‘महाराष्ट्र के मुखिया’: वसंतदादा पाटील की कहानी, जिन्होंने कम पढ़े लिखे होने के बावजूद महाराष्ट्र को दिखाई शिक्षा की राह

‘महाराष्ट्र के मुखिया’: वसंतदादा पाटील की कहानी, जिन्होंने कम पढ़े लिखे होने के बावजूद महाराष्ट्र को दिखाई शिक्षा की राह

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों की इस सीरीज में आज हम बात करेंगे वसंतराव बंडूजी पाटील उर्फ वसंतदादा पाटील की जो ना केवल एक दिग्गज राजनेता थे बल्कि एक महान स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक भी रहे उन्होंने कृषि, शिक्षा, सहकार, उद्योग जैसे क्षेत्रों में शानदार काम किए। पाटिल को स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते समय गोली मार दी गई थी और जिस दिन उन्हें गोली मारी गई वह दिन ‘शौर्य दिवस’ के नाम से जाना जाता है।

शहीदों की याद में छोड़ दी चाय

वसंतदादा पाटिल का जन्म 13 नवंबर 1917 को सांगली जिले के मिराज तालुका के पदमाले गांव में हुआ था और जब वसंतदादा करीब एक वर्ष के थे तब उनके माता-पिता की प्लेग महामारी के दौरान एक ही दिन में मृत्यु हो गई थी। इसके बाद वसंतदादा का पालन-पोषण उनकी दादी ने किया और परिस्थितियां ठीक ना होने के चलते बहुत अधिक नहीं पढ़ सके थे। बहुत कम उम्र में ही वसंतदादा स्वतंत्रता के आंदोलन में शामिल हो गए थे।

सविनय अवज्ञया आंदोलन के दौरान सोलापुर के 4 युवकों की मौत हो गई थी तो उनकी याद में वसंतदाद ने चाय पीना छोड़ दिया था। देखते-देखते स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भागीदारी बढ़ती गई। माना जाता है कि उनके ऊपर नेताजी सुभाष चंद्र बोस का भी प्रभाव थे और हिंसक आंदोलन में भाग ले रहे थे, 1942 में सांगली जिले में टेलीफोन के तार काटने, पोस्ट ऑफिस जलाने, रेलवे को नुकसान पहुंचाने और पिस्तौल-बम का इस्तेमाल करके अंग्रेजों के प्रति अपना विरोध तेज कर दिया था।

कंधे में लगी अंग्रेजों की गोली

1943 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पकड़ने के लिए वसंतदादा पर 1,000 रुपए का इनाम रखा था। 22 जून 1943 की रात जब वे फिल्म देखकर अपने घर लौटे तो किसी ने पुलिस को उनके वहां होने की सूचना दे दी जिसके बाद पुलिस ने उन्हें घेर लिया। वसंतदाद ने स्थिति काबू से बाहर होने पर आत्मसमर्पण करने का फैसला किया और पुलिस उन्हें व कई अन्य लोगों को गिरफ्तार कर सांगली जेल ले गई। उनके वकील पाटणकर सेशन कोर्ट में व्यस्त थे और फैसले के लिए 26 जुलाई 1943 की तारीख दी गई लेकिन वसंतदादा ने इससे पहले ही जेल से भागने का फैसला कर लिया था।

24 जुलाई 1943 को वसंतदादा बहाना बनाकर कमरे से बाहर निकले और योजना के अनुसार दूसरे क्रांतिकारी भी बाहर आ गए। उन्होंने वहां मौजूद सुरक्षाकर्मियों से बंदूकें छीनीं और जेल से बाहर निकले। दादा के साथ बाकी सभी क्रांतिकारी हवा में फायरिंग करते हुए सांगली बाजार आए और कृष्णा नदी की ओर भाग गए। पुलिस को जैसे ही घटना की सूचना मिले वे क्रांतिकारियों को ढूंढने के लिए उनके पीछे भाग पड़े। इन लोगों में शामिल एक क्रांतिकारी अण्णासाहेब पत्रावले दौड़ते-दौड़ते थककर एक जगह रुको और उन्होंने सरेंडर कर दिया लेकिन पुलिस ने फिर भी उन्हें गोली मार दी और वे शहीद हो गए।

