जम्मू-कश्मीर के हालिया विधानसभा चुनाव 2014 के बाद पहली बार हुए हैं और यह पहला मौका था जब अनुच्छेद 370 के खत्म होने के बाद पहली बार जम्मू-कश्मीर के लोग वोट डालने निकले थे। इस चुनाव में नैशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन ने पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया है नैशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस को क्रमश: 42 व 6 सीट और जम्मू में बेहतर प्रदर्शन की बदौलत बीजेपी ने 29 सीटें जीती हैं। अब जब जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार बनने वाली है और उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले हैं, ऐसे में ये भी देखना होगा कि आखिर उनके अनुच्छेद 370 के वादे का क्या होगा ?
NC का चुनावी वादा था अनुच्छेद 370 की वापसी
नैशनल कांफ्रेंस का सबसे बड़ा चुनावी वादा ही अनुच्छेद 370 की बहाली था और फारुख से लेकर उमर अब्दुल्ला तक ये कहते रहे थे कि अगर वो सत्ता में आए तो 370 को वापस बहाल करने की कोशिश करेंगे। अब जबकि वो सत्ता में आ चुके हैं, तो क्या वो आर्टिकल 370 को फिर से लागू कर पाएंगे? और ये कितना मुमकिन है।
सवाल ये भी निकलता है कि क्या जिस तरह से आर्टिकल 370 को हटाया गया, उसी तरह दोबारा लाया भी जा सकता है? साथ ही बतौर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के हाथ में क्या कुछ है? क्या अगर उमर अब्दुल्ला या कोई भी पार्टी आर्टिकल 370 को वापस ला सकती है और क्या संविधान में अभी भी इसकी कोई गुंजाइश बची है। इसका एक लाइन में जवाब ये है कि जनाब असंभव तो नहीं है लेकिन नामुकिन जरूर है।
क्यों मुश्किल था जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाना
अनुच्छेद 370 जब लागू हुआ था तो इसकी एक शर्त ये थी कि इसे तब तक नहीं हटाया जा सकता या बदला जा सकता है, जब तक कि जम्मू कश्मीर की संविधान सभा इसकी मंजूरी न दे। जम्मू कश्मीर की संविधान सभा तो 1957 में ही भंग हो गई थी, इसका अर्थ हुआ कि आर्टिकल 370 कभी खत्म ही नहीं हो सकता था क्योंकि जब संविधान सभा ही नहीं रही तो फिर उसकी मंजूरी कहां से ली जाती।
‘संविधान सभा’ को बनाया गया ‘विधानसभा’
जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाना पेचीदगा भरा था लेकिन सरकार ने संविधान के प्रावधानों के तहत ही इसे हटाने का रास्ता ढूंढ लिया था। तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 5 अगस्त, 2019 एक प्रेसिडेंशियल ऑर्डर जारी किया। इस आदेश के जरिए उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 367 में संशोधन कर दिया। अनुच्छेद 367 मुख्यत: संविधान की व्याख्या से संबंधित है।
राष्ट्रपति कोविंद ने इस आर्टिकल के तहत मिली शक्तियों का प्रयोग करते हुए आर्टिकल 370 की उप-धारा (3) की पुरानी परिभाषा में एक छोटा सा बदलाव कर दिया। उन्होने आदेश में कहा कि आर्टिकल 370 में जम्मू कश्मीर की जिस ‘संविधान सभा’ का जिक्र है, उसे संविधान सभा नहीं, अपितु जम्मू कश्मीर की ‘विधान सभा’ समझा जाए।
जम्मू-कश्मीर से कैसा हटा था अनुच्छेद 370
राष्ट्रपति के इस आदेश के बाद जम्मू-कश्मीर की ‘संविधान सभा’ को आर्टिकल 370 के संदर्भ में जो शक्तियां प्राप्त थीं, वो राज्य की विधानसभा को भी प्राप्त हो गईं। ऐसे में जब अनुच्छेद 370 हटाया गया तो उस वक्त वहां गवर्नर शासन चल रहा था। तकनीकी तौर पर जम्मू-कश्मीर विधानसभा की शक्तियां केंद्र के पास थीं और इस तरह संसद गवर्नर के नाम पर कानून बना सकती थी।
राष्ट्रपति के इस आदेश के कुछ घंटे बाद ही संसद ने अनुच्छेद 370 हटाने की सिफारिश कर दी साथ ही जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन विधेयक 2019 को पास कर दिया गया। वहीं, 6 अगस्त को, यानी एक दिन बाद राष्ट्रपति ने इसे मंजूर कर लिया और इस तरह अनुच्छेद 370 निरस्त हो गया। अनुच्छेद 370 को हटाने की इस प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट ने भी वैध माना है।
क्या अनुच्छेद 370 की बहाली संभव है
राष्ट्रपति के इस आदेश के बाद और अब यह प्रक्रिया चाह कर भी दोहराई नहीं जा सकती है। इसका शाब्दिक अर्थ ये हुआ कि अब वैधानिक रूप से अनुच्छेद 370 का कोई अस्तित्व नहीं बचा है न तो जम्मू-कश्मीर में और न ही संविधान में। जिसका मतलब हुआ कि अनुच्छेद 370 को अब किसी प्रेसिडेंशियल ऑर्डर के जरिए फिर से बहाल नहीं किया जा सकता। रही बात जम्मू कश्मीर के लिए विशेष दर्जा प्रदान करने की, तो इसके लिए अनुच्छेद 370 जैसा ही कोई नया प्रावधान जरूर किया जा सकता है लेकिन इसके लिए संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता होगी और इसके लिए सरकार को संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत के साथ देश की आधे से अधिक राज्यों की विधानसभाओं की भी अनुमति लेनी होगी और ये काम आसान नहीं होगा।
कुल मिलाकर मौजूदा परिस्थितियों में उमर अब्दुल्ला और उनकी पार्टी ने अनुच्छेद 370 की बहाली के नाम पर चुनाव भले ही लड़ा हो लेकिन वो ये काम बिल्कुल नहीं कर सकती, क्योंकि एक तो जम्मू कश्मीर अभी भी केंद्र-शासित प्रदेश ही है और दिल्ली की तरह यहां भी असली शक्तियां एलजी यानी उप-राज्यपाल के पास ही रहेंगी। खुद उमर अब्दुल्ला भी इस बात को अच्छी तरह जानते और मानते हैं, फिर भी उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी सरकार विधानसभा के पहले सत्र में ही इस आशय का प्रस्ताव पास करेगी। जाहिर वो ऐसा करते हैं भी हैं तो ये राजनीति के प्रतीकात्मक पहलू से अधिक कुछ नहीं होगा।