गाँधी ने ठुकराया, महामना ने अपनाया… एक दशक बाद पहना वकील वाला चोला, पंडित मालवीय ने बचाई 150 क्रांतिकारियों की जान

इनमें से कई ऐसे अभियुक्त थे जो अनपढ़ थे और उन्हें न क़ानूनी प्रक्रियाओं की कोई जानकारी थी और न ही उनके पास कोई वकील था। महात्मा गाँधी और कांग्रेस ने उन्हें छोड़ दिया था।

महामना पंडित मदन मोहन मालवीय, चौरी चौरा

महामना पंडित मदन मोहन मालवीय (बाएँ), चौरी-चौरा स्मारक (दाएँ)

25 दिसंबर, 1861 – ये वो तारीख़ है जब महामना मदन मोहन मालवीय का जन्म हुआ था। उन्हें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) की स्थापना के लिए जाना जाता है। नवंबर 1919 से लेकर सितंबर 1938 तक वो इस प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के कुलपति भी रहे। हालाँकि, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी उनका योगदान रहा है। असहयोग आंदोलन के दौरान चौरी-चौरा में हुई घटना के दौरान भी उन्होंने इसमें फँसे लोगों को बचाने के लिए केस लड़ा, उसकी सज़ा कम कराई, कइयों को बचाया। वो लोग, जिन्हें महात्मा गाँधी ने भी छोड़ दिया था। वो एक विद्वान वकील भी थे। इस केस के बारे में हम बात करेंगे, लेकिन पहले जानते हैं महामना के बारे में।

कौन थे पंडित मदन मोहन मालवीय

प्रयागराज में जन्मे मदन मोहन मालवीय 3 बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। उनका परिवार मूल रूप से मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र से था, ऐसे में इनलोगों का सरनेम ‘मालवीय’ हुआ करता था। उनके पिता बृजनाथ मालवीय भी संस्कृत ग्रंथों के विद्वान थे। प्रयागराज स्थित गवर्नमेंट हाईस्कूल में बतौर एसिस्टेंट मास्टर उन्होंने अपने करियर शुरू किया था। कालाकाँकर के शासक रामपाल सिंह ने उन्हें अपनी साप्ताहिक पत्रिका ‘हिंदुस्तान’ का संपादक बनाया। इसके बