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क्या है 1991 का उपासना स्थल कानून, जिसकी आड़ में मंदिरों को छिपाने की साजिश: क्या ये रोक सकता है विवादित ढांचों का सर्वे?

उपासना स्थल कानून 1991 में न्याय के दरवाजे को बंद करके संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन किया गया है

Shiv Chaudhary द्वारा Shiv Chaudhary
29 November 2024
in चर्चित, ज्ञान
क्या है 1991 का उपासना स्थल कानून, जिसकी आड़ में मंदिरों को छिपाने की साजिश: क्या ये रोक सकता है विवादित ढांचों का सर्वे?
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राजस्थान के अजमेर स्थित मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की जगह शिव मंदिर होने का दावा करने वाली एक याचिका पर कोर्ट सुनवाई के लिए तैयार हो गया है। इस संबंध में कोर्ट ने केंद्र अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय, भारतीय सर्वेक्षण संस्थान (ASI) और अजमेर शरीफ दरगाह कमिटी को नोटिस जारी करके जवाब माँगा है। इस मामले की अगली सुनवाई 20 दिसंबर को होगी। इससे पहले सभी पक्षों को अपना-अपना जवाब दाखिल करना होगा।

इससे पहले उत्तर प्रदेश के संभल में एक कोर्ट ने शाही जामा मस्जिद के सर्वे का आदेश दिया था। सर्वे के दौरान मुस्लिम पक्ष द्वारा जमकर हिंसा की गई। हिंदू संगठनों का दावा है कि जिस जगह शाही जामा मस्जिद स्थित है, वहाँ पहले हरिहर मंदिर था। इसे तोड़कर मुस्लिम आक्रांताओं ने मंदिर के अवशेष पर यह मस्जिद बनाई है।

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संभल में कोर्ट द्वारा मस्जिद के सर्वे का आदेश देने के बाद कट्टरपंथी बिलबिला उठे हैं। वे नहीं चाहते कि मस्जिदों के पीछे के इतिहास को किसी तरह से उभारा जाए। इससे इसके पीछे की सच्चाई उभर कर सामने आ जाएगी। यही कारण है कि सिद्धार्थ वरदराजन जैसे कथित वामपंथी लोगों द्वारा संचालित द वायर में काम करने वाली आरफा खानम शेरवानी जैसी इस्लामवादी कोर्ट के आदेश का मजाक उड़ाने लगती हैं। संभल में जब कोर्ट ने सर्वे का आदेश दिया था, तब शेरवानी ने ट्वीट करके इसे ‘संघी’ कोर्ट का आदेश बता दिया था। इतना ही नहीं, मस्जिदों के नीचे दबे इतिहास को कुरेदने से रोकने के लिए इस्लामवादी और वामपंथी अक्सर 1991 में बने उपासना स्थल अधिनियम 1991 हवाला देते हैं।

साल 1991 में लागू किए गए इस कानून में कहा गया है कि अयोध्या स्थित बाबरी ढाँचे विवाद (तब मामला कोर्ट में था) को छोड़कर, बाकी पूजा स्थलों (मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा आदि) की प्रकृति वही मानी जाएगी, जो आजादी के समय (15 अगस्त 1947) थी। इसमें कहा गया है कि किसी भी समुदाय के पूजा स्थल को पूर्ण या आंशिक रूप से किसी अन्य धार्मिक स्थल में नहीं बदला जा सकता। यह सब बाबरी ढाँचा विवाद के उत्पन्न होने के बाद किया गया था।

इस बीच मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि शाही ईदगाह का मामला भी तूल पकड़ने लगा। इसको लेकर हिंदू संगठन कोर्ट में जाने लगे। हालाँकि, मुस्लिम पक्ष लगातार जोर देता रहा कि उपासना स्थल कानून 1991 लागू होने के कारण किसी भी धार्मिक स्थल के अस्तित्व को चुनौती नहीं दी जा सकती है। AIMIM के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी लगातार इस बात की दलील देते रहते थे कि देश में उपासना स्थल कानून 1991 लागू है। इसलिए अन्य विवादित जगहों पर हिंदू संगठनों द्वारा किए जाने वाले दावे अवैध हैं।

तमाम हिंदू संगठन इस कानून को अवैध बताते हुए इसे खत्म करने की माँग की है। उत्तर प्रदेश शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के पूर्व चेयरमैन वसीम रिजवी ने भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर इसे खत्म करने की माँग की थी। बाद में हिंदू संगठनों ने ही उपासना स्थल कानून1991 को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी। इस कानून को चुनौती देने वाली चार याचिकाएँ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए लंबित हैं। इन्हीं में से एक याचिका सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी अनिल काबोत्रा ने दायर की है। अपनी याचिका में काबोत्रा ने उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 की धारा 2, 3 और 4 की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। इसमें कहा गया है कि यह अनुच्छेद 14, 15, 21, 25, 26, 29 और पंथ निरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, जो प्रस्तावना और संविधान की मूल संरचना का एक अभिन्न अंग है।

इस पर भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश यू.यू. ललित ने भारत सरकार से जवाब माँगा। भारत सरकार ने अभी तक जवाब नहीं दिया है। इसी बीच वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद विवाद के दौरान  उपासना स्थल कानून 1991 को लेकर एक मामले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कानून की व्याख्या की। उन्होंने कहा कि किसी भी धार्मिक स्थान के चरित्र का पता लगाना उपासना स्थल कानून 1991 की धारा 3 और 4 का उल्लंघन नहीं है।

तत्कालीन CJI चंद्रचूड़ की टिप्पणी को अगर आसान भाषा में कहें तो इसका मतलब ये था कि 15 अगस्त 1947 के दौरान के किसी धार्मिक स्थल का स्वरूप ना बदला जाए लेकिन उसकी वास्तविक प्रकृति लगाना इस कानून में प्रतिबंधित नहीं है। यही कारण है कि ज्ञानवापी ढाँचा हो या संभल का जामा मस्जिद ढाँचा, कोर्ट ने सर्वे का आदेश दिया। कोर्ट के आदेशों में सर्वे की बात कहकर इन स्थलों की धार्मिक चरित्र बदलने की बात नहीं, बल्कि उसकी वास्तविक प्रकृति जानने की कोशिश का आदेश दिया गया है।

क्या है उपासना स्थल कानून 1991

दरअसल, 1990 में राममंदिर आंदोलन के चरम पर पहुँचने के बाद मुस्लिम तुष्टिकरण में डूबी कांग्रेस की सरकार ने एक कानून लाया था, जिसे प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 यानी उपासना स्थल कानून 1991 कहा जाता है। 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार द्वारा यह एक्ट पारित किया गया था।

तब तत्कालीन गृह मंत्री एसबी चव्हाण ने इस अधिनियम को पारित करते हुए कहा था, “पूजा स्थलों के रूपांतरण के संबंध में समय-समय पर उठने वाले विवादों के मद्देनजर इन उपायों को अपनाना आवश्यक समझा जाता है, जो सांप्रदायिक माहौल को खराब करते हैं… इस विधेयक को अपनाने से किसी भी पूजा स्थल के रूपांतरण के संबंध में किसी भी नए विवाद को प्रभावी रूप से रोका जा सकेगा।”

इसमें कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 तक अगर किसी धर्म का कोई पूजास्थल है तो उसे दूसरे धर्म के पूजास्थल में नहीं बदला जा सकता। कानून में इसके लिए एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना का प्रावधान किया गया है।

इस कानून की धारा-2 में कहा गया है कि अगर 15 अगस्त 1947 में मौजूद किसी धार्मिक स्थल में बदलाव को लेकर अगर किसी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में कोई याचिका लंबित है तो उसे रद्द किया जाएगा। कानून की धारा-3 में कहा गया है कि किसी पूजास्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से दूसरे धर्म के पूजास्थल में नहीं बदला जा सकता है।

वहीं, इस कानून के धारा-4(1) में कहा गया है कि किसी भी पूजास्थल का चरित्र देश की स्वतंत्रता के दिन का वाला ही रखना होगा। इस कानून का धारा-4(2) उन मुकदमों, अपीलों और कानूनी कार्यवाहियों पर रोक लगाता है, जो उपासना स्थल कानून के लागू होने की तिथि पर लंबित थे।

दरअसल, यह कानून पूजा पद्धति एवं कानून व्यवस्था से संबंधित है। कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है, लेकिन कांग्रेस सरकार ने इसे केंद्र के विषय के रूप में प्रस्तुत किया। पीवी नरसिम्हा राव द्वारा बनाया गया यह कानून कुछ ऐसा है कि एक तय समय पर किसी ने किसी की हत्या कर दी या सामान चुरा लिया हो या जमीन पर कब्जा कर लिया हो तो उस पर सुनवाई नहीं होगी। यह न्याय के सार्वभौमिक सिद्धांत का उल्लंघन है। कानून का अर्थ है न्याय। न्याय कभी भी और अपने न्यायिक क्षेत्र में कहीं भी हो सकता है।

कांग्रेस सरकार ने कानून बनाकर ऐतिहासिक गलतियों को छिपाने की कोशिश की है। धार्मिक स्थलों की स्थिति के लिए अगर इस कानून में कटऑफ तय करना ही था तो वह 15 अगस्त 1947 के बजाय, 1192 या 1000 ईस्वी हो सकता था, क्योंकि भारत पर मुस्लिम आक्रमणकारियों का हमला उसी दौरान हुआ था। इतना ही नहीं, उपासना स्थल कानून में जो प्रावधान किए गए हैं, उसमें कहा गया है कि धार्मिक स्थलों को लेकर जो मुकदमा चल रहा है, वह खत्म हो जाएगा और आगे से कोई मुकदमा दर्ज नहीं होगा। यह न्याय के सिद्धांत के सर्वथा विपरीत है। इसमें न्यायिक समीक्षा की गुंजाइश को खत्म करके संविधान के अनुच्छेद 14 की सीधे अवहेलना की गई है।

संविधान का अनुच्छेद 21 में राइट टू जस्टिस (न्याय का अधिकार) का अर्थ है- न्याय पाना किसी भी व्यक्ति का हक है। अगर किसी व्यक्ति या संस्था या समुदाय को लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है तो वह कोर्ट जा सकता है। उपासना स्थल कानून 1991 में न्याय के दरवाजे को बंद करके संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन किया गया है। इस तरह ये पूरा कानून ही संविधान का उल्लंघन है।

हालाँकि, कांग्रेस सरकार ने संविधान की परवाह किए बिना, मुस्लिम तुष्टिकरण में इस कानून को लागू कर दिया और संविधान में दिए गए अधिकारों से भारतीयों को वंचित करने की कोशिश की।

स्रोत: उपासना स्थल कानून 1991, बाबरी मस्जिद, मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह, संभल मस्जिद, राजस्थान, अजमेर, एएसआई, हरिहर मंदिर, Places of Worship Act 1991, Babri Masjid, Moinuddin Chishti Dargah, Sambhal Masjid, Rajasthan, Ajmer, ASI, Harihar Temple,
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