पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में बंदूकधारियों द्वारा कुर्रम इलाके में शियाओं के यात्री वाहनों पर गोलीबारी कर 40 लोगों को मारे जाने के बाद बड़े पैमाने पर शिया-सुन्नी दंगे चल रहे हैं। इस घटना के बाद हुई हिंसा में गोलीबारी के बाद 30 से अधिक लोग मारे गए हैं और कुर्रम इलाके के लोग अपने घरों को छोड़कर भाग रहे हैं। एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया है कि करीब 300 परिवार सुरक्षा के कारणों के चलते हंगू और पेशावर चले गए हैं। दोनों समूहों के बीच कई महीनों से जारी इस हिंसा में अब तक 150 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और सैंकड़ों लोग घायल हुए हैं।
पाकिस्तान मुख्य रूप से सुन्नी मुस्लिम देश है लेकिन अफगानिस्तान सीमा के पास स्थित कुर्रम जिले में शिया आबादी काफी है। इन दोनों समुदायों के बीच सांप्रदायिक तनाव कई दशकों से बना हुआ है। पाकिस्तान में सांप्रदायिक हिंसा में लोगों की मौत आए दिन होती रहती हैं। खास तौर पर कुर्रम जिले में प्रशासन की विफलताओं, जनजातीय लोगों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और बाहरी भू-राजनीतिक प्रभावों के कारण हिंसा का इतिहास रहा है।
कहां है कुर्रम?
पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी प्रांत खैबर पख्तूनख्वा में स्थित कुर्रम जिला अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित है। करीब 7 लाख की आबादी वाला यह जिला पाकिस्तान के किसी भी बड़े शहर की तुलना में अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के अधिक नजदीक है। इसकी सीमा अफगानिस्तान के खोस्त, पक्तिया, लोगर और नंगरहार प्रांतों से भी लगती है। इन प्रांतों को आईएसआईएल और पाकिस्तान तालिबान (टीटीपी) जैसे शिया विरोधी सशस्त्र समूहों का सुरक्षित ठिकाना माना जाता है। इस क्षेत्र में शिया और सुन्नी बहुसंख्यक समूहों के बीच सांप्रदायिक संघर्ष का इतिहास रहा है। इस क्षेत्र में पिछले दशक में उग्रवाद भी सामने आया है और टीटीपी व अन्य सशस्त्र समूहों द्वारा शिया समुदाय को निशाना बनाकर लगातार हमले किए गए हैं।
कुर्रम में कितनी है शिया-सुन्नी आबादी?
2023 की जनगणना के अनुसार, कुर्रम की जनसंख्या में से 99% से अधिक लोग पठान (पख्तून) हैं जो तुरी, बंगश, मंगाल, मुकबल, मसुझाई और परचमकानी जैसी जनजातियों से संबंधित हैं। इनमें तुरी और कुछ बंगश शिया हैं जबकि अन्य समूह सुन्नी मुसलमान हैं। 2018 में पाकिस्तान के चुनाव आयोग के सामने प्रस्तुत रिपोर्ट में बताया गया था कि कुर्रम जिले की शिया मुसलमानों की जनसंख्या 45% के करीब है। शियाओं की अधिकतर आबादी ऊपरी कुर्रम तहसील में रहती है जबकि निचले और सेंट्रल कुर्रम में सुन्नियों का प्रभाव अधिक है।
क्यों हुईं हालिया झड़पें?
हाल ही में हुई झड़पों का कारण क्या था? स्थानीय शांति समिति के सदस्य और इस सप्ताह बैठक करने वाले जिरगा के सदस्य महमूद अली जान ने बताया कि यह संघर्ष के बीच बोशेहरा गांव में एक जमीन को लेकर हुआ, जो पाराचिनार शहर से 15 किमी दक्षिण में स्थित है। जान ने अल जजीरा से कहा, “यह मूल रूप से शिया जनजाति के स्वामित्व वाली कृषि भूमि का एक टुकड़ा था जिसे उन्होंने खेती के उद्देश्य से सुन्नी जनजाति को पट्टे पर दिया था। स्थानीय शांति समिति के सदस्य महमूद अली जान ने बताया कि समिति ने तुरंत स्थिति को शांत करने की कोशिश की और सरकार से हस्तक्षेप करने के लिए कहा लेकिन सरकार ने प्रतिक्रिया देने में देर कर दी थी।
क्या है इस विवाद का इतिहास?
