मध्यकाल में जहाँ एक ओर मुगलिया सल्तनत द्वारा इस्लाम को आम जनमानस पर थोपने का कार्य किया जा रहा था, हिन्दू मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें तथा मकबरे बनाये जा रहे थे तो वहीं दूसरी ओर मुगल सल्तनत में भी ताज बीबी जैसी बेगमें, जेबुन्निसा जैसी शहजादियाँ और रहीम जैसे सिपाही हुए जो सनातन के रंग में ऐसे डूबे जिससे सम्भवतः उन्हें विरोध का भी सामना करना पड़ा हो।
आज हम मुगल बेगम ताज बीबी पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे जो कृष्ण प्रेम में इस तरह दीवानी हुईं कि उनकी तुलना मीरा से की जाती है।
कृष्णभक्ति के कारण मुग़ल सल्तनत में हुआ विरोध
मध्यकाल में जहाँ धार्मिक संकीर्णता अपने चरम पर थी, महिलाओं के लिए अनेक प्रकार के सामाजिक बंधन थे। उस समय हिन्दू–मुस्लिम वैमनस्य अपनी चरम सीमा पर था। तब इस्लाम त्यागकर हिन्दू धर्म की उपासना पद्धति को अपनाना वैसा ही था जैसे जलते हुए अंगारों पर चलना। इन सभी चुनौतियों का अतिक्रमण करके ताज ने कृष्ण के चरणों में सर्वस्व समर्पण कर दिया।
कहा जाता है कि भक्ति और पागलपन में अत्यधिक अंतर नहीं है क्योंकि भक्त अपने आराध्य के प्रेम में लोक–लाज छोड़कर पागलों की तरह ही व्यवहार करता है। मुगल सल्तनत से सीधा सम्बन्ध रखने वाली ताज बेगम की भक्ति भी कुछ इसी प्रकार थी। वे कृष्ण के प्रेम में इस तरह दीवानी हुईं कि एक ऐसे समय में जब मुस्लिम होना एक प्रिविलेज समझा जाता था उन्होंने स्वयं के बारे में लिखा कि–
नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सुरत पै,
हूँ तो मुग़लानी, हिंदुआनी बन रहूँगी मैं।।“
वास्तव में इन पंक्तियों को पढ़कर ही इनकी कृष्ण के प्रति दीवानगी की अंदाजा लगाया जा सकता है।
ताज बेगम के जीवन के बारे में अधिक जानकारी हमें नहीं मिलती है। इनका जन्म समय, मृत्यु तथा इनका रचनाकाल संदिग्ध ही है। कुछ विद्वानों ने इनका जन्म समय संवत 1652 से लेकर संवत 1700 तक माना है। कहीं पर ताज बेगम का उल्लेख औरंगजेब की भतीजी के रूप में होता है तो कहीं इन्हें मुगल शासक अकबर की बेगम बताया गया है। ताज पर हिंदी के एक प्रसिद्ध रचनाकार गोविंद गिल्ला भाई ने शोध कार्य किया था। इन्होंने ताज के विषय में एक पत्र किन्हीं श्री निर्मल जी को लिखा था। उस पत्र में ताज के जीवन से सम्बंधित कुछ जानकारी अवश्य प्राप्त होती है।
इस पत्र के अनुसार, ताज करौली ग्राम में रहा करती थीं। वे प्रतिदिन सुबह स्नान आदि करके भगवान के दर्शन करने के पश्चात ही भोजन ग्रहण करती थीं। उनकी कृष्ण भक्ति को देखकर मुगलिया सल्तनत में तो उनका विरोध हुआ ही किन्तु कई बार उनके मंदिर जाने पर भी विरोध किया गया। कालांतर में भगवान के प्रति उनकी निष्ठा देखकर वैष्णवों ने उनकी आराधना में कोई व्यवधान नहीं पहुँचाया। इस सम्बंध में एक रोचक कथा भी इस पत्र में गोविंद गिल्ला भाई ने लिखी है। उन्होंने लिखा है कि एक दिन वैष्णवों ने ताज को विधर्मिणी समझकर उन्हें मंदिर में दर्शन करने से रोक दिया।
उस दिन ताज उपवास करके मंदिर के प्रांगण में ही बैठी रहीं और कृष्ण नाम का जप करती रहीं। रात्रि होने पर ठाकुर जी स्वयं मनुष्य का रूप धारण कर भोजन का थाल लेकर ताज के पास आए और कहने लगे तूने आज जरा–सा भी प्रसाद नहीं खाया, ले अब इसे खा। प्रातःकाल जब सब वैष्णव आये, तो ताज ने सारी बातें उनसे कह सुनाई। ताज के सामने भोजन का थाल देखकर वे अत्यन्त चकित हुए। वे सभी वैष्णव ताज के पैरों पर गिर पड़े और क्षमा–प्रार्थना करने लगे। तब से ताज प्रतिदिन भगवान के दर्शन करके प्रसाद ग्रहण करने लगी। पहले ताज मंदिर में जाकर ठाकुर जी का दर्शन कर आती थी तब और दूसरे वैष्णव दर्शन करने जाते थे। यह कथा आज भी करौली गांव में चलती है तथा ताज के लिखे अनेक पद वहाँ आज भी गाए जाते हैं।
गोस्वामी विट्ठलनाथ की शिष्य थीं ताज बेगम
चूँकि ताज के विषय में जानकारी का अभाव है ऐसे में जो भी इनके विषय में लिखा गया है वह कितना प्रामाणिक है यह भी संदेहास्पद है। ताज ने स्वयं जो पद लिखे उन पदों को पढ़कर जरूर समझा जा सकता है कि इनका जीवन कैसा रहा। इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता है कि मुगलों के समय में हिंदुओं का जबरन धर्मांतरण कराया गया है। भले ही कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी मुगलों के दरबारी इतिहासकारों द्वारा लिखे गए दस्तावेजों के आधार पर मुगल सल्तनत की प्रशंसा करते न थकते हों किन्तु सत्य यही है कि उस समय मुसलमान होना एक प्रिविलेज था।
अनेक दोहरी नीतियों की वजह से जो मार हिन्दू समुदाय को पड़ती थी उससे विवश होकर इस्लाम अपनाने वाले हिन्दू स्वेच्छा से कभी धर्म परिवर्तन नहीं करते। ऐसे कट्टरपंथी शासन में ताज जैसी मुगल बेगम जब इस्लाम से हटकर कृष्ण भक्ति करती है तो निश्चित रूप से उन्हें भी भारी विरोध का सामना करना पड़ा होगा। उनकी रचनाओं में इस बात की पुष्टि भी होती है। “क्यों सताते हो मुझे पछताओगे, दिलजलों की आह से जल जाओगे” जैसे पद इस बात को सत्यापित करते हैं कि उनके विरोधियों की संख्या भी कम नहीं थी।
ताज बेगम कृष्ण भक्त तो थीं ही लेकिन वृंदावन कैसे गईं और वहाँ गोस्वामी विट्ठलनाथ जी की शिष्य कैसे बनीं इस सम्बंध में एक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बार इन्होंने मौलवियों और अपने इमाम से पूछा कि क्या अल्लाह का दीदार हो सकता है? सभी ने उत्तर में हाँ कहा। फिर क्या था उत्तर जानकर ताज काबाशरीफ की यात्रा पर निकल पड़ीं। चूँकि उस समय यात्राओं के दौरान विश्राम के लिए पड़ाव भी होते थे। इनकी यात्रा का भी एक पड़ाव ब्रज में पड़ा। ब्रज में घण्टे, आरती, संगीत, भजन आदि की आवाज सुनकर इन्होंने अपने साथ के लोगों से पूछा कि यह क्या है?
इनके साथ आए दीवान ने बताया कि यहाँ हिंदुओं का छोटा खुदा रहता है। ताज ने आग्रह किया कि वह छोटा खुदा से मिलकर अपनी आगे की यात्रा पर जाएंगी। किन्तु ताज ने जैसे ही मंदिर में प्रवेश करना चाहा, वहाँ के पुजारियों ने उन्हें प्रवेश करने से रोंक दिया। प्रवेश न मिलने पर ताज वहीं मंदिर के द्वार पर बैठकर गाने लगीं। कहा जाता है कि ताज की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्री कृष्ण ने इन्हें साक्षात दर्शन देकर कृतार्थ किया। कृष्ण के दर्शन प्राप्त करने के बाद ताज गोस्वामी विट्ठलनाथ जी की सेविका बन गईं। इन्होंने कृष्ण की भक्ति एवं प्रेम में अनेक कविताएँ, छंद और धमार लिखे जो आज भी पुष्टिमार्गीय मंदिरों में गाए जाते हैं।
इस्लामी कट्टरता छोड़ी, नमाज को भूल गईं
कहते हैं कि जो भक्ति का रस चख लेता है वह मजहब, लिंग, जाति हर प्रकार के बंधनों से खुद को मुक्त करके स्वयं को आराध्य के प्रेम में समर्पित कर देता है। ताज ने भी उस समय की मजहबी कट्टरता को को छोड़ कहती हैं कि “देवपूजा ठानी मैं नमाज हूँ भुलानी..” वाकई वर्तमान समय में भी हम देखते हैं कि कुछ कट्टरपंथी एक छोटी से बच्ची के भगवत गीता के श्लोक पढ़ने पर इस्लाम का विरोध बताकर फतवा जारी कर देते हैं तो उस समय तो शासन ही इस्लाम का था। ताज को भी सम्भवतः उस समय के मौलवियों ने शरअ का ज्ञान दिया होगा। “अब शरअ नहीं मेरे कुछ काम की, श्याम मेरे हैं, मैं मेरे श्याम की।” ताज की लिखी इन पंक्तियों से यही परिलक्षित होता है।
मध्यकाल का भक्तिकाल एक ऐसा समय रहा है जिसे साहित्य में स्वर्ण काल के नाम से भी जाना जाता है। इस काल को स्वर्ण काल बनाने वाले यही भक्त कवि थे। जिनमें सूर, मीरा, तुलसी, रसखान को तो जानते हैं किंतु अनेक ऐसे भक्त कवि रहे जिनपर अपेक्षाकृत कम चर्चा ही हुई। ताज बेगम के बारे में भी मध्यकाल का इतिहास लिखने वालों ने कुछ कम दिलचस्पी ही दिखाई। हालाँकि अब परिदृश्य बदल रहा है और साहित्य पढ़ने पढ़ाने वाले लोग तो गुमनामी के शिकार हुए इन कवियों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास कर ही रहे हैं साथ ही सरकारें भी इनको प्रकाश में लाने का भरपूर काम कर रही हैं।
चूँकि मध्यकाल के अधिकतर भक्त कवि वृंदावन आकर ही बसे और उनका अंतिम समय भी यहीं गुजरा ऐसे में इन सभी की समाधियाँ भी यहीं मथुरा, वृंदावन के आसपास ही थीं। ताज की समाधि भी मथुरा में ही थी किन्तु उपेक्षा के कारण आस पास झाड़–झंखाड़ ही थी। 2022 में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का ध्यान जब गुमनामी की ओर धकेल दिए इन महान कृष्ण भक्तों पर गया तो उन्होंने इन सभी समाधियों के जीर्णोद्धार की परियोजना बनाई।
महिलाओं के लिए सनातन परंपरा में स्वच्छंद है जीवन
वास्तव में हुआ भी ऐसा ही आज ताज बेगम, रसखान आदि भक्तों की समाधियाँ भी मथुरा में पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं। इसी परिसर में एक ओपन थिएटर फिल्म केंद्र और एक फूड कोर्ट भी बनाया गया है। यहां बने इस ओपन थिएटर में करीब 500 लोग एक साथ बैठ सकते हैं तथा इस ओपन थिएटर में रसखान और ताज बीबी के जीवन और कार्यों पर शो आयोजित किए जाते हैं।
ताज को पढ़कर यही प्रतीत होता है कि इस्लामी कट्टरता से ऊबकर उन्होंने स्वच्छंद होकर सनातन परंपरा, भारतीय दर्शन में जीना उचित समझा। जहाँ आस्तिकों के लिए सगुण, निर्गुण भक्ति का विकल्प है तो नास्तिक दर्शन का भी स्थान है। जहाँ ईश्वर को मानने के लिए अनेक माध्यम हैं तो न मानने पर फतवा नहीं है। सनातन में किसी को काफिर नहीं समझा जाता, न ही सर तन से जुदा जैसी हिंसात्मक वृत्ति यहाँ मौजूद है। निश्चित रूप से यही कारण रहा होगा जिसकी वजह से ताज और ताज की भाँति ही एक लंबी मुसलमान भक्तों की फेहरिस्त है जो इस्लामी कायदे कानूनों से परे जाकर सनातन के रंग में रंगे।