पोस्ट से प्रीपेड तक, कबूतर से डाक सेवाओं और अब WhatsApp तक: समझिए संदेशों के आदान-प्रदान का इतिहास

विश्व युद्ध की शुरुआत के समय करीब 1915 में पश्चिमी मोर्चे पर दो कबूतर कोर की स्थापना की गई, जिसमें 15 कबूतर स्टेशन शामिल थे। प्रत्येक कबूतर स्टेशन में चार पक्षी और एक हैंडलर थे।

कबूतर, डाक टिकट, WhatsApp - संचार व्यवस्था

कबूतर से लेकर डाक टिकट और अब इंस्टेंट मैसेजिंग तक, संचार व्यवस्था का समझिए इतिहास

नब्बे के दशक के अक्सर बसों और स्थानीय ऑटोरिक्शा में बजते गानों में “कबूतर जा जा जा” जिस दौर की याद दिलाता है, वो कबका बीत चुका है। WhatsApp और इंस्टेंट मेसेज के युग में ना कबूतर से जाने की चिरौरी की जाती है, न चिट्ठी के आने का इंतज़ार करना पड़ता है। हाँ, इतिहास के हिसाब से देखें तो संदेशों के आदान-प्रदान में पालतू कबूतरों का उपयोग संदेशवाहक के रूप में किया जाता था। विश्व युद्ध के दौर तक कबूतरों की प्राकृतिक क्षमताओं के कारण ‘कबूतर पोस्ट’ जमकर इस्तेमाल हुआ। इसके शुरू होने की बात करें तो माना जाता है कि ईसा पूर्व 5 वीं शताब्दी में साइप्रस महान द्वारा कबूतर दूतों का पहला नेटवर्क असीरिया और फारस में स्थापित किया गया था।

मध्य युग से उन्नीसवीं सदी तक, कबूतरों का उपयोग वाणिज्य और विशेष रूप से सशस्त्र बलों के द्वारा सन्देश के आदान प्रदान हेतु किया जाता था। जैसे दूसरे बहुत से अविष्कार असल में युद्धों में काम आने के लिए बने थे, कुछ वैसा ही कबूतर पोस्ट का भी किस्सा रहा है। पेरिस पर कब्जे के दौरान (1870-1871 में) परेशान निवासियों के द्वारा कबूतरों और गुब्बारों के माध्यम से संदेश भेजेने का विवरण बहुत प्रसिद्ध है। कबूतर पोस्ट का एक और महत्वपूर्ण उल्लेख प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मिलता है जब इनका उपयोग महत्वपूर्ण संदेशों को मुख्यालयों तथा अन्य सैन्य ठिकानों तक पहुँचाने के लिए किया जाता था। मुख्यालय और ऐसे ठिकानों के बीच की दूरी कई बार 100 मील तक हुआ करती थी और कबूतर इतनी दूर सन्देश पहुंचा देते थे।

विश्व युद्ध की शुरुआत के समय करीब 1915 में पश्चिमी मोर्चे पर दो कबूतर कोर की स्थापना की गई, जिसमें 15 कबूतर स्टेशन शामिल थे। प्रत्येक कबूतर स्टेशन में चार पक्षी और एक हैंडलर थे। विश्व युद्ध जैसे जैसे फैलता गया, कबूतर दल में अतिरिक्त पक्षियों की भर्ती की गई और सेवा का काफी विस्तार हुआ। युद्ध के अंत तक कबूतर दल में 150 मोबाइल मचानों में 400 आदमी और 22000 कबूतर शामिल थे, ये कबूतर पोस्ट के चरम विकास का समय था। गौरतलब है कि कबूतर से सन्देश भेजने के इस युग में डाकिया नहीं होता था, या पोस्ट ऑफिस नहीं थे, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। उनका एक अलग ही दिशा में विकास हो रहा था।

