साल 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगे को लेकर भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में हाय-तौबा मचाई गई। विपक्षी दलों ने देश-दुनिया में ऐसा माहौल बनाया कि साबरमती एक्सप्रेस में हिंदू कारसेवकों को जलाने के बाद हुई हिंसा में राज्य की सरकार शामिल थी। चूँकि उस गुजरात में भाजपा की सरकार थी और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इसके कारण उन्हें विशेष तौर पर निशाना बनाया गया। उनको बदनाम करने के लिए देश-दुनिया में हर तरह लॉबिंग की गई।
हालाँकि, मामले की जाँच के लिए गठित आयोग ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी को क्लिनचीट दे दी, इसके बावजूद वोटबैंक की राजनीति की वजह से उन्हें निशाना बनाया जाता रहा।
यज्ञ में भाग लेकर लौट रहे थे रामभक्त
27 फरवरी, 2002 में हुई उस घटना को लेकर अब ‘द साबरमती रिपोर्ट’ नाम की एक फिल्म रिलीज हुई है। इसको लेकर गुजरात का गोधरा कांड एक बार फिर चर्चा में आ गया है। 27 फरवरी, 2002 की सुबह साबरमती एक्सप्रेस के कोच एस-6 को जला दिया गया था। इसमें बैठे 59 कारसेवकों की जिंदा जलकर मौत हो गई थी। मृतकों में 22 पुरुषों के अलावा 27 महिलाएँ और 10 बच्चे भी शामिल थे।
ट्रेन के इस कोच में बैठे कारसेवक अयोध्या में आयोजित यज्ञ में भाग लेकर वापस लौट रहे थे। 27 फरवरी की सुबह 7:45 बजे साबरमती एक्सप्रेस गोधरा स्टेशन पर पहुँची थी। जैसे ही ट्रेन गोधरा स्टेशन से रवाना होने लगी, उसकी चेन खींच दी गई। इसके बाद यह ट्रेन रूक गई। ट्रेन के रूकते ही रामभक्तों से भरे कोच एस-6 में 1000-2000 लोगों की भीड़ ने हमला किया। भीड़ ने ट्रेन पर पथराव कर दिया। उसके बाद उस कोच में पेट्रोल आदि डालकर आग लगा दी।
इस घटना के जानकारी मिलते ही पूरे गुजरात में सन्नाटा फैल गया। लोगों में बेचैनी शुरू हो गई। अगले दिन गुजरात के विभिन्न हिस्सों में दंगे शुरू हो गए। इन दंगों को रोकने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने तमाम जतन किए, लेकिन लोगों के आक्रोश के कारण इसमें लगभग 3000 लोग मारे गए। इसमें दोनों तरफ के लोग शामिल थे। बता दें कि गोधरा में हिंदू-मुस्लिम की लगभग बराबर आबादी है। यहाँ पर गोधरा से पहले भी कई बार भयानक दंगे हो चुके थे।
कांग्रेस ने किया आग में घी डालने का काम
खैर, साबरमती में हिंदुओं को जलाने के बाद दंगा शुरू होते ही कॉन्ग्रेस सहित विपक्षी दलों की बयानबाजी और कारस्तानी ने घी में आग डालने का काम शुरू कर दिया। लोगों ने साबरमती एक्सप्रेस में जिंदा जले रामभक्तों की चर्चा नहीं की, लेकिन दंगों में मारे गए मुस्लिमों को लेकर विक्टिम कार्ड खेलना शुरू कर दिया। इसके लिए नरेंद्र मोदी को दोषी बताया जाने लगा। सोनिया गाँधी से लेकर तमाम नेता उन्हें मौत के सौदागर से क्या-क्या तमगा देने लगे।
हालाँकि, तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद राज्य सरकार ने इस घटना की जाँच के लिए गुजरात हाईकोर्ट के न्यायाधीश केजी शाह की एक सदस्यीय समिति का गठन किया। विपक्ष के साथ-साथ मानवाधिकार संगठनों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज जीटी नानावटी की अध्यक्षता में उस समिति को फिर से गठित किया गया।
सितंबर 2008 में इस आयोग ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट पेश की, जिसमें गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दी गई थी। अगले साल 2008 में केजी शाह की मृत्यु हो गई। इसके बाद गुजरात उच्च न्यायालय ने उनकी जगह सेवानिवृत्त न्यायाधीश अक्षय कुमार मेहता को समिति का सदस्य नियुक्त किया। नानावटी-मेहता नाम की इस समिति ने विस्तृत जाँच के बाद आखिरकार साल 2014 में अपनी रिपोर्ट सौंपी।