वसंतदादा इस गोलीबारी के बीच एक पेड़ के पीछे चले गए लेकिन दुर्भाग्य से एक गोली उनके कंधे में लगी और वे खून से लथपथ होकर बेहोश हो गए।  आज भी सांगली के इतिहास में इस दिन को ‘शौर्य दिवस’ के नाम से जाना जाता है। इसके बाद पुलिस ने दादा को पकड़ लिया और उनके खिलाफ फिर से मुकदमा चलाया गया जहां उन्हें जेल तोड़ने के आरोप में कई वर्षों की जेल की सजा सुनाई गई।

 

वसंतदादा का मुख्यमंत्री काल और शरद पवार की बगावत

आजादी के बाद हुए चुनावों में वसंतदादा सांगली से विधानसभा के लिए चुने गए और उन्होंने 25 वर्षों तक विधानसभा और लोकसभा में सांगली का प्रतिनिधित्व किया। वसंतराव नाईक की कैबिनेट में वसंतदादा पाटिल 1972 में पहली बार मंत्री बने और बाद में शंकरराव चव्हाण के मुख्यमंत्री के कार्यकाल के दौरान भी वे मंत्री रहे। वसंतदादा वसंतदादा मई 1977 में पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। आपातकाल के बाद 1978 में हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और विधानसभा की स्थिति त्रिशंकु बन गई। इस चुनाव से पहले कांग्रेस का बंटवारा हो गया था दोनों धड़ों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था।

इन चुनावों में 99 सीटें जीतकर जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और कांग्रेस (आई) को 62 जबकि दूसरे धड़े कांग्रेस (यू) को 69 सीटें मिलीं। वसंतदादा पाटिल के प्रयासों से कांग्रेस के दोनों धड़े मिल गए और उन्होंने एक बार फिर मार्च 1978 में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। हालांकि, वे ज्यादा दिनों तक पद पर नहीं रहे सके और उनकी सरकार में मंत्री शरद पवार ने विद्रोह कर दिया। शरद पवार ने अपने करीब 40 समर्थक विधायकों के साथ सरकार छोड़ दी और सरकार अल्पमत में होने के कारण वसंतदादा पाटिल को इस्तीफा देना पड़ा। वसंतदादा पाटिल फिर से फरवरी 1983 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने और वह दो साल और 120 दिनों तक पद पर रहे। कुछ वर्षों तक उन्होंने राजस्थान के राज्यपाल के रूप में भी काम किया था।

‘सहकार महर्षि’ वसंतदादा

1956-57 में सांगली की किसान सहकारी चीनी फैक्ट्री की स्थापना की थी और वे रोज 12-14 घंटे फैक्ट्री स्थल पर रहा करते थे। वसंतदादा को सहकार के क्षेत्र में काम करने के लिए ‘सहकार महर्षि’ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि सहकार के क्षेत्र में महाराष्ट्र आज जिस स्थिति में है उसके पीछे सबसे बड़ा योगदान वसंतदादा का है। महाराष्ट्र राज्य सहकारी चीनी मिल संघ के अध्यक्ष (1964-65, 1966-67), महाराष्ट्र राज्य सहकारी फर्टिलाइजर्स ऐंड कैमिकल्स लिमिटेड तथा राष्ट्रीय सहकारी चीनी मिल संघ के अध्यक्ष भी रहे। साथ ही, वसंतदादा राज्य सहकारी बैंक के अध्यक्ष भी रहे हैं।

वसंतदादा खुद बहुत पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन उन्होंने महाराष्ट्र के गांवों में स्कूल, कॉलेज और व्यावसायिक शिक्षण संस्थान स्थापित करने का रास्ता दिखाया। उन्होंने राज्य में कई शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना कराई। उनकी उपलब्धियों के लिए वसंतदादा को 1967 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। वसंतदादा का 1 मार्च 1989 को बॉम्बे में निधन हो गया था।

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