शिया तुरी ने कभी ऊपरी और निचले कुर्रम में बहुत सी भूमि पर नियंत्रण किया था लेकिन अब वे ज्यादातर ऊपरी कुर्रम तक ही सीमित हैं। जमीन पर कब्जे, जनजातीय प्रतिद्वंद्विता और संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा के चलते ही यहां लंबे समय से सांप्रदायिक तनाव का इतिहास रहा है। उत्तर-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेजों द्वारा कुछ जनजातीय समूहों को संरक्षण दिया गया जिसका नुकसान दूसरे समूहों को होता रहा और दोनों के बीच विवाद लगातार गहराता ही चला गया। अंग्रेजों के जाने के बाद कुर्रम संघीय प्रशासित जनजातीय क्षेत्रों (FATA) का हिस्सा बन गया जहां 20वीं सदी के शुरुआती 2018 तक लागू रहे थे। इसके बाद FATA को खैबर पख्तूनख्वा में मिला दिया गया था।
80 के दशक में हिंसा को मिली हवा
ईरान में 1979 में इस्लामी क्रांति और शियाओं के नेतृत्व वाले समूह के सत्ता में आने के बाद सऊदी अरब और ईरान के बीच प्रतिस्पर्धा शुरु हो गई थी। कुर्रम इस प्रतिस्पर्धा का युद्धक्षेत्र बन गया जिसमें ईरानी और सऊदी क्रमशः शिया और सुन्नी समूहों का समर्थन किया करते थे। इस विवाद के चलते समूहों के बीच पुरानी दुश्मनी फिर ताजा हो गई और लगातार सांप्रदायिक हिंसा जैसे हालात बने रहे। 1979-89 के बीच करीब दशक भर लंब चले सोवियत अफगान युद्ध ने भी यहां अस्थिरता पैदा करने में मदद की थी। इस दौरान कुर्रम अमेरिका के समर्थन वाले मुजाहिदीनों का लॉन्च पैड बना हुआ था।
वहीं, इस दौरान बड़ी संख्या में सुन्नी शरणार्थी भी वहां आए। इस युद्ध के चलते पैदा हुए हालातों ने यहां कई सशस्त्र समूहों को जन्म दिया था। 1977 से 1988 तक पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल जिया-उल-हक ने इस क्षेत्र में सुन्नियों को और प्रभावशाली बना दिया। जिया की नीतियां सुन्नियों का समर्थन करने वाली थीं जिससे पूरे पाकिस्तान में सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ था। इस क्षेत्र में शियाओं का प्रभाव कम करने के लिए जिया ने सुन्नी अफगान शरणार्थियों को जगह दी थी।
2007 में मारे गए थे 2,000 लोग
पिछले 7 दशकों में सांप्रदायिक हिंसा की कई बड़ी घटनाएं हुई हैं लेकिन यहां गंभीर झड़प 2007 में शुरू हुई थी। 2007 में शिया और सुन्नी जनजातियों के बीच हुई लड़ाई लगभग चार वर्षों तक चली थी। इस दौरान कई गांवों में आग लगा दी गई थी और हजारों लोगों को इस क्षेत्र को छोड़कर देश के दूसरे हिस्सों में शरण लेनी पड़ी थी। पाकिस्तान के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इस दौरान इन झड़पों में 2,000 लोग मारे गए जबकि 5,000 से अधिक लोग घायल हो गए थे। 2011 में पाकिस्तानी सेना और स्थानीय आदिवासी बुजुर्गों की मदद से इस लड़ाई को खत्म किया जा सका था।
मौजूदा हिंसा लंबे समय से चली आ रही इस लड़ाई का ही नया रूप है और यह संकट दिन-ब-दिन गहराता ही जा रहा है। पाकिस्तान के सामने आंतरिक चुनौतियों की एक लंबी कड़ी है जिसका यह छोटा सा हिस्सा है। आर्थिक मोर्च पर सबसे बड़े संकट से जूझ रहे पाकिस्तान के सामने यह एक बड़ी चुनौती है।