बिस्नु जू के पग तें निकसि संभु सीस बसि… माँ गंगा और गणेश के आराधक सैयद गुलाम नबी, सनातन परंपराओं से था स्नेह

भारत में जिस स्थान पर रसलीन रहते थे उस भूमि पर मुस्लिम ही रहा करते थे और रोचक तथ्य यह है कि वहाँ के सभी मुस्लिम साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में भारतीयता, सनातन को महत्व दिया। यह स्थान उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले का बिलग्राम नामक गाँव है।

रसलीन, सैयद गुलाम नबी

रसलीन ने ब्रजभाषा सीखने के लिए उस भाषा में ग्रन्थ की ही रचना कर दी, निश्चित रूप से यह उनकी असाधारण प्रतिभा को परिलक्षित करता है

मध्यकाल में जो हिंदी साहित्य हमें प्राप्त होता है उसे समृद्ध करने में तत्कालीन रचनाकारों का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है। मध्यकाल के रचनाकारों ने जो साहित्य रचा, उस साहित्य की समृद्धि के कारण ही इसे स्वर्ण युग कहा गया। निःसन्देह मध्यकाल का यह दौर दो संस्कृतियों की टकराहट का दौर था, विदेशी संस्कृति भी भारतीय संस्कृति पर थोपी जा रही थी किन्तु वास्तविकता यह है कि संस्कृति थोपी नहीं जा सकती बल्कि जब भी दो संस्कृतियों का मेल होता है तो सहज ही दोनों एक दूसरे से अनेक तत्व ग्रहण करती हैं।

भारत में भी ऐसा हुआ किन्तु यहाँ बात ध्यान रखनी चाहिए कि भारतीय संस्कृति में विदेशी संस्कृति के कुछ तत्व भले ही शामिल हुए हों किन्तु मध्यकाल में भी अनेक विदेशी मूल के लोगों ने भारत में आकर भारतीय संस्कृति को अपनाया। आज हम बात करेंगे एक ऐसे ही मुस्लिम साहित्यकाररसलीनकी जो मूलतः भारत से नहीं थे किंतु उनकी रचनाओं में भारतबोध, भारतीय मूल्य आदि बेहद सुंदर ढंग से मिलते हैं। रसलीन ने स्वयं अपनी वंश परम्परा के बारे में बताते हुए कहा है कि इनके पूर्वज हिंदुस्तान में आकर बस गए थे– “प्रगट हुसेनी बासती, बंस जो सकल जहान। तामैं सैद अब्दुल फरह, आए मधि हिंदुवान।रसलीन यहाँ हिंदुस्तान के स्थान पर हिंदुवान शब्द का प्रयोग करते हैं। हिंदुवान अर्थात जहाँ हिन्दू रहते हैं, हिंदुओं का जनपद आदि।

हालाँकि, कुछ तथाकथित लोग भले ही आज इस बात को न मानें किन्तु मध्यकाल के उस दौर में भारत में आने वाले अनेक मुस्लिम कवियों ने यहाँ की संस्कृति, मूल्यों और परम्पराओं को अपनाते हुए साहित्य रचना की। जिसके स्पष्ट साक्ष्य भी हमें प्राप्त होते हैं। हालाँकि इन कवियों के लिए यह करना आसान नहीं था क्योंकि केंद्रीय सत्ता कट्टर और रूढ़िवादी थी जिसकी वजह से भारतीय परम्पराओं, संस्कृति और मूल्यों को हीन बताने का कुत्सित प्रयास भी चल रहा था।

भारतीय परंपराओं से प्रेरित थे बिलग्राम के मुस्लिम साहित्यकार

अब रसलीन के विषय में हम यह तो जान चुके हैं कि वे एक विदेशी मूल के व्यक्ति थे। इनका पूरा नाम सैयद गुलाम नबीरसलीनथा एवं इनके पिता का नाम सैयद मुहम्मद बाकर बताया जाता है। रसलीन का जन्म कब हुआ था इस सम्बंध में एक दोहे में संकेत मिलता है। इस दोहे में वे कहते हैं ‘मैं (रसलीन) सूरी के फूल (सूरजमुखी) के समान खिला हूँ और अपनी जन्म तिथि जो मैंने स्वयं कहीनूर चश्मे बाकरे अब्दुल हमीदम’ (1111 हिजरी) है।इसी दोहे के आधार पर इतिहासकार रामनरेश त्रिपाठी ने रसलीन के जन्म का वर्ष सन 1689 . माना है। दोहा यहाँ पढ़ा जा सकता है– 

नूर चश्मे मीर बाकर गुफ्त बामन, चूँ गुले खुरशीद दर आलम दमीदम
साल तारीखे तवल्लुद खुद बेगुफ्तम, नर चश्मे बाकरे अब्दुल हमीद।