दुर्घटना नहीं था गोधरा काण्ड: नानावटी आयोग ने साफ़ कहा
नानावटी की रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया था कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में हुई घटना कोई दुर्घटना नहीं, बल्कि एक सोची-समझी साजिश थी। इसका मुख्य साजिशकर्ता गोधरा का मौलवी हुसैन हाजी इब्राहिम उमर और ननू मियाँ थे। इन दोनों ने ही मुस्लिमों को भड़काया था और ट्रेन पर हमला करवाया था। ट्रेन में आ रहे रामभक्तों को जलाने के लिए पहले से ही व्यवस्था करके रखी गई थी। मुस्लिम क्षेत्र में ये अफवाह फैलाया गया कि साबरमती में बैठे कारसेवक एक मुस्लिम लड़की का अपहरण कर लिए हैं। ट्रेन को रोकने और मुस्लिमों को इकट्ठा करने लिए स्थानीय मस्जिदों से उत्तेजक नारेबाजी और अपील की गई।
रिपोर्ट में कहा गया है कि हमले के लिए रज्जाक कुरकुर के गेस्ट हाउस में 140 लीटर पेट्रोल रखा गया था। फॉरेंसिक लेबोरेट्री की जाँच में यह सत्यापित भी हो चुका है। गुजरात फॉरेंसिक साइंस लेबोरेट्री की रिपोर्ट में कहा गया है कि साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 में आग लगने का कारण ज्वलनशील पदार्थ था। आयोग ने दंगों के दौरान नरेंद्र मोदी, उनके मंत्रिमंडल सहयोगियों व वरिष्ठ अफसरों की भूमिका की भी जाँच की। हालाँकि, इसमें उन्हें दोषी नहीं पाया गया। आयोग ने 45 हजार शपथ पत्रों और हजारों गवाहों के बयान के बाद करीब ढाई हजार पेज की रिपोर्ट तैयार की।
वहीं, पहले तो मुस्लिम पक्ष ने पेट्रोल आदि डालकर जलाने से साफ इनकार कर दिया। हालाँकि, बातें जब साफ हो गईं तो मुस्लिम पक्ष ने कहना शुरू कर दिया कि रामभक्तों ने रेलवे स्टेशन पर मुस्लिम दुकानदारों से बदतमीजी की थी। इसके बाद दंगा शुरू हुआ था। नानावटी-शाह आयोग ने दिसंबर 2019 में अपनी रिपोर्ट का दूसरा हिस्सा पेश किया था। इसमें भी रिपोर्ट के पहले हिस्से में कही गई बातों को दोहराया गया था।
साल 2002 में गोधरा दंगे के दौरान केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली NDA की सरकार थी। हालाँकि, केंद्र में कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाली UPA की सरकार बनी तो बिहार के राजद प्रमुख लालू यादव को रेल मंत्री बनाया गया। उन्होंने घटना की जाँच के लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज उमेश चंद्र बनर्जी के नेतृत्व में एक अलग समिति बनाई। यह समिति पूर्णत: राजनैतिक मकसद से बनाई गई थी। बनर्जी समिति ने जनवरी 2005 में इससे संबंधित अपनी अंतरिम रिपोर्ट दी, जिसमें ट्रेन के जलने को एक दुर्घटना कहा गया था।
लालू यादव ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए पार की हदें
बनर्जी कमीशन की रिपोर्ट के बाहर आते ही सरकार की आलोचना शुरू हो गई। इसके बाद घटना में घायल नीलकांत भाटिया नाम के एक व्यक्ति ने बनर्जी रिपोर्ट को गुजरात हाई कोर्ट में चुनौती दी। अक्टूबर 2006 में हाई कोर्ट ने बनर्जी समिति की रिपोर्ट को खारिज कर दिया।
उधर, ट्रेन जलाने के मामले में गुजरात सरकार द्वारा गठित SIT ने 68 लोगों के खिलाफ चार्जशीट फाइल की। इसमें साफ गया था कि मुस्लिम भीड़ ने इस दौरान पुलिस पर भी हमला किया था। इतना ही नहीं, घटनास्थल पर आ रही फायर ब्रिगेड की गाड़ी को भी रोक दिया गया था। इस मामले में साल 2011 में विशेष ट्रायल कोर्ट ने 31 लोगों को दोषी पाते हुए इनमें से 11 लोगों को मौत की सजा दी। बाकी 20 को आजीवन कारावास की सजा दी गई। बाद में गुजरात हाई कोर्ट ने मौत की सजा पाए 11 दोषियों की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया।