एक ऐसा नाम जिसके अपराधों की चर्चा भारत ही नहीं बल्कि विदेशों तक थी। खौफ तमिलनाडू से लेकर केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश तक था। खौफ ऐसा कि उसे पकड़ने के नाम से पुलिस भी दूर भाग खड़ी होती थी। उसके खात्मे के लिए दो राज्यों की सरकारों को 100 करोड़ से अधिक खर्च और 5 करोड़ का इनाम रखना पड़ गया था। कला प्रेमी ऐसा कि फिल्म ‘द गॉडफादर’ 100 बार देखी थी। यह कोई मनगढ़ंत किस्सा नहीं बल्कि सच्ची कहानी है एक ऐसे व्यक्ति की जो दो दशक से अधिक समय तक आतंक का दूसरा नाम बना रहा। यह कहानी है 2000 से अधिक हाथियों और अपनी दुधमुही बेटी सहित 184 लोगों की हत्या करने वाले कुख्यात चंदन तस्कर और दस्यु सरगना पुष्पा नहीं वीरप्पन की।
कौन था वीरप्पन?
18 जनवरी 1952 को तत्कालीन मद्रास के गोपिनाथम गांव में जन्मे वीरप्पन का पूरा नाम कूज मुनिस्वामी वीरप्पन था। एक बेहद ही साधारण परिवार में पले-बढ़े वीरप्पन के आतंक का पर्याय बनने में उसके चाचा का हाथ था। वीरप्पन के चाचा सालवई गौंडर हाथी दांत और चंदन की तस्करी करते थे। वीरप्पन ने महज 17 साल की उम्र में अपने चाचा के साथ काम करके अपराध की दुनिया में पहला कदम रख दिया था। लेकिन पहले कदम में ही उसे एक फॉरेस्ट अधिकारी ने गिरफ्तार कर लिया था, यह साल था 1972।
वीरप्पन गिरफ्तार तो हो चुका था, लेकिन उसे अधिक दिनों तक सलाखों के पीछे नहीं रखा जा सका। फिर क्या हुआ…? हुआ यह कि वीरप्पन जेल से बाहर आता है और कर डालता है अपने जीवन की पहली हत्या। यह हत्या उस फॉरेस्ट अधिकारी की थी जिसने उसे गिरफ्तार किया था।
वीरप्पन अब भी 17 साल का ही था लेकिन उसके सपने बड़े थे, इसलिए चाचा के साथ उसकी बहुत दिनों तक बनी नहीं। वीरप्पन ने चाचा से अलग होकर अपना धंधा यानी हाथी दांत और चंदन की तस्करी शुरू की। देखते ही देखते ही वह कर्नाटक ही नहीं बल्कि देश का भी सबसे बड़ा चंदन तस्कर बन गया। हालत यह थी कि दक्षिण भारत से हाथी और चंदन दोनों ही गायब होते जा रहे थे और पुलिस वीरप्पन की तलाश कर रही थी। लेकिन वह हर बार चकमा देकर छूमंतर हो जाता था।
वीरप्पन की क्रूरता की दास्तां सुनाने वाले बताते हैं कि वह इतना क्रूर था कि हाथियों को मारने के लिए उनके माथे के बीच में गोलियां मारता था। यही नहीं, अगर उसे किसी पर पुलिस के मुखबिर होने का शक होता तो उसका मरना तय होता था। अगर कोई पुलिसकर्मी उसे पकड़ने की कोशिश करता तो उसे भी अपनी जान गवानी पड़ती थी।
साल 1986 में वीरप्पन का आतंक हद से अधिक बढ़ने पर उसके खात्मे की जिम्मेदारी सीनियर आइएफएस अधिकारी पी. श्रीनिवास को दी गई थी। पी. श्रीनिवास वीरप्पन को पकड़ने में कामयाब भी हो गए थे। लेकिन वीरप्पन तो वीरप्पन था। उसने पुलिस अधिकारियों से कहा कि उसके सिर में दर्द हो रहा है, इसलिए उसे तेल चाहिए। पुलिसकर्मियों ने उसे तेल दे दिया, फिर क्या था। वीरप्पन ने तेल सिर में नहीं बल्कि हाथों में लगाया और हथकड़ी से छुड़ाकर फरार हो गया।
पकड़े जाने के बाद वीरप्पन पी. श्रीनिवास से नाराज था और बदला लेने की फिराक में था। इसके लिए उसने अपने आत्मसमर्पण की झूठी प्लानिंग रची और श्रीनिवास से मिलते ही गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। वीरप्पन यहीं नहीं रुका। पी. श्रीनिवास को मारने के बाद उसने उनका सिर काट दिया और अपने साथियों के साथ उनके सिर से घंटों तक फुटबॉल खेलता रहा।
इसके बाद, वीरप्पन के बढ़ते आतंक के चलते उसके खात्मे के लिए STF यानी स्पेशल टास्क फोर्स बनाई गई। इस फोर्स का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ वीरप्पन का खात्मा करना था। इसकी जिम्मेदारी सीनियर आईपीएस टी. हरीकृष्णा को दी गई। वीरप्पन को इसकी भनक लग गई और उसने टी. हरीकृष्णा की भी हत्या कर दी।
फिर आता है साल 1993, वीरप्पन को खबर मिली की पुलिस के पेट्रोलिंग स्क्वॉड के प्रमुख लहीम शहीम गोपालकृष्ण उसे पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में उसने तमिलनाडु के कोलाथपुर गांव में एक बड़े बैनर पर गोपालकृष्ण के खिलाफ भद्दी गालियां लिख दीं। गोपालकृष्ण को इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने वीरप्पन को पकड़ने का मन बना लिया। इसके लिए वह पूरे दमखम और दलबल के साथ मुखबिरों के बताए ठिकाने की ओर चल पड़े। लेकिन बीच जंगल में ही उनकी पुलिस वैन खराब हो गई। उन्होंने वैन को वहीं छोड़ा और जंगल में तैनात पुलिस से 2 बसें लेकर फिर चल पड़े।
पहली बस में गोपालकृष्ण के साथ 15 मुखबिर, 4 पुलिस जवान और 2 फॉरेस्ट गार्ड समेत कुल 21 लोग सवार थे। इस बस के पीछे आ रही दूसरी बस में 6 लोग थे। बस को पुलिस इंस्पेक्टर अशोक कुमार चला रहे थे। वीरप्पन को गोपालकृष्ण और अन्य पुलिसकर्मियों के आने की खबर मिल चुकी थी। इसलिए उसने पुलिसकर्मियों की हत्या करने के लिए रास्ते में बारूद बिछा दिया। जैसे ही बस बारूद वाले स्थान पर पहुंची, जंगल में छिपे वीरप्पन ने बस में बैठे गोपालकृष्ण को देखकर सीटी बजाई।
इस सीटी का इशारा पाते ही वीरप्पन की गैंग के मेंबर साइमन ने बारूद की सुरंग से जुड़ी 12 वोल्ट की बैटरी के तार जोड़ दिए। एक तेज धमाका हुआ। बस हवा में उछल गई। चारों तरफ लाशों के चिथड़े बिखर गए। पीछे चल रही बस में बैठे इंस्पेक्टर अशोक कुमार ने बस से उतरकर देखा तो 21 लोग वीरप्पन की क्रूरता का शिकार हो चुके थे।
आतंक फैला रहे वीरप्पन के मन में धीरे-धीरे अब पुलिस का भी खौफ बढ़ रहा था। इस खौफ का कारण उसकी बेटी थी। बेटी वह भी दुधमुही। आप सोच रहे होंगे कि दुधमुही बेटी से भला एक आतंकी क्यों डरेगा? वीरप्पन के इस डर का कारण बेटी का रोना था, दिन में तो किसी तरह वह बेटी को चुप कराकर रखता था। लेकिन रात में बेटी के रोने से पूरा जंगल गूंज उठता था। वीरप्पन को डर था कि रोने की आवाज सुनकर पुलिस उस तक पहुंच सकती है। इसलिए उसने गला घोंटकर बेटी की हत्या कर दी।
यही नहीं, 30 जुलाई 2000 को उसने कन्नड़ के मशहूर फिल्म स्टार राजकुमार का भी अपहरण कर लिया था। इस दौरान उसने कर्नाटक और तमिलनाडु दोनों राज्यों की सरकारों के नाक में दम कर दिया। लेकिन फिर 108 दिन बाद यानी 15 नवंबर 2000 को वीरप्पन ने राजकुमार को रिहा कर दिया।
कैसे हुआ वीरप्पन का खात्मा?
पुलिस से लेकर एसटीएफ और बीएसएफ तक को नाकों चने चबाने वाले वीरप्पन के सफाए के लिए जून, 2001 में तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने आईपीएस अधिकारी के. विजय कुमार को फोन किया और फोन में ही उन्हें एसटीएफ का चीफ नियुक्त कर दिया। अगले दिन विजय कुमार के पास उनकी नियुक्ति का आदेश भी पहुंच चुका था। फिर क्या था, विजय कुमार ने वीरप्पन से जुड़ी खुफिया जानकारी जुटानी शुरू कर दी। इसी दौरान उन्हें पता चला कि मूछों को कलर करते समय वीरप्पन की आंखों में रंग गिर गया था।
इससे उसकी आंख खराब चुकी है। एसटीएफ चीफ विजय कुमार के लिए यह बड़ी खबर थी। इसलिए उन्होंने कुछ पुलिसकर्मियों को वीरप्पन की गैंग में शामिल करा दिया और आंख के इलाज के लिए उसे हॉस्पिटल ले जाने के बहाने जंगल से बाहर लाने की प्लानिंग करने लगे। तारीख तय हुई 18 अक्टूबर 2004, साथ ही तय हुआ कि उसे एंबुलेंस से बाहर से लाया जाएगा।
वीरप्पन को जिस एंबुलेंस से बाहर लाया जाना था, उसमें पहले से ही पुलिस के 2 जवान बैठे हुए थे, जिसमें से एक एंबुलेंस चला रहा था। वहीं वीरप्पन के साथ उसके 2 अन्य साथी भी थे। एंबुलेंस जैसे ही तय किए गए स्थान पर पहुंची, ड्राइवर ने इतनी जोर से ब्रेक लगाया कि सभी लोग बाहर गिर गए। दोनों पुलिसकर्मी वहां से भाग गए। इशारा मिलते ही वीरप्पन की मौत का सामान लेकर तैयार पुलिसकर्मियों ने एंबुलेंस पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी और 20 मिनट तक 338 राउंड धड़ाधड़ गोलियां दागी गईं। जब फायरिंग रुकी तो वीरप्पन समेत उसके दोनों साथी मौत की नींद में सो चुके थे। इस तरह से 20 मिनट में 20 साल तक चले आतंक का अंत हो चुका था।