पर ऐसा ही कुछ देखने को मिला। सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने एक पोस्ट किया, जिसमें उन्होंने भारत का उल्लेख किया। इस पोस्ट के बाद, सद्गुरु को ट्रोल किया जाने लगा, क्योंकि उन्होंने भारत की बात की थी। यह ट्रोलिंग इस बात का सबूत है कि कुछ लोगों के लिए भारत नाम से जुड़ी किसी भी बात को सहन करना मुश्किल हो जाता है।
हमारे संविधान में लिखा है “India That Is Bharat!” लेकिन जैसे ही कोई भारत नाम लेता है, वैसे ही एक वर्ग को पीड़ा हो जाती है, क्योंकि वे भारत को केवल उस इंडिया के रूप में देखते हैं, जिसका जन्म 1947 में हुआ। वे उस प्राचीन भारत को स्वीकार नहीं करते, जिसका उल्लेख मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका में किया था और जिसका उल्लेख कई ग्रीक एवं अन्य भाषा के विद्वानों ने किया था। उन्हें उस इंडिया से प्यार है, जिसकी पहचान एक औपनिवेशिक गुलाम की है।
भारत, जिसका उल्लेख शताब्दियों से होता आ रहा है और जिसका उल्लेख विष्णु पुराण में भी मिलता है: “उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रे: चैव दक्षिणम्। वर्षम् तद् भारतम् नाम भारती यत्र संतति:”। इस प्राचीन भारत की पहचान से इन अभिव्यक्ति के ठेकेदारों को इतनी घृणा है कि यदि कोई इसका उल्लेख भी कर दे, तो उसे ही दोषी ठहरा दिया जाता है कि वे भारत को बांटने का प्रयास कर रहे हैं। हाल ही में, एनसीईआरटी समिति ने स्कूलों की सभी पाठ्यपुस्तकों में इंडिया शब्द को भारत से बदलने की सलाह दी थी।
सद्गुरु ने इस पर अपनी राय देते हुए लिखा था कि “हमें अंग्रेजों के चले जाने के बाद ही अपना नाम ‘भारत’ वापस ले लेना चाहिए था। नाम से सब कुछ नहीं होता, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि देश का नाम इस तरह रखा जाए कि वह सभी के दिलों में गूंजे।
भले ही राष्ट्र हमारे लिए सब कुछ है, लेकिन ‘इंडिया शब्द का कोई मतलब नहीं है। अगर हम आधिकारिक तौर पर राष्ट्र का नाम बदलने में असमर्थ या अनिच्छुक हैं, तो अब समय आ गया है कि हम कम से कम ‘भारत’ को अपनी दैनिक बोलचाल में शामिल करें। युवा पीढ़ी को पता होना चाहिए कि भारत का अस्तित्व भारत के जन्म से बहुत पहले से है। बधाई @ncert”
सद्गुरु की इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर एक बहस छिड़ गई। यूटूबर ध्रुव राठी ने लिखा कि ‘क्या आप अपना इंडिया विरोधी एजेंडा बंद कर सकते हैं? हर कोई जानता है कि भारत और इंडिया दोनों ही हमारे संविधान में हैं, और आप राजनीति के लिए बांटो और शासन करो का गंदा खेल खेल रहे हैं।’
वहीं ध्रुव राठी को जवाब देते हुए फ्लाइंग बीस्ट के नाम से पोस्ट करने वाले गौरव तनेजा ने एक्स पर पोस्ट किया, ‘आखिर इंटरनेट पर विचारों की विविधता क्यों नहीं रह सकती है? क्यों कुछ विदेशी इंटरनेट पर हर कंटेन्ट को नियंत्रित करना चाहते हैं?’
यहां पर यह स्पष्ट होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इन कथित ठेकेदारों का असली चेहरा क्या है। वे हर उस व्यक्ति की बोलने की आजादी को रौंदने लगते हैं, जो उनके विचारों का नहीं हो, या फिर उनके एजेंडे का समर्थन नहीं करता हो। सद्गुरु की पोस्ट में आखिर भारत विरोधी एजेंडा कहां से आ गया? हां, उस इंडिया का अवश्य विरोध है जिसकी पहचान मात्र अंग्रेजों के उपनिवेश के रूप में है। यदि किसी भी देश के कई नाम होते हैं, तो वह उसकी प्राचीनता का संकेत करते हैं, जैसे भारत।
भारत का नाम जंबू द्वीप, भारत और ग्रीस आदि देशों से आने वाले यात्रियों की दृष्टि में इंडिया था। मगर यह भी सत्य है कि नाम हमेशा वही होना चाहिए, जो उसके सांस्कृतिक बोध को आत्मगौरव के साथ जीवित रखे। सद्गुरु ने इसी बोध के फलस्वरूप इच्छा प्रकट की थी।
इसमें ट्रोलिंग की आवश्यकता नहीं थी और न ही हो सकती थी। परंतु भारत का विरोध करने वाले और मात्र औपनिवेशिक इंडिया को अपनी पहचान बताने वाले वर्ग के लिए सांस्कृतिक बोध और भारत के अस्तित्व का बोध होना ही सबसे बड़ा अपराध है।
सद्गुरु ने जो मुद्दा उठाया, वह हमारी सांस्कृतिक पहचान और गौरव से जुड़ा है। यह उन लोगों के लिए एक चुनौती है जो अपनी पहचान को केवल औपनिवेशिक इतिहास तक सीमित रखना चाहते हैं। हमें इस पर विचार करने की आवश्यकता है कि हमारी पहचान और गौरव किसमें निहित है।
‘भारत’ नाम का महत्व और उसकी प्राचीनता को समझना और अपनाना समय की मांग है। केवल नाम बदलने से सब कुछ नहीं बदलता, लेकिन यह एक कदम है जो हमारी सांस्कृतिक जड़ों और आत्मगौरव को मजबूत कर सकता है।
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