हमें ज्ञात हो गया कि ये विदेशी मूल के व्यक्ति थे किंतु भारत में ये किस स्थान पर रहते थे यह जानना भी महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि भारत में जिस स्थान पर रसलीन रहते थे उस भूमि पर मुस्लिम ही रहा करते थे और रोचक तथ्य यह है कि वहाँ के सभी मुस्लिम साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में भारतीयता, सनातन को महत्व दिया। यह स्थान उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले का बिलग्राम नामक गाँव है। बिलग्राम के मुस्लिम साहित्यकारों ने जिस तरह सनातन, भारतीय भक्ति, परम्पराओं को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया, हिंदी साहित्य में इस पर शोध कार्य हुए हैं एवं वर्तमान में भी हो रहे हैं।

सैयद ‘रसलीन’ ने ब्रजभाषा सीखने के लिए लिख डाला ग्रन्थ

यह ठीक है कि सैयदरसलीनमुस्लिम थे किंतु उन्हें संस्कृत भाषा और साहित्य का पंडित कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा।अंग दर्पण‘ (1737 .) औररसप्रबोध‘ (1749 .) इनकी दो रचनाएँ हमें प्राप्त होती हैं। इनके अध्ययन से हमें ज्ञात होता है कि इन्हें भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा और रूढ़ियों की गहरी जानकारी थी। उसकी बारीकियों को समझकर उन्होंने इन रीतिग्रंथों की रचना की। विभिन्न लक्षणों का उल्लेख करने के बाद उन्होंने जो उदाहरण दिए हैं उनमें भारतीय संस्कृति, इतिहास, लोक और पुराण के संदर्भ निहित हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि वे संस्कृत के बड़े विद्वान थे। यह बात तो हो गयी इनकी विद्वता की। हालाँकि इनकी प्रतिभा का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है किअंगदर्पणकी रचना रसलीन ने ब्रजभाषा सीखने के लिए की।

जहाँ सामान्य व्यक्ति किसी भी भाषा को सीखने के लिए अनेक प्रयत्न करता है तब जाकर वह उस भाषा को बोलसमझ सकता है किंतु रसलीन ने ब्रजभाषा सीखने के लिए उस भाषा में ग्रन्थ की ही रचना कर दी, निश्चित रूप से यह उनकी असाधारण प्रतिभा को परिलक्षित करता है।

अब यदि रसलीन के काव्य में सनातनराग को देखें तो वास्तव में इनके दोहों को पढ़कर यह अनुमान लगाना कठिन हो जाएगा कि ये रचना किसी मुस्लिम व्यक्ति ने लिखी है। रसलीन ने अपनी रचनाओं में गुरु को महत्व दिया है। राम, कृष्ण, सीता, पार्वती, गंगा, लक्ष्मण, हनुमान, सरस्वती, इंद्र आदि से जुड़े अनेक प्रसंग रसलीन  के दोहों में दिखाई देते हैं। भारतीय पौराणिक इतिहास से जुड़े इन प्रसंगों का रसलीन की रचनाओं में होना यह प्रमाणित करता है कि वे सनातन में गहरी आस्था रखते थे। रसलीन ने अपनी रचनाओं के लिए विषयवस्तु एवं प्रतीकों का चयन भारतीय महाकाव्यों की परंपरा से किया है, फ़ारसी साहित्य से नहीं। इसीलिए सही अर्थों में इनका सम्पूर्ण साहित्य भारतीय संस्कृति का संवाहक प्रतीत होता है। रसलीन की सनातन में आस्था को जानने के लिए हम उनकी रचनाओं को ही आधार बनाएँगे। हम जानते हैं कि सनातन धर्म में किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व विघ्नहर्ता गणेश की प्रार्थना एवं स्तुति की जाती है। रसलीन भी अपने ग्रन्थरस प्रबोधमें सोहिल विवाह के प्रसंग में गणेश की वंदना करते हैं – 

गनपति आराधि आदि, उत्तम सगुन साधि, सुभ घरी, धरी लगन।
गावत गुनीन गायन, मोहत नर नारायन, इंद्रादिक सुन सुन होत मगन।” 

यहाँ गणेश की प्रार्थना, एक उत्तम शकुन साधना, शुभ घड़ी एवं शुभ लग्न विचारना और नरनारायण तथा इंद्रादिक देवों का उल्लेख जिस तरह मिलता है इससे स्पष्ट होता है कि रसलीन सनातन परंपरा में पूर्णतः पगे हुए हैं। भारतीय मूल्यों में उनकी आस्था की गहराई को इस बात से भी मापा जा सकता है कि वे अपने गुरु तुफैल मुहम्मद बिलग्रामी की प्रशस्ति करते हुए उन्हें देवताओं के गुरु कहे जाने वाले ब्रहस्पति का अवतार बताते हैं।

