नॉर्थ-ईस्ट, हिंदी में समझिए तो पूर्वोत्तर। कुछ वर्षों पहले तक ये ख़ूबसूरत हिमालयी प्रदेश एक अलग दुनिया के रूप में ही देखे-समझे गए। ‘सेवेन सिस्टर्स’ नाम की एक शब्दावली में इन प्रदेशों के इतिहास, इनकी विविध संस्कृति और सबसे बढ़कर भारत-भारतीयता और स्वतंत्रता के प्रति इनके समर्पण को भी उपेक्षित कर दिया गया। स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखने वाले ज़्यादातर इतिहासकार भी कुछ चुनिंदा नेताओं और परिवार विशेष के प्रभाव से बाहर नहीं निकल सके। जबकि सच्चाई ये है कि स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वोत्तर के लोगों का भी महत्वपूर्ण योगदान है, इन प्रदेशों के न जाने कितने वीरों ने इस देश की आज़ादी के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। आज जानेंगे कहानी मेघालय के क्रांतिवीर यू कियांग नोंगबा की।
कियांग ने दिया अंग्रेज़ों के हमले का मुंहतोड़ जवाब
मेघालय के यू कियांग नोंगबा भी एक ऐसे ही क्रांतिकारी वीर थे, जिन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ स्थानीय जनजातियों को न सिर्फ एकजुट किया बल्कि लड़ाइयां भी लड़ीं। 18वीं सदी तक अंग्रेजों का लगभग पूरे भारत पर शासन हो चुका था लेकिन मेघालय की खासी और जयंतिया जनजातियां उस वक्त तक स्वतंत्र थीं। मेघालय के इन क्षेत्रों में आज के बांग्लादेश और सिल्चर के 30 छोटे-छोटे राज्य स्थित थे और जयन्तियापुर भी इन्हीं में एक था।
अंग्रेजों ने जब यहाँ हमला किया, तो उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अन्तर्गत जयन्तियापुर को पहाड़ी और मैदानी भागों में बाँट दिया। इसी के साथ उन्होंने एक रणनीति के तहत निर्धन वनवासियों को धर्मांतरित करना शुरू कर दिया। अंग्रेज़ों के दबाव में राजा ने इस विभाजन को मान लिया लेकिन मन्त्रिपरिषद ने इसे मंजूर नहीं किया। उन्होंने राजा के बदले यू कियांग नोंगबा को अपना नेता चुन लिया। यू कियांग ने जनजातीय वीरों की सेना की गठन किया और जोनोई की ओर बढ़ रहे अंग्रेज़ों का मुकाबला किया। जनजातीय हथियारों और तौर तरीकों का अंग्रेज़ों के पास जवाब नहीं था, अंततः उन्हें हारकर लौटना पड़ा।
अपेक्षाकृत कम संसाधन संपन्न जनजातीय राजा से मिली ये हार अंग्रेज़ों को बुरी तरह अखर रही थी। लिहाजा उन्होंने 1860 में पूरे जयन्तियापुर क्षेत्र पर 2 रुपए गृहकर ठोक दिया। जयंतिया समाज ने इस टैक्स का विरोध किया। यू कियांग नोंगबा एक बेहतरीन बाँसुरीवादक भी थे। वो बांसुरी की धुन के साथ लोकगीत गाते थे और अपने समाज को अंग्रेज़ों के इस उत्पीड़न के ख़िलाफ़ हथियार उठाने का आह्नान करते थे। इस अनूठे तरीके से वो बिना अंग्रेज़ों को भनक लगे, स्थानीय लोगों को संगठित करने में कामयाब हो गए।
जब यू कियांग नोंगबा ने बनाई सेना
आख़िरकार अंग्रेज़ों ने टैक्स वसूली के लिए कड़े उपाय अपनाने शुरू कर दिए लेकिन कियांग के आह्नान पर किसी ने कोई टैक्स नहीं दिया। बौखलाए अंग्रेज़ों ने उन भोले वनवासियों को जेलों में ठूँसना शुरू कर दिया, हालांकि कियांग नोंगबा तब भी अंग्रेज़ों के हाथ नहीं लगे। वो गाँवों और पर्वतों में घूमकर देश के लिए मर मिटने को समर्पित युवकों को संगठित करते रहे। धीरे-धीरे उनके पास अच्छी सेना हो गयी।
आख़िरकार एक दिन कियांग ने एक सटीक रणनीति बना कर एक साथ सात जगहों पर अंग्रेज़ों पर हमला कर दिया। हालांकि, वनवासी वीरों के पास अंग्रेज़ों के मुकाबले आधुनिक हथियार नहीं थे और वो परम्परागत अस्त्र-शस्त्र से ही लैस थे लेकिन गुरिल्ला युद्ध में माहिर होने और पहाड़ों को अंग्रेज़ों से बेहतर समझने की वजह से वो कामयाब रहे। वो अचानक आकर हमला करते और फिर पर्वतों में जाकर छिप जाते थे।
अंग्रेज़ों और मेघालय के इन जनजातीय वीरों के बीच जारी ये युद्ध 20 महीनों तक लगातार चलता रहा। आख़िरकार इन हमलों और इनसे होने वाले नुक़सान से परेशान अंग्रेज़ों ने किसी भी कीमत पर कियांग को ज़िंदा या मुर्दा पकड़ने का ऐलान कर दिया। उन्होंने पैसे का लालच देकर उनके एक भरोसेमंद साथी उदोलोई तेरकर को तोड़ लिया। उस वक्त कियांग एक हमले में काफी ज़्यादा घायल हो गए थे और इलाज के लिए एक गाँव में छिपे हुए थे लेकिन उदोलोई ने अंग्रेजों को उनके ठिकाने की जानकारी दे दी।
सरेआम कियांग को दी गई फांसी
सूचना मिलते ही अंग्रेजों ने मुंशी गाँव को चारों ओर से घेर लिया। घायल कियांग लड़ने की स्थिति में बिल्कुल भी नहीं थे, बिन सेनापति, सेना भी नेतृत्वविहीन होकर जल्दी ही बिखरने लगी। हार और मौत को सामने देखते हुए भी कियांग के एक भी सैनिक ने समर्पण नहीं किया और वो अपने नेता को बचाने के लिए लड़ते रहे। कुछ देर की लड़ाई के बाद अंग्रेज़ कियांग को पकड़ने में कामयाब हो गए।
अंग्रेज़ों ने उनके सामने शर्त रखी कि यदि सभी जनजातीय सैनिक आत्मसमर्पण कर दें, तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा। लेकिन वीर यू कियांग नोंगबा ने अंग्रेज़ों की इस शर्त को ठुकरा दिया। अंग्रेज़ों ने उन्हें तोड़ने और झुकाने की हर मुमकिन कोशिश की लेकिन अमानवीय अत्याचार झेलकर भी उन्होंने झुकना स्वीकार नहीं किया। आख़िरकार 30 दिसंबर 1862 को अंग्रेज़ों ने मेघालय के उस वनवासी वीर को जोनोई में ही सरेआम फाँसी दे दी।