आजादी के बाद से कश्मीर और हैदराबाद के भारत में शामिल होने की कहानियां साल-दर-साल सुनाई जाती रही हैं। लेकिन एक घटना जो शायद ही कभी आम जनता की जुबान तक आ पाई हो, वह है एक राजा के फैसले, एक रानी के अदम्य साहस, और त्रिपुरा रियासत के भारत में शामिल होने की कहानी।
साल 1947, आजादी के लिए संघर्ष तेज़ होता जा रहा था। एक ओर भारत के बंटवारे की गहमागहमी थी, तो दूसरी ओर रियासतों के भारत या पाकिस्तान में विलय को लेकर जद्दोजहद चल रही थी। पूर्व से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक पूरे देश में यही स्थिति थी। कुछ रियासतें भारत में विलय को तैयार थीं, तो कुछ निजाम पाकिस्तान की गोद में बैठने को आतुर थे।
त्रिपुरा रियासत, माणिक्य राजवंश और बंगाली शरणार्थी
इनमें से एक रियासत त्रिपुरा भी थी। पूर्वोत्तर भारत में स्थित इस रियासत पर माणिक्य वंश का शासन था और इसके राजा थे बीर बिक्रम किशोर देब बर्मन। अंग्रेज इस रियासत को हिल टिप्पेरा कहते थे, जिसमें टिप्पेरा नामक एक जिला भी था। यह राज्य वर्तमान बांग्लादेश के नोआखाली और सिलहट तक फैला हुआ था। जब भारत का बंटवारा हुआ, तो अंग्रेजों के वकील रेडक्लिफ ने, लाहौर की तरह, नोआखाली और टिप्पेरा को भी पाकिस्तान को सौंप दिया, बावजूद इसके कि वहां हिंदू आबादी अधिक थी।
1941 के ढाका दंगों के बाद त्रिपुरा में बंगाली प्रवासियों की संख्या बढ़ गई थी। दंगों के दौरान ही त्रिपुरा के राजा बीर बिक्रम किशोर देब बर्मन ने बंगालियों के लिए अपनी सीमाएं खोल दी थीं। 1947 में जब फिर से दंगों की आशंका बनी, तो बड़ी संख्या में प्रवासी त्रिपुरा में शरण लेने लगे।
राजा बीर बिक्रम को यह समझ आ गया था कि अगर भारत-पाक बंटवारे का ऐलान हुआ, तो दंगे भड़केंगे और हालात बेकाबू हो जाएंगे। इसलिए उन्होंने 28 अप्रैल 1947 को त्रिपुरा के भारत में विलय का ऐलान कर दिया। कोई चूक न हो, इसलिए राजा बीर बिक्रम ने संविधान सभा के सचिव HVR अयंगर को टेलीग्राम भेजकर भी अपने फैसले की सूचना दी।
राजा बीर बिक्रम के इस फैसले से त्रिपुरा की जनता ने राहत की सांस ली, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। त्रिपुरा के भारत में विलय के फैसले के 19 दिन बाद, यानी 17 मई 1947 को राजा बीर बिक्रम की अचानक मृत्यु हो गई। त्रिपुरा के युवराज किरीट बिक्रम किशोर माणिक्य की उम्र सिंहासन संभालने के योग्य नहीं थी। इसलिए रानी कंचनप्रभा देवी ने रीजेंसी काउंसिल (राजा की मृत्यु के बाद अस्थायी सरकार) बनाकर सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली।
रानी कंचनप्रभा और उनके विरुद्ध षड्यंत्र
त्रिपुरा अब राजा-विहीन हो चुका था, और सत्ता रानी कंचनप्रभा के हाथों में थी। ऐसे में सत्ता हथियाने के लिए षड्यंत्र रचे जाने लगे। इनमें से एक षड्यंत्र त्रिपुरा के भीतर ही पनपा। राजा बीर बिक्रम के सौतेले भाई दुर्जय किशोर ने, जो राजा बनने का सपना देख रहा था, रानी कंचनप्रभा को सत्ता से हटाने के लिए अलगाववादी मोहम्मद अब्दुल बारिक खान (जिसे गेदू मियां भी कहा जाता था) से हाथ मिला लिया। गेदू मियां ने मुस्लिम लीग के समर्थन वाली ‘अंजुमन-ए-इस्लामिया’ नामक राजनीतिक पार्टी बनाई थी और त्रिपुरा को पाकिस्तान में मिलाने की कोशिशों में लगा था।
दुर्जय किशोर को उम्मीद थी कि त्रिपुरा के पाकिस्तान में विलय के बाद वह राजा बन जाएगा, जबकि गेदू मियां त्रिपुरा को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। लेकिन इन दोनों के सपने जल्द ही टूट गए। 11 जून 1947 को रानी कंचनप्रभा ने जनता को बताया कि महाराजा बीर बिक्रम ने त्रिपुरा रियासत के भारत में विलय का फैसला पहले ही कर लिया था।
यह खबर देश भर में आग की तरह फैल गई। साथ ही यह भी खबर फैली कि त्रिपुरा पर हमला करने की तैयारी हो रही है और पूर्वी पाकिस्तान में पर्चे बांटकर मुस्लिमों को उकसाया जा रहा है। अखबारों में भी ऐसी खबरें थीं, हालांकि इनमें अफवाहें भी शामिल थीं। लेकिन इन खबरों की सच्चाई परख पाना मुश्किल था।
भारतीय संघ में त्रिपुरा का विलय
रानी कंचनप्रभा ने सख्ती दिखाते हुए दुर्जय किशोर का समर्थन करने वाले मंत्रियों का इस्तीफा लेकर उन्हें राज्य से बाहर भेज दिया। कुछ मंत्रियों के त्रिपुरा में प्रवेश पर रोक लगा दी गई और रीजेंसी काउंसिल भंग कर खुद को एकमात्र रीजेंट घोषित कर दिया। रानी कंचनप्रभा जानती थीं कि अगर जल्दी कार्रवाई नहीं की गई, तो त्रिपुरा के हालात कश्मीर जैसे हो सकते हैं। उन्होंने दिल्ली जाकर सरदार पटेल से मुलाकात की और त्रिपुरा की स्थिति के बारे में बताया। सरदार पटेल ने उन्हें हर संभव सुरक्षा और सैन्य सहायता का आश्वासन दिया।
सरदार पटेल ने असम के राज्यपाल अकबर हैदरी को त्रिपुरा भेजकर हालात नियंत्रण में रखने को कहा। स्थिति नियंत्रित होते ही रानी कंचनप्रभा ने 11 नवंबर, 1947 को त्रिपुरा के भारत में विलय का औपचारिक ऐलान कर दिया। फिर 9 सितंबर, 1949 को उन्होंने भारत सरकार के साथ विलय समझौते पर हस्ताक्षर किए। 15 अक्टूबर 1949 को त्रिपुरा रियासत अस्तित्व में नहीं रही और भारत का हिस्सा बन गई। 1956 में त्रिपुरा को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिला और 1972 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया।
दुर्जय किशोर और गेदू मियां का क्या हुआ?
दुर्जय किशोर पहले ही इस्तीफा दे चुका था और बाद में उसे राज्य छोड़ना पड़ा। गेदू मियां और उसका परिवार पूर्वी पाकिस्तान के कोमिला भाग गए। अगरतला में बने उनके घर को सरकार ने जब्त कर लिया और आज वहाँ क्षेत्रीय कोचिंग सेंटर अगरतला स्थित है।