जहाँ आज अनेक कट्टरपंथी लोग हिन्दू देवीदेवताओं एवं सनातन परंपराओं का सोशल मीडिया पर मखौल उड़ाते हुए दिखेंगे उनके ही धर्म में आने वाले लोग मध्यकाल के दौर में सनातन की खूबसूरती की तारीफ करते नहीं थके, सिर्फ तारीफ ही नहीं बल्कि सनातन को आत्मसात भी किया। अपने गुरु की बात करते हुए रसलीन लिखते हैं– 

देस बिदेसन के सब पंडित, सेवत हैं पग सिष्य कहाई।
आयो है ज्ञान सिखावन को,सुर को गुरु मानुस रूप बनाई।

गंगा नदी में श्रद्धा रखते थे रसलीन

अपने गुरु को देवगुरु का अवतार मानना रसलीन के सनातनी संस्कार का ही बोध होता है। रसलीन के साहित्य में तत्कालीन लोक जीवन की अनुभूतियाँ, प्रचलित लोक कथाएँ एवं भारतीय पौराणिक इतिहास के प्रसंगों की विविधता के साथ ही प्रचुरता भी है। उदाहरण के लिए वे एक हिन्दू भक्त की भाँति ही भगीरथी गंगा की भी स्तुति भारतीय पद्धति के अनुसार करते हुए स्मरण करते हैं कि गंगा विष्णु के पैरों से निकलकर शिव के सीस में जा बसी। जैसे आज भी हिंदुओं में गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों को लेकर मातृत्व का भाव है, उनके प्रति अपार श्रद्धा और भाव है। हम मानते हैं कि इन नदियों में स्नान से रजोगुण और तमोगुण का अंत होकर सत्वगुण की प्राप्ति होती है। रसलीन के इस दोहे में भी इसी आस्था और श्रद्धा को देखा जा सकता है– 

बिस्नु जू के पग तें निकसि संभु सीस बसि, भगीरथ तप तें कृपा करी जहाँ पैं।
पतिततन तारिबे की रीति तेरी एरी गंग, पाइ रसलीन इन्ह तेरेई प्रमाण पैं।
कालिमा कलिंदी सुरसती अरुनाई दाऊ, मेटिमेटि कीन्हैं सेत आपने विधान पैं।
त्यों ही तमोगुन रजोगुन सब जगत के, करिके सतोगुन चढ़ावत बिमान पैं॥

आज कुछ कट्टरपंथी लोग नदियों को माता मानने पर सनातन का तिरस्कार करके अपनी मूढ़ता प्रदर्शित करते हैं, उन्हें रसलीन के इस दोहे को पढ़ना चाहिए और विचार करना चाहिए कि किस तरह एक विदेशी मूल एवं विदेशी धर्म से आने वाले व्यक्ति ने सनातन की खूबसूरती को पहचान कर उसे पूर्णतः आत्मसात कर लिया। उपर्युक्त उदाहरणों के अतिरिक्त रसलीन के काव्य में कृष्ण, राधा, गोपिकाएं, बंशी आदि भी खूब दिखाई देती है। शेषनाग को लेकर सनातन में कहा जाता है कि उन्होंने ही धरती का भार उठा रखा है रसलीन के दोहे में यह जिक्र भी दिखाई देता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सनातन के लगभग सभी पक्षों उससे जुड़े सभी प्रसंगों को रसलीन ने अपनी रचनाओं में स्थान दिया एवं सनातन को आत्मसात किया।

पठानों के साथ युद्ध करने वक्त हुई मृत्यु

इनका व्यक्तित्व कैसा था इनके दोहों से हमें ज्ञात होता है किंतु इनकी एक और विशेषता थी कि रसलीन ने ईश्वर और गुरु के अतिरिक्त किसी के सामने अपना मस्तक नहीं झुकाया। वे जीवन यापन के क्षेत्र में अपने कर्म के कारण प्रतिष्ठित थे। जहाँ एक ओर मध्यकाल में दरबारी कवि राजाओं को ही भगवान मां लिया करते थे वहीं रसलीन का स्वाभिमान उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता है। उनके यह दोहा इस दृष्टि से उल्लेखनीय है– 

तजि द्वार ईस को नवायो सीस मानुस को।
पेट ही के काज सब, लाज खोइ बावरे।।

रसलीन के विषय में यह ज्ञात होता है कि ये सिर्फ कवि ही नहीं बल्कि योद्धा भी थे। इतिहास की पुस्तकों का अध्ययन करने पर जानकारी मिलती है कि ये निपुण तीरंदाज, सुयोग्य सैनिक एवं अच्छे घुड़सवार थे। वो नवाब सफदरजंग की सेना में थे। कहा जाता है कि इनकी मृत्यु भी पठानों के साथ युद्ध करते हुए आगरा के समीप 1750 . में हुई। इस तरह मध्यकालीन साहित्य को अपना अमूल्य प्रदेय देकर सनातन में आस्था रखने वाले एक वीर योद्धा रसलीन इस भौतिक संसार से विदा ले गए। 

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