भारत का पहला चिपकने वाला डाक टिकट

इन घटनाओं से बहुत पहले भारत में डाक टिकट भी आ गया था। सिंध डॉक भारत और एशिया का पहला चिपकने वाला डाक टिकट था। यह एक ऐतिहासिक डाक टिकट 1 जुलाई, 1852 को सिंध प्रांत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासक सर बार्टले फ्रेरे ने जारी किया। उस समय भारत में डाक सेवाएं बहुत विकेंद्रीकृत और अविश्वसनीय थीं। जहाँ जारी हुआ वहीं से अपना नाम लेने वाले, सिंध डॉक को डाक सेवाओं को व्यवस्थित करने के लिए पेश किया गया था। ये आजकल के डाक टिकट जैसा चौड़ा नहीं बल्कि गोल आकार का डाक टिकट था और इसे सिंध प्रांत में डाक सेवाओं के लिए इस्तेमाल किया जाता था।

ब्रिटेन में पैनी ब्लैक डाक टिकट के बाद इसे जारी किया गया था और इसने भारत में भी डाक टिकटों के इस्तेमाल को लोकप्रिय बनाया। इसे सिंध प्रांत में इसलिए जारी किया गया क्योंकि वो इलाका ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सीधे नियंत्रण में था। उस दौर तक 1857 का पहला भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कहलाने वाला युद्ध भी नहीं हुआ था और पूरा भारत फिरंगियों के कब्जे में नहीं था। सिंध डॉक के बाद भारत में कई अन्य प्रकार के डाक टिकट जारी किए गए, जिनमें भारतीय ध्वज वाला डाक टिकट और अशोक स्तंभ वाला डाक टिकट शामिल हैं। सिंध डॉक एक ऐसा आविष्कार था जिसने भारत में डाक सेवाओं को अधिक व्यवस्थित बनाने का रास्ता खोल दिया।

पैनी ब्लैक डाक टिकट

पैनी ब्लैक दुनिया का पहला चिपकने वाला डाक टिकट था जिसे सार्वजनिक डाक प्रणाली में इस्तेमाल किया गया। यह एक ऐतिहासिक डाक टिकट है जिसने डाक सेवा के क्षेत्र में एक क्रांति ला दी थी। ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड की यूनाइटेड किंगडम में 1 मई, 1840 को इस डाक टिकट को जारी किया। इसका इस्तेमाल कुछ दिन बाद 6 मई, 1840 से शुरू हुआ। ये वो दौर था जब वहाँ डाक सेवाएं बहुत महंगी और जटिल थीं। डाकिया को पत्र पहुंचाने के लिए पैसे दिए जाते थे और डाक का खर्च सन्देश पाने वाला देता था। मोटे तौर पर समझें तो पैनी ब्लैक के आने से डाक सेवाएं पोस्ट पेड से प्री पेड हो गईं। यह एक छोटा सा काला रंग का टिकट था जिस पर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का चित्र बना हुआ था। इसे लिफाफे पर चिपकाया जाता था और डाक का खर्च पहले से ही दे दिया जाता था।

पैनी ब्लैक के आते ही डाक सेवाएं आम लोगों के लिए खुल गईं। सिर्फ अमीर अब अपने सन्देश नहीं भेजते थे, बल्कि आम लोगों ने भी पत्र लिखने शुरू किए और इससे समाज में संचार के नए रास्ते खुले।

हरकारा: भारत के डाक तंत्र का एक महत्वपूर्ण अतीत

डाक टिकट और पोस्ट ऑफिस के सिस्टम से बहुत पहले से, हरकारा, जो पैदल संदेश पहुंचाते थे, वो भारतीय डाक व्यवस्था संभालते थे। इनकी पहचान घुंघरू बंधा हुआ भाला तथा पैरों में बंधे हुए कपड़े हुआ करते थे। शेरशाह सूरी के शासन काल में हरकारों के लिए एक सुव्यवस्थित तंत्र की व्यवस्था की गई। मौर्य काल से जो उत्तर-पथ और दक्षिणी पथ कहलाते थे, उनमें से एक को शेरशाह सूरी ने दुरुस्त करवाया और हरकारों के लिए ग्रैंड ट्रंक रोड पर सरायों का निर्माण कराया गया। जहाँ हराकारे यात्रा के दौरान विश्राम किया करते थे वही सराय समय बीतने के साथ डाकबंगला के नाम से प्रसिद्ध हो गए। अभी जो करीब-करीब सभी महत्वपूर्ण भारतीय शहरों में डाकबंगला है, वो कभी न कभी हरकारों के रुकने का ठिकाना हुआ करता था।

