कनाडा में महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा के साथ तोड़फोड़ की गई है। कनाडा में 8 लाख के करीब सिख जनसंख्या है, ऐसे में इस तरह की हरकत से उनकी भावनाओं को ठेस पहुँची है। फिलिस्तीन के समर्थकों ने इस करतूत को अंजाम दिया है। ब्रैंपटन के एक चौराहे पर इस प्रतिमा को स्थापित किया गया था। इस घटना का वीडियो भी सोशल मीडिया में वायरल हुआ है। स्थानीय सिख समुदाय में आक्रोश का माहौल है। वीडियो में देखा जा सकता है कि कुछ लोग फिलिस्तीनी झंडा लेकर घोड़े पर सवार सिख सम्राट की प्रतिमा के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं, अपमान कर रहे हैं।
बार-बार महाराजा रणजीत सिंह का अपमान
महाराणा रणजीत सिंह ने न सिर्फ अंग्रेजों के साम्राज्यवादी विस्तार को रोका था, बल्कि अफगानों के भी नाक में दम किया था। वैसे ये पहली बार नहीं है जब उनकी प्रतिमा का इस तरह से अपमान किया गया हो। इससे पहले पाकिस्तान में ऐसा किया जा चुका है। लाहौर में उनकी समाधि है। उसके पास उनकी एक प्रतिमा लगाई गई थी, जिसे दो-दो बार तोड़ डाला गया। इसमें पाकिस्तान स्थित कट्टरपंथी संगठन ‘तहरीक-ए-लब्बैक’ का नाम सामने आया था। बाद में करतारपुर साहिब में भारत और UK के सिखों के मिले-जुले प्रयासों के बाद एक नई प्रतिमा स्थापित की गई।
कनाडा में महाराजा रणजीत सिंह की मूर्ती के साथ बेअदबी हो रही है लेकिन खलिस्तानी फट्टू इसपर कुछ न बोलेंगे क्योंकि बेअदबी करने वाले इनके जिहादी जीजे हैं।
इसी तरह तो ये चुप रहते हैं जब इनका बाप पाकिस्तान भी सिक्ख पंथ या सिक्खों पर जुल्म करता है।
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— Sanatani Shakti (@SanataniShaktii) September 28, 2024
महाराजा रणजीत सिंह की मूर्ति को बार-बार इसीलिए भी निशाना बनाया जा रहा है, क्योंकि वो विजय का प्रतीक हैं। जिस तरह सिख गुरु संघर्ष और बलिदान के प्रतीक हैं, रणजीत सिंह एक योद्धा व विजयी शासक के रूप में याद किए जाते रहे हैं। उनकी राजधानी लाहौर में थी, जो आज इस्लामी मुल्क पाकिस्तान का हिस्सा है। जो सोच बार-बार उनकी मूर्ति को तबाह करती है, ये वही सोच है जिसके कारण गुरुओं को बलिदान देना पड़ा था। जो सोच रणजीत सिंह की मूर्ति को देखना नहीं चाहती है, ये वही सोच है जो हर मूर्ति को ‘बुत’ कहती है और ‘बुतपरस्ती’ को हराम मानती है।
आखिर रणजीत सिंह से इतनी जलन क्यों? इसके लिए हमें सबसे पहले समझना पड़ेगा कि वो थे और उन्होंने क्या-क्या किया था। सन् 1780 में जन्मे रणजीत सिंह के पिता सरदार महासिंह एक छोटे से राज्य के मुखिया थे। बाल्यकाल से ही उन्होंने अपने पिता को युद्ध लड़ते हुए ही देखा, साथ में लड़ा भी। 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने पिता को खोने के बाद सत्ता तो सँभाली, लेकिन ये वो दौर था जब अफगान शासक जमान शाह पंजाब पर लगातार हमला करता रहता था। रणजीत सिंह ने उसके तोपों को अपने नियंत्रण में लिया, और इसे वापस करने के बदले लाहौर लिया।
युद्ध और कूटनीति के जरिए ले आए कोहिनूर
उन्होंने सिखों के सबसे पवित्र स्थल अमृतसर को भी अपने शासन में लिया। अफगानों को हार के बाद अपने कुछ प्रान्त रणजीत सिंह को सौंपने पड़े, ये बात आज तक कुछ लोगों को पचती नहीं है। यही कारण है कि वो रणजीत सिंह से नफरत करते हैं। ऊपर से उन्हें तलवार लेकर घोड़े पर युद्धरत बैठे हुए देख कर उनके सीने में आग लग जाती है। एक विजेता से हारे हुए लोगों का डर है ये, जो भारत देश से नफरत रखते हैं। उन्हें जमरूद का युद्ध याद आ जाता है। वो युद्ध, जिसमें उन्होंने पेशावर घाटी के अलावा कई पश्तून इलाक़ों को भी अपने साम्राज्य में मिलाया था।
आज जो काबुल अफगानिस्तान की राजधानी बनी हुई है, वहीं रणजीत सिंह का विजय मार्च निकला था। जब तक वो रहे, अंग्रेजों की हिम्मत नहीं हुई उनके साम्राज्य में गड़बड़ी करने की। उनके निधन के बाद ही अंग्रेज लाहौर पर नियंत्रण में कामयाब हो पाए। रणजीत सिंह कोहिनूर धारण करते थे, वो नायाब हीरा जो कभी नादिर शाह दिल्ली से लूट कर ले गया था। इसे अफगानिस्तान से वापस लाने के लिए भी रणजीत सिंह ने युद्ध से कूटनीति तक आजमाया। कहानी कुछ यूँ है कि शाह शुजाउल मुल्क अफगानिस्तान का अमीर था। उसके भाई शाह महमूद ने उसे अपदस्थ कर कश्मीर में कैद कर दिया। शाह शुजा की बीवी वफ़ा बेगम ने लाहौर में शरण ली। रणजीत सिंह ने उसके कैद शौहर को छुड़ाया और बदले में उनसे कोहिनूर लिया। इतना ही नहीं, महाराजा रणजीत सिंह सोमनाथ मंदिर के शिवलिंग का वो हिस्सा भी वापस अपने देश में लाना चाहते थे, जिसे महमूद गजनी अपने साथ ले गया था। अपने अंतिम क्षणों में महाराजा चाहते थे कि कोहिनूर हीरा को जगन्नाथपुरी मंदिर को दान में दे दिया जाए।
कुछ इस तरह मुल्तान में चलाया विजय अभियान
कसूर के नवाब कुतुबुद्दीन शाह और झांग के अहमद शाह सियाल को भी महाराजा रणजीत सिंह ने हराया था। इन दोनों ने बाद में मुल्तान में मुजफ्फर शाह के राज्य में शरण ली। सन् 1810 में रणजीत सिंह ने सन्देश भेजा कि मुल्तान उन्हें सौंपा जाए, मना करने पर मुजफ्फर खान को हमले का सामना करना पड़ा और इस महाराजा खुद सेना के साथ मुल्तान पहुँच गए। मुजफ्फर खान को खुद को किले में कैद करना पड़ा। किले को न भेद पाने के कारण लाहौर दरबार की सेना को वापस लौटना पड़ा। लेकिन, महाराजा रणजीत सिंह एक बार जो ठान लेते थे वो कर के ही दम लेते थे।
सन् 1818 में दरबार की सेना फिर मुल्तान लौटी। मुजफ्फरगढ़ और खानगढ़ के बाद उन्होंने मुल्तान को अपने कब्जे में लिया तो नवाब ने फिर खुद को किले में कैद कर लिया। हालाँकि, अकालियों ने किसी तरह किले के एक दरवाजे पर कब्ज़ा करने में सफलता पाई। नवाब अपने 8 बेटों और फ़ौज के साथ लड़ने के लिए किया। नवाब मारा गया, साथ में उसके 5 बेटे भी गए। एक बुरी तरह घायल हुआ, बाकी 2 ने आत्मसमर्पण कर के अपनी जान बचाई। महाराजा ने अपनी सेना को आदेश दिया था कि मुल्तान में तबाही न मचाई जाए और लूटपाट न की जाए।
सिखों को भड़काते हैं, उनके महाराजा का अपमान करते हैं
तो ऐसे थे महाराजा रणजीत सिंह। जिस लाहौर में उनकी राजधानी थी और जिस मुल्तान में उन्होंने विजय पताका फहराई, उन शहरों का इस्लामीकरण हो गया और रणजीत सिंह के इतिहास को मिटाने की कोशिश की गई। लेकिन, रण के लिए ललकारते हुए उनकी मूर्ति को देख कर उनलोगों को आज भी परेशानी होती है, जो इस हार को अपनी हार मानते हैं। उनकी नज़र में महाराजा की मूर्ति की स्थापना ‘बुतपरस्ती’ है और खुद महाराजा ‘काफिर’। अब भले किसी ‘काफिर’ को वो कैसे देख सकते हैं।
आज के समय में ये घटना और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि भारत को खंडित करने के लिए सिखों को भड़काया जाता है। ‘किसान आंदोलन’ के दौरान भी इस्लामी ताकतों ने सिखों के दिमाग में ये बैठाना चाहा कि हिन्दू उनके दुश्मन हैं। बांग्लादेश के इस्लामी संगठन अंसारुल बांग्ला टीम का मौलाना जसीमुद्दीन रहमानी एक दशक से भी अधिक समय बाद जेल से निकलते ही सिखों को भड़काते हुए कहता है कि पंजाब को शेष भारत से काट कर अलग खालिस्तान बनाने का समय आ गया है। एक तरफ इस तरह की सोच वाले सिखों को कहते हैं कि वो उनके साथ हैं, दूसरी तरफ एक सिख महाराजा का बार-बार अपमान करते हैं। जबकि असली बात तो ये है कि उनके लिए हिन्दू और सिख, सारे सनातनी ‘काफिर’ और ‘बुतपरस्त’ ही हैं।