कुछ ही दिनों के बाद प्रयागराज में महाकुंभ-2025 शुरू होने जा रहा है। इसको लेकर जोर-शोर से तैयारियाँ हो रही हैं। वहीं, इस बार रिकॉर्ड श्रद्धालुओं के आने की उम्मीद के साथ ही उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार महाकुंभ मेले को भव्य एवं आध्यात्मिक रंग-रूप देने में जुटी हुई है। प्रयागराज में आयोजित होने वाला महाकुंभ है, जो हर 12 साल पर आयोजित किया जाता है। बता दें कि प्रयागराज गंगा, यमुना और विलुप्त सरस्वती के संगम पर बसा है और यहाँ के महाकुंभ की महिमा अपार बताई जाती है। यही कारण है कि हर सनातनी अपने जीवन में कम-से-कम एक बार प्रयागराज महाकुंभ में स्नान ज़रूर करना चाहता है। आज हम बताएंगे कुंभ की पूरी कहानी और जानेंगे कैसे दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन शुरू हुआ था ।
कुंभ का आरंभ कब हुआ, इसकी जानकारी किसी को नहीं है। कहा जाता है कि आधुनिक कुंभ का स्वरूप हूणों को पराजित करने वाले क्षत्रिय सम्राट हर्षवर्धन बैंस (590-647 ईस्वी) ने छठी शताब्दी में शुरू किया था। हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान 629-645 ईस्वी में चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (या Xuanzang) भारत आया था। उसने अपने संस्मरण में इसका ज़िक्र किया है। सम्राट हर्ष के नाम से विख्यात हर्षवर्धन बैंस का उस समय संपूर्ण उत्तर भारत और दक्षिण में गोदावरी तक उनका शासन था। प्रयागराज कुंभ स्थल पर उनकी आदमकद प्रतिमा भी स्थापित की गई थी। हालाँकि, इस बार उत्तर प्रदेश शासन ने सम्राट हर्षवर्धन की प्रतिमा को संगम क्षेत्र से हटा दिया, जिसका बड़े पैमाने पर विरोध हुआ था। हालाँकि, जो भी हो लेकिन कुंभ के आयोजन में सम्राट हर्ष का बहुत बड़ा योगदान है।
एक अन्य मान्यता है कि कुंभ अनादि काल से अनवरत चलता आ रहा है। सम्राट हर्षवर्धन ने इसे भव्य एवं अलग रूप दिया था। यह कुंभ इस्लामी आक्रांताओं के समय में भी बंद नहीं हुआ। हालाँकि, कुंभ मेले का पहला लिखित प्रमाण भागवत पुराण में मौजूद है। वहीं, कुंभ से संबंधित समुद्र मंथन का ज़िक्र भागवत पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत और रामायण में भी है। शास्त्रों के अनुसार, कुंभ का सीधा संबंध समुद्र मंथन से हैं। कुंभ मेला ‘कुंभ’ और ‘मेला’ से बना है। अमृत के अमर पात्र या कलश को भी कुंभ कहा जाता है। देवासुर संग्राम में राक्षसों को हराने के लिए सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान ने देवताओं को समुद्र यानी क्षीर सागर में मंथन करके अमृत निकालने और उसे पीने के लिए कहा था। देवताओं ने असुरों के राजा बलि को समुद्र मंथन करके अमृत निकालने के लिए तैयार कर लिया।समुद्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी का रुप दिया गया।
समुद्र मंथन के दौरान 14 रत्नों में एक रत्न अमृत जैसे ही निकला, देवताओं के इशारे पर इंद्र के पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गए। इसमें बृहस्पति, सूर्य, चंद्रमा और शनि ने भी साथ दिया। अमृत कलश पर अधिकार को लेकर देव और राक्षसों के बीच 12 दिनों तक भागने-पकड़ने और भयानक युद्ध चला और अंत में यह देवताओं के हाथ लगा। अमृत कलश की छीना-झपटी में इसकी कुछ बुँदें पृथ्वी के चार स्थानों पर गिर गईं। इनमें से पहली बूँद प्रयागराज में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी उज्जैन में और चौथी बूँद नासिक में गिरी थी। इसलिए इन्हीं चार जगहों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। यह भी कहा जाता है कि असुरों से अमृत कलश लेकर भागने के दौरान जयंत ने इन्हीं चार स्थानों पर इसे छिपाने की कोशिश की थी लेकिन असुर आ गए और इस दौरान अमृत की बूँदे छलक कर वहाँ गिर गईं।
अमृत कलश लेकर देवता पृथ्वी के चारों तरफ 12 दिनों तक भागते रहे। इस तरह देवताओं के 12 दिन पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं। इसलिए हर 12 साल में महाकुंभ का आयोजन किया जाता है। सारे नवग्रहों में सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है। दरअसल, जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था, तब कलश की खींचातानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया था। उस दौरान बृहस्पति ने कलश को इन धर्मस्थलों पर छुपाने में मदद की थी। वहीं, भगवान सूर्य ने कलश को फूटने से बचाया था और शनि ने इंद्र के कोप से उसकी रक्षा की थी। इसीलिए जब इन ग्रहों का योग एवं संयोग एक निश्चित राशि में होता है, तभी कुंभ मेला लगता है।
हिंदू पुराणों के अनुसार, कुंभ पाँच प्रकार का होता है- महाकुंभ, पूर्ण कुंभ, अर्ध कुंभ, कुंभ और माघ कुंभ। महाकुंभ का आयोजन हर 144 साल पर होता है। यह केवल प्रयागराज के संगम पर ही होता है। वहीं, पूर्ण कुंभ 12 वर्षों में आयोजित किया जाता है। पूर्ण कुंभ का आयोजन 4 तीर्थस्थलों में होता है। ये प्रसिद्ध तीर्थस्थल हैं- उत्तराखंड का हरिद्वार, मध्य प्रदेश का उज्जैन, महाराष्ट्र का नासिक और उत्तर प्रदेश का प्रयागराज है। ये सारे तीर्थस्थल अलग-अलग नदियों पर बसे हैं। हरिद्वार गंगा नदी, उज्जैन शिप्रा नदी, नासिक गोदावरी नदी पर बसा है। वहीं, प्रयागराज गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के संगम पर बसा है। वहीं, अर्ध कुंभ का आयोजन हर 6 साल पर होता है। इसका आयोजन केवल दो स्थानों- प्रयागराज और हरिद्वार में होता है। कुंभ मेला इन चारों स्थानों पर हर तीन साल में आयोजित किया जाता है। माघ कुंभ हर साल सिर्फ प्रयागराज में आयोजित किया जाता है।
शास्त्रों के अनुसार, जब बृहस्पति वृषभ राशि में और सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं, तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है। जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं, तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है। जब बृहस्पति सिंह राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करते हैं, तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है। जब सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करते हैं तो उज्जैन में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं। जब सूर्य और बृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है।
कई ज्योतिषियों का मानना है कि बृहस्पति ग्रह 12 साल में 12 राशियों का चक्कर लगाता है। इसलिए कुंभ मेले का आयोजन उस समय के अनुसार होता है। उनका मानना है कि जब बृहस्पति ग्रह किसी विशेष राशि में होता है, तभी कुंभ का आयोजन होता है। दरअसल, बृहस्पति ग्रह और सूर्य की स्थिति का कुंभ से गहरा संबंध है। जब बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करता है और सूर्य मकर राशि में होता है, तब कुंभ मेले का आयोजन होता है। बृहस्पति को अपनी कक्षा में 12 साल का समय लगता है। इसलिए पूर्ण कुंभ हर 12 साल में एक बार आयोजित होता है। ज्योतिष शास्त्र में 12 राशियाँ होती हैं। ये राशियाँ 12 महीनों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसके अलावा 12 साल का चक्र मानव जीवन में एक विशेष ऊर्जा परिवर्तन को दर्शाता है।
कुंभ मेले को लेकर कूर्म पुराण में कहा गया है कि इसमें स्नान करने से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है और उत्तम भोग की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही देवलोक की प्राप्ति होती है। स्कन्द पुराण में कहा गया है कि कुंभ में स्नान करने से मनवांछित कामना की पूर्ति होती है। भविष्य पुराण में स्वर्ग और मोक्ष मिलने की बात कही गई है। अग्नि पुराण में कहा गया है कि कुंभ में स्नान करने से करोड़ों गायों को दान करने के बराबर पुण्य मिलता है। ब्रह्म पुराण में अश्वमेध यज्ञ के बराबर पुण्य मिलने की बात कही गई है। इतना ही नहीं, कुंभ के महात्म्य को लेकर महाभारत सहित अन्य कई ग्रंथों में चर्चा की गई है।
कुंभ में स्नान करने के लिए दुनिया भर के साधु, संन्यासी, तपस्वी, कल्पवासी, श्रद्धालु आदि आते हैं। इनमें संतों के कई अखाड़े भी शामिल होते हैं। इनमें शैव संप्रदाय और वैष्णव संप्रदाय प्रमुख है। इसके अलावा गुरु नानक की शिक्षा पर आधारित उदासीन अखाड़े और गुरु गोरखनाथ पंथ के अनुयायी नागपंथी अखाड़े के संन्यासी भी इसमें हिस्सा लेते हैं। महाकुंभ में मान्यता प्राप्त कुल 13 मान्यता अखाड़े हिस्सा ले रहे हैं। ये अखाड़े हैं– जूना अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, अटल अखाड़ा, आह्वान अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, पंचाग्नि अखाड़ा, नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा, वैष्णव अखाड़ा, उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा, उदासीन नया अखाड़ा और निर्मल पंचायती अखाड़ा। अब एक और अखाड़ा शामिल हो गया है। इसका नाम किन्नर अखाड़ा है। हालाँकि, यह अखाड़ा परिषद द्वारा आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त नहीं है लेकिन यह जूना अखाड़े से जुड़ा हुआ है।