शेरशाह के बाद मुगल काल की शुरुआत में हरकारों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। वे संदेशवाहक, सूचना संग्रहकर्ता और सैन्य संदेश वाहक के रूप में कार्य करते थे। अकबर के शासनकाल में डाक व्यवस्था को उन्नत बनाया गया था, जिससे सूचनाएं तेजी से प्रसारित होती थीं और प्रशासन बेहतर रहता था। अंग्रेजी शासन के दौरान, डाक व्यवस्था में फिर से बदलाव आए और हरकारों की भूमिका बदलती हुई, डाकिये की भूमिका में बदली। ट्रेन और टेलीग्राफ के आगमन के साथ, आधुनिक डाक व्यवस्था का विकास हुआ। ट्रेन-टेलीग्राफ के युग में हरकारे एक शहर से दूसरे शहर दौड़ाने की ज़रूरत नहीं रही। उन्होंने भारत में संचार क्रांति में अहम भूमिका निभाई थी, और आज भी गांवों में डाकिया की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है।

पटना और प्रीपेड डाक टिकट – ताम्र टिकट

तत्कालीन पोस्टमास्टर जनरल थॉमस इवांस और तत्कालीन डिप्टी पोस्टमास्टर जनरल चार्ल्स ग्रीम के अगुआई में  ताम्र टिकट डालने की योजना बनी। उस वक्त पोस्ट ऑफिस रेगुलेशन एक्ट, 1774 नाम का कानून था, जिसके अनुसार डाक शुल्क की अग्रिम अदायगी हेतु 1 और 2 आना कीमत के सिक्कों के आकार के ताम्र टिकट ढाले गये। इनपर ‘पटना पोस्ट’ टंकित था| इनकी शुरुआत 31 मार्च, 1774 को हुई। उस दौर में मुगल शासक पटना का नाम बदलकर एक मुगल शहजादे के नाम पर करने पर तुले थे, इसलिए इन टिकटों को ‘अजीमाबाद एकन्नी’ और ‘अजीमाबाद दुअन्नी’ के नाम से भी जाना जाता था। दो आने वाले टिकट के आगे की तरफ ‘पटना पोस्ट दो आना’ और पीछे मुगलों की दरबारी भाषा फारसी में ‘अजीमाबाद डाक दो अनी’ मुद्रित होता था|

इन टिकटों को उनके जारी होने के ग्यारह वर्ष बाद, सितम्बर 1785 ई. में अंततः वापस ले लिया गया। यह अनूठा प्रयोग ग्रेट ब्रिटेन में यूनिफार्म पेनी डाक और पेनी ब्लैक की शुरुआत से 55 साल पहले हुआ था। यानी चिपकने वाला प्रीपेड स्टाम्प भले विदेशों में जन्मा लेकिन प्रीपेड डाक टिकट के पीछे भारत, बिहार और पटना भी हैं। बिहार में 1774 में फिरंगियों का पोस्ट ऑफिस रेगुलेशन एक्ट चलता था, मुगल ताम्र टिकट के पिछले हिस्से पर पहुँच गए थे, या फिर ब्रिटेन से काफी पहले भारत का आम आदमी चिट्ठियों का आदान-प्रदान करता था, इन बातों से इतिहास का स्थापित नैरेटिव भी थोड़ा टूटने लगता है। किसी एक चीज का इतिहास भी उठा लें, तो ऐसा लगता है हमने अपना ही इतिहास नहीं पढ़ा। लेकिन फिर इतिहास कोई और मुद्दा है, उसपर कभी और बात करेंगे!

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