हिमाचल प्रदेश के बद्दी में विधायक की पत्नी का चालान काटने पर एक युवा महिला पुलिस कप्तान छुट्टी पर भेज दी जाती है, तो राजस्थान में एक ‘दबंग’ नेता SDM को सरेआम पीट देता है, लेकिन सार्वजनिक तौर पर गुंडागर्दी की ये शक्ति माननीयों को आख़िर कहां से प्राप्त होती है?
भारत दुनिया का सबसे बड़ा और जीवंत लोकतंत्र है, जहां हर वर्ष कहीं न कहीं चुनाव होते हैं और जनता अपने जनप्रतिनिधियों को चुनकर विधायक या सांसद बनाती है, ताकि वो उन्हें सिस्टम की अराजकता से बचा सकें, लेकिन अगर ये माननीय जनप्रतिनिधि ही अराजक होने लगें और सारी मर्यादाओं को ताक पर रखकर सरेआम अधिकारियों पर ही थप्पड़ बरसाने लगें, तो उनसे लोकतंत्र को कौन बचाएगा? अगर आप सोशल मीडिया पर थोड़ा भी वक़्त बिताते हैं तो यकीनन आप तक भी राजस्थान के देवली की ये तस्वीरें पहुँच ही चुकी होंगी, जिनमें आप जगह जगह आग की लपटें, जली हुई गाड़ियाँ और पत्थरों से अटी सड़कें देख पा रहे होंगे। राजस्थान के इस छोटे से गांव में बीते दो दिनों से जंग जैसा माहौल बना रहा और इस पूरे उपद्रव की वजह बना एक थप्पड़।
दरअसल, 13 नवंबर को अन्य दूसरे राज्यों की तरह राजस्थान की देवली उनियारा विधानसभा सीट में भी उपचुनाव के लिए वोटिंग हो रही थी, इसी बीच वहां से निर्दलीय प्रत्याशी नरेश मीणा अपने समर्थकों के साथ पोलिंग बूथ में जबरन घुसने की ख़बरें सामने आईं, जिसके बाद वहाँ मौजूद SDM ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो नरेश मीणा ने सबके सामने उन्हें ज़ोरदार थप्पड़ जड़ दिया। इस थप्पड़ कांड के बाद प्रशासन और नरेश मीणा के समर्थक आमने-सामने आ गए, पुलिस ने नरेश मीणा को गिरफ्तार करने की कोशिश की, तो वहाँ मौजूद सैकड़ों की भीड़ ने पुलिस पर हमला कर दिया और लोग मीणा को छुड़ाकर अपने साथ ले गए।
यही नहीं भीड़ ने पचास से ज़्यादा गाड़ियों में आग लगा दी और जमकर पथराव भी किया, जवाब में पुलिस ने भी लाठीचार्ज किया और आंसूगैस के गोले दागे। जल्दी ही मामले ने और तूल पकड़ लिया और एसडीएम को थप्पड़ मारने के विरोध में पूरे राजस्थान के RAS अधिकारी हड़ताल पर चले गए, जिसके बाद थप्पड़बाज प्रत्याशी नरेश मीणा को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन बात सिर्फ़ एक अधिकारी को थप्पड़ मारने या किसी नेता की सार्वजनिक गुंडागर्दी भर की नहीं है। बात लोकतंत्र की उस भावना की भी है, जो नरेश मीणा जैसे स्वघोषित नेताओं की वजह से अराजक होती जा रही है।
इस विवाद की गहराई को समझने के लिए इससे पहले पूरे प्रकरण को जानना आवश्यक है। टोंक ज़िले की देवली उनियारा विधानसभा के लोगों की माँग थी कि उनके यहाँ उपखंड कार्यालय खोला जाए और क्षेत्र में एसडीएम की तैनाती हो, ताकि ग्रामीणों को अपने सरकारी कामकाज के लिए अधिक दूर न जाना पड़े। अब पहली नज़र में तो ये माँग जायज़ भी लगती है और प्रासंगिक भी, क्योंकि चुनाव ही वो अवसर होते हैं, जब जनता को सिर्फ़ अपना जनप्रतिनिधि चुनने का ही नहीं, बल्कि अपनी भड़ास निकालने का भी अवसर मिलता है। लिहाजा इस पुरानी माँग को लेकर समरावता नाम के एक गाँव के लोगों ने मतदान का बहिष्कार कर दिया था। मतदान के बहिष्कार की जानकारी मिलते ही एसडीएम अमित चौधरी लोगों को समझाने वहाँ पहुंचे, लेकिन इसी दौरान उनकी वहाँ पहले से मौजूद निर्दलीय प्रत्याशी नरेश मीणा और उनके समर्थकों के साथ बहस शुरू हो गई।
नरेश मीणा ने SDM पर जबरन वोटिंग करवाने का आरोप लगाया और उन्हें सरेआम थप्पड़ मार दिया। अब जरा सोचिए एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी को सरेआम थप्पड़ मारने का ये अधिकार नरेश मीणा को किसने दिया? उस भीड़ ने जो उन्हें नेता मानकर उनके पीछे पीछे घूमती है, या फिर उस संविधान या लोकतंत्र ने जिसने उन्हें भारत का नागरिक होने के नाते चुनाव लड़ने की इजाज़त दी है?
लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है कि नरेश मीणा जैसे नेता न तो संविधान की इज़्ज़त करते हैं और न ही जनता की। क्योंकि अगर वाक़ई उन्हें जनता के मुद्दों की परवाह होती, उसके समाधान के लिए उनके पास थप्पड़ मारने की जगह कहीं बेहतर विकल्प उपलब्ध थे। लेकिन आप जानते हैं कि ऐसे नेताओं के लिए जनता और उसके हित सबसे आख़िरी पायदान पर होते हैं और प्रथम वरीयता पर सिर्फ़ और सिर्फ़ उनका वोटबैंक होता है। दुर्भाग्य या यूँ कहें कि विडंबना ये भी है कि ये वोटबैंक अक्सर उन्हें उसी सस्ती गुंडागर्दी से मिलता है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में ‘भौकाल’ कह कर भी संबोधित करने का प्रचलन है।
लेकिन उससे भी ज़्यादा दुर्भाग्य की बात ये है कि जनता का एक बड़ा वर्ग नरेश मीणा जैसे थप्पड़बाज नेताओं को बाहुबली एक्टिविस्ट समझ कर अपना आदर्श बना लेती है, मानो बाहुबली या भौकाली होना जनप्रतिनिधि होने की एक अनिवार्य शर्त हो। जरा सोचिए जिस नरेश मीणा के इशारे पर सैकड़ों गाड़ियाँ फूंक दी गई, पूरा शहर छावनी में तब्दील हो गया, उस पर पहले से ही क़रीब एक दर्जन केस दर्ज हैं, जिसमें मारपीट से लेकर चोरी और उपद्रव जैसे मामले भी हैं। लेकिन मज़े की बात ये है कि नरेश मीणा जैसे नेता इन मुक़दमों को मेडल की तरह सीने से लगाकर घूमते हैं ,और जनता इनकी गुंडागर्दी, दबंगई देख-देखकर निहाल हुआ करती है, इनकी राह में पलक पाँवड़े बिछा कर रखती है और एक इशारे पर बवाल करने के लिए भी तैयार रहती है।
तथाकथित ‘भौकाल’ के प्रति जनता और लोकतंत्र की इस कमजोरी को नरेश मीणा जैसे नेता अच्छे से जानते हैं और इसीलिए वो किसी एसडीएम पर हाथ उठाने से भी नहीं कतराते, लेकिन इनके इशारे पर तोड़फोड़ और बलवा करने को तैयार भीड़ को भी ये समझना चाहिए कि आख़िर उनसे ही मिली ताक़त के दम पर जब ये नेता किसी अधिकारी को थप्पड़ जड़ सकते हैं, तो क्या पावर मिलने पर वो आम लोगों के सम्मान, उनकी सुरक्षा की रत्ती भर भी परवाह करेंगे।