सेना पर बनी फिल्मों से तो आपको पता ही है कि ‘टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी’ फैल जाती है! चाहे वो भारत-पाक युद्ध पर थोड़े पुराने दौर में बनी ‘बॉर्डर’ जैसी सत्य के काफी करीब की फिल्में हों, या उरी हमले पर आधारित फिल्में, कोई भी विवादों से मुक्त नहीं रहीं। कुछ खास जमातों की मानें तो ये नफरत फैलाने वाली फिल्में हैं। आम आदमी की राय इससे बिलकुल अलग रही।
उसने “हॉज द जोश” जैसे फिल्मी डायलॉग को ट्रॉल्लिंग के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश करने वालों को भी सोशल मीडिया पर जमकर घसीटा। ऐसे ही ‘शौर्य’ जैसी फिल्में जो सच को किसी दूसरे पक्ष से दिखाने का प्रयास कर रही थीं, उन्हें अपेक्षित कामयाबी तो नहीं ही मिली, उल्टा फिल्म में KK मेनन द्वारा निभाए गए किरदार के जैसे मीम सोशल मीडिया पर चलते हैं, वो फिल्म बनाने वालों के उद्देश्य का ठीक उल्टा ही हैं।
अब नहीं चलेगी निर्माता-निर्देशक की तानाशाही
थोड़ा पहले तक का समय देखें तो इस किस्म का विरोध केवल ‘उर्दूवुड’ (यानी बॉलीवुड) की फिल्मों को झेलना पड़ता था। समय बदला और जैसे-जैसे ‘बाहुबली’ या ‘कान्तारा”’जैसी फिल्मों के साथ दक्षिणी भारत की फिल्में भी पूरे देश में OTT से लेकर मल्टीप्लेक्स तक में देखी जाने लगीं, वैसे-वैसे फिल्मकार किस चीज को कैसे दर्शाएगा, इसमें भी लोकतंत्र आने लगा।
अब केवल निर्माता-निर्देशक की तानाशाही नहीं चलती, यानी वो कुछ भी बनाकर परोस दें और दर्शक को देखना ही पड़ेगा, ये नहीं चलता। अब दर्शक भी बताने लगा है की उसे क्या देखना है और क्या नहीं। इस दौर ने सीधा बॉयकाट कर देने के भी कई सफल उदाहरण देखे और फिल्मों को बॉक्स-ऑफिस पर मुंह की खानी पड़ी। निर्माता-निर्देशक से लेकर फिल्म कलाकार भी इसकी शिकायत करते सुनाई दिए। इन शिकायतों से कुछ खास बदला नहीं। उल्टा ग्राहक (इस स्थिति में दर्शक) की ही चलेगी, ये और स्पष्ट कर दिया गया।
इस विरोध तक स्थिति ये थी कि बॉयकाट चुपचाप होता था। कोई भीड़ सड़कों पर उतरकर वैसे विरोध नहीं करती थी, पोस्टर फाड़ने या सिनेमाघर में तोड़-फोड़ नहीं करती थी जिसका अच्छा अनुभव कमल हसन को ‘दशावतारम’ या मणिरत्नम को ‘बॉम्बे’ बनाने पर हुआ था। एक समुदाय विशेष की भीड़ की तरह इस बार कोई आग लगाने तो नहीं उतरा, लेकिन सड़कों पर उतरकर तमिल ब्राह्मण एक सैनिक पर बनी फिल्म का ही विरोध कर रहे हैं। ‘आमरण’ नाम की ये फिल्म मेजर मुकुंद वरदराजन के जीवन पर आधारित है। कोल्लीवुड (तमिल फिल्म इंडस्ट्री) में शायद ही कभी सेना पर या सैनिकों पर आधारित फ़िल्में बनती हैं।
इस बार बनी भी है तो फिल्म में तमिल ब्राह्मणों की पहचान को मिटाने और द्रविड़ राजनीति को बढ़ावा देने के आरोप आ गए हैं। फिल्म में शिवकार्तिकेयन मुख्य भूमिका में हैं, इसलिए बॉक्स-ऑफिस पर फिल्म खूब चल रही है।
DMK-उदयनिधि का सनातन विरोधी प्रोपगंडा
कश्मीर में इस्लामी आतंकियों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए मेजर मुकुंद वरदराजन को मरणोपरांत ‘अशोक चक्र’ मिला था। तमिलनाडु के लिए ये चौथा ‘अशोक चक्र’ था। उनकी पत्नी के नजरिए से दिखाई गयी इस फिल्म को राजकुमार पलनिसामी ने निर्देशित किया है। विवाद बेवजह भी नहीं, क्योंकि निर्माता कंपनी ‘राज कमल इंटरनेशनल’, उन्हीं कमल हसन की है, जो इस किस्म के एजेंडा को फैलाने के लिए पहले से जाने जाते हैं।
इसके अलावा फिल्म के वितरण का काम जो ‘रेड जायंट मूवीज’ देख रही है, वो किसी और की नहीं बल्कि DMK के युवा-खंड के सेक्रेटरी और उप-मुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन की है जो इसी तरह के बयानों और विचारों के लिए पहले से कुख्यात हैं। टीवी डिबेट से लेकर सोशल मीडिया तक फिल्म में क्या दर्शाया गया है, और वो क्यों गलत है, इसकी चर्चा होनी जारी है।
फिल्म में तमिल ब्राह्मण मेजर मुकुंद की सांस्कृतिक पहचान तो गायब कर दी गई है, लेकिन उनकी पत्नी इंदु की ईसाई पहचान पूरी तरह – गले में टंगे क्रॉस और घर में लगे बड़े से जीसस की पेंटिंग से दर्शाई गई है। असली जीवन में मेजर मुकुंद के परिवार ने उनके ईसाई लड़की से विवाह का कोई विरोध नहीं किया था। हिन्दू थे, उसमें भी ब्राह्मण तो प्रेम और विवाह जैसे मामलों में वो जातिनिरपेक्ष और धर्मनिरपेक्ष भी थे। फिल्म में उन्हें कट्टरपंथी जैसा दर्शाया गया है। फिल्म के निर्देशक राजकुमार पलानीसामी का कहना है कि मेजर मुकुंद की तमिल ब्राह्मण पहचान को छुपाने का कोई प्रयास उन्होंने जानबूझकर नहीं किया।
‘नाजी दौर का सामना कर रहे तमिल ब्राह्मण’
इसकी तुलना में भाजपा के नेता K अन्नामलाई ने फिल्म बनानेवालों की देशभक्ति फिल्म बनाने के लिए प्रशंसा ही की ही। आम आदमी की राय बिलकुल अलग है। एक पूर्व IAS अधिकारी अनंतकृष्णन पक्षीराजन ने तो यहाँ तक कह दिया कि तमिल ब्राह्मणों को नाजी दौर जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है और उनकी पहचान और वास्तविक इतिहास को दिखाने से पहले उसे पेरियारवादी गटर में बप्तिस्मा करवाना पड़ता है।
निर्देशक का बार-बार कहना है कि परिवार मेजर मुकुंद की भारतीय और तमिल पहचान को ही दिखाना चाहता था इसीलिए जैसे कि मेजर मुकुंद अपने पिता को बुलाते थे, वैसे ही फिल्म में भी उन्हें अपने पिता को ‘नैना’ बुलाते दिखाया गया है। फिल्म बनाने वालों का ये भी कहना है कि पत्नी इंदु भी तमिल पहचान दिखाने की ही बात करती थी। जाहिर है फिल्म बनाने वालों के पास अच्छी PR टीम है, क्या बोलना है, कैसे बोलना है, इसका अच्छा अभ्यास किया गया है। फिर एक तथ्य ये भी है कि फिल्म का विवादों के घेरे में आना उसे प्रचार दिलवाता है इसलिए फिल्म आते ही अक्सर नायिकाएँ अनर्गल बयान देना भी शुरू करती हैं, जिसे लोग पहचानने लगे हैं।
बहरहाल, सोपियां जिले में अप्रैल 2014 को हिजबुल मुजाहिदीन के एक कमांडर को मार गिराने के क्रम में तीन गोलियां लगने के बाद, अस्पताल जाने के रास्ते में मेजर मुकुंद वरदराजन ने वीरगति पाई थी। राजपूत रेजिमेंट की और से सेना के 44 राष्ट्रीय राइफल्स में नियुक्त मेजर वरदराजन की कहानी इसी बहाने दस वर्ष बाद जीवित तो हो ही गई है। उनके साथ ही तमिल ब्राह्मणों की पहचान मिटाने की जो साजिशें दिखने लगी हैं, उनपर भी नजर बनाए रखिए। फिल्में इतिहास बदलने का अच्छा माध्यम तो होती ही हैं!