श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म और जीवन का सार है। गीता को उपनिषद की श्रेणि में रखा जाता है। भारतीय परंपरा में जिस प्रस्थानत्रयी का उल्लेख मिलता है उसमें उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद् भगवत गीता को रखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि श्रीमद्भगवद्गीता वेदों एवं उपनिषदों के उद्देश्यों का सर्वकालिक एवं व्यवहारिक प्रकटन है। जीवन के अनेकों आयाम होते हैं, जिससे संबंधित मानव विभिन्न द्वंदों से होकर अपनी विकास यात्रा में आगे बढ़ता है। यथार्थ है कि जीवन में संघर्ष एवं विपरीत परिस्थितियां हमारे सामने उत्थान के नए मापदंड प्रस्तुत करती हैं, परंतु ऐसा तभी संभव हो पाता है जब द्वंद में एवं किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुआ मनुष्य कर्त्तव्य – अकर्त्तव्य, उचित – अनुचित इत्यादि को भलीभांति जानकर कर्म पथ पर अग्रसर हो।
जीवन के ऐसे मोड़ पर जब व्यक्ति स्वयं को द्वंदों एवं चुनौतियों से घिरा पाता है तो गीता उसके मार्गदर्शन हेतु उपलब्ध सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसी को ध्यान में रखते हुए महात्मा गांधी ने गीता के संबंध में कहा कि जब कभी मुझे संदेह घेरते हैं और मेरे चेहरे पर निराशा छाने लगती है, मैं क्षितिज पर गीता रूपी एक ही उम्मीद की किरण देखता हूं। इसमें मुझे अवश्य ही एक छंद मिल जाता है जो मुझे सांत्वना देता है। तब मैं कष्टों के बीच मुस्कराने लगता हूं। इसी प्रकार स्वामी विवेकानंद गीता के संबंध में रहते हैं कि गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो हमारे जीवन के हर क्षेत्र में एक आदर्श मार्गदर्शन के रूप में कार्य करता है। यह हमें जीवन जीने की कला सिखाता है और आत्मज्ञान के पथ पर अग्रसर करता है। यह अवश्य ही सत्य है कि गीता के उपदेश मानव जीवन से संबंधित समस्त पक्षों का व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करते हैं। गीता में वर्णित उपदेश क्या हैं और वह जीवन की समस्याओं का समाधान किस प्रकार करते हैं इसको समझने के लिए गीता के उपदेश का ‘हेतु’ अर्थात कारण जानना आवश्यक है।
सर्वप्रथम यह विदित होना आवश्यक है कि किन कारणों से भगवान श्रीकृष्ण को अर्जुन को गीता का ज्ञान देना पड़ा। जैसा कि विदित है कि पांडु के पुत्र पांडव एवं धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव के मध्य समझौते के तमाम प्रयासों के बावजूद जब श्री कृष्ण को सफलता नहीं मिली और धृतराष्ट्र की सभा में शांतिदूत के रूप में उपस्थित श्रीकृष्ण का दुर्योधन द्वारा तिरस्कार एवं अपमान किया गया तो भगवान श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र की सभा में ही यह घोषणा की कि जब दुर्योधन शांति प्रस्ताव एवं किसी समझौते के लिए तैयार नहीं है तो अब सिर्फ एक मात्र विकल्प शेष रह जाता है और वह है युद्ध। युद्ध की घोषणा होने के पश्चात् श्रीकृष्ण की नारायणी सेना कौरवों की तरफ एवं स्वयं कृष्ण पांडवों की तरफ से युद्ध के लिए तैयार हुए। संपूर्ण महाभारत के युद्ध में शास्त्र ने उठाने का प्रण भी श्री कृष्ण द्वारा लिया गया था। युद्ध के प्रारंभ होने के समय जब कौरव एवं पांडव की सेवाएं एक दूसरे के सामने समक्ष उपस्थित थीं तभी अपने पारिवारिक जन, गुरु एवं सगे – संबंधियों को अपने विपक्ष में उपस्थित देख अर्जुन अधीर हो उठे। अर्जुन का आत्मबल इतना टूट चुका था कि कृष्ण के बार-बार समझाने पर भी वह युद्ध के लिए तैयार नहीं हो सका।
अर्जुन श्रीकृष्ण से युद्ध के प्रारंभ होने के पूर्व ही कहते हैं कि युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी अपने इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरा अंग शिथिल हुआ जा रहा है और मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूं। अपने इस स्वजन समुदाय को मारकर मुझे कोई कल्याण दिखाई नहीं देता। हे कृष्ण मैंने न विजय चाहता हूं तथा नहीं राज्य एवं किसी प्रकार का सुख। ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन अथवा ऐसे भोग और जीवन से क्या लाभ है जिसकी प्राप्ति मुझे अपने स्वजनों को मारकर हो। हे मधुसूदन यदि मुझे तीनों लोकों का राज्य भी प्राप्त हो जाए तो भी मैं इन्हें मार कर उसे भोगना उचित नहीं समझता तो फिर पृथ्वी के राज्य के लिए मैं इन्हें कैसे मार सकता हूं। इस प्रकार की निराशायुक्त बातों को कहकर अर्जुन अपने शास्त्रों को त्याग कर रथ के पिछले भाग में जाकर निराशा भाव में बैठ गया।
अंततः कुरुक्षेत्र के मैदान में किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो चुके अर्जुन के आत्मबल एवं उसके स्वधर्म की को जागृत करने हेतु भगवान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया। गीता के उपदेश में कुल 700 श्लोक हैं जिसमें श्री कृष्ण ने 574, अर्जुन ने 85, संजय ने 40 और धृतराष्ट्र ने एक श्लोक कहा है। श्रीमद् भगवत गीता एक पक्षीय न होकर अर्जुन के मन में उत्पन्न विषाद, द्वंद, नकारात्मकता तथा कर्तव्य विमुखता के फलस्वरुप प्रश्नों का सम्यक् समाधान है। श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर संपूर्ण प्राणिमात्र के कर्तव्य को लक्षित करते हुए कल्याण का मार्ग प्रस्तुत किया। मानव जीवन के तीन प्रमुख पक्ष जिसमें क्रिया, भावना एवं चिंतन (ज्ञान) सम्मिलित है। इनसे संबंधित समस्याओं एवं उनके समाधान का सार्थक एवं व्यवहारिक प्रयोग श्रीमद् भागवत गीता है।उल्लेखनीय है की श्रीमद् भागवत गीता एक धार्मिक ग्रंथ मात्र न होकर जीवन जीने का व्यवहारिक दस्तावेज है।
दुनिया के प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने गीता के संबंध में कहा कि जब मैंने भागवत गीता पढ़ी और सोचा कि भगवान ने यह कैसे बनाया तो बाकी सभी चीज मुझे अत्यंत छोटी और निरर्थक लगी। उनका कहना था कि उन्हें इस बात का अफसोस है कि उन्होंने अपने यौवन में इस ग्रंथ के बारे में नहीं पढ़ा, नहीं तो उनके जीवन की दिशा कुछ और ही होती। गीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसका भारत की सभी धार्मिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक परंपराओं में सहज स्वीकार्यता पाई जाती है। वेदांत, योग, सांख्य इत्यादि श्रीमद्भगवद्गीता में समाहित हैं तो वहीं यह न्याय, वैशेषिक और मीमांसा के सूत्रों की भी व्याख्या करता है। इस प्रकार श्रीमद् भागवत गीता का न किसी मत से वैमनस्य है और न ही किसी सिद्धांत से विरोध। चार्ल्स विलकिंस द्वारा 1785 में सर्वप्रथम गीता का अंग्रेज़ी अनुवाद कराया गया। उसके पश्चात लगभग 75 से 80 भाषाओं में गीता का अनुवाद हो चुका है। यही इस ग्रंथ को वैश्विक स्वीकृति का पर्याय बनाती है। जिस प्रकार किंकर्त्तव्यविमूढ़ अर्जुन गीता के उपदेशों को सुनकर अपने कर्तव्य के लिए तैयार हो जाते हैं उसी प्रकार गीता हमें हमारे जीवन से संबंधित समस्त कर्तव्यों की शिक्षा देकर आत्मभाव में प्रतिष्ठित होने का सुलभ मार्ग प्रस्तुत करती है। योगी श्री अरविंद का कहना है कि गीता के वक्तव्य में सत्य की झलक इतनी स्पष्ट दिखती है कि एक बार इसके संपर्क में आने वाला सहज ही इसका कायल हो जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता सिर्फ शाब्दिक ना होकर एक व्यवहारिक मार्गदर्शिका है जो कर्तव्य एवं शाश्वत मूल्य के माध्यम से सत्य का आवरण प्रस्तुत करती है। गीता के संदेश को जन सामान्य के लिए सुलभ बनाने हेतु आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, विनोबा भावे जैसे मूर्धन्य विद्वानों एवं विचारों ने अपने-अपने दृष्टि से व्याख्या की है। प्रसिद्ध लेखक हर्मन हेस लिखते हैं कि भारतीय ज्ञान का सबसे अद्भुत और ऊंचा प्रतीक गीता मानवता के लिए एक उपहार है जो हमें जीवन की सच्ची समझ और शांति की राह दिखाता है। प्रसिद्ध भारतीय अमेरिकी वैज्ञानिक प्रो. बलराम सिंह अपने संवाद गीता: भूत, वर्तमान और भविष्य में इसकी सार्थकता और इसके श्लोकों के व्यावहारिक एवम वैज्ञानिक पक्षों पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता जीवन में कर्तव्य के प्रति विमुख होने और अपने स्वभाव के अनुसार कार्यों को सिखाने का सबसे व्यावहारिक दस्तावेज है। गीता हमारे मन में यह विश्वास जगाती है कि यदि हम कर्त्तव्य के प्रति दृढ़ हो जाएं तो हम स्वयं के आत्मबोध अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं और यही परमतत्व का स्वयं में प्रकटन है। व्यवहारिक रूप से यही ससीम को असीम से संबंधित कर एकाकार करना है। श्रीमद्भगवद्गीता जाति, धर्म, पंथ, संप्रदाय इत्यादि को आपस में समाहित करते हुए ज्ञान, कर्म एवं मूल्य का दिग्दर्शन है। यही गीता की सार्थकता है।
-डा. आलोक कुमार द्विवेदी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्ञ में पीएचडी हैं। वर्तमान में वह KSAS, लखनऊ में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। यह संस्थान अमेरिका स्थित INADS, USA का भारत स्थित शोध केंद्र है। डा. आलोक की रुचि दर्शन, संस्कृति, समाज और राजनीति के विषयों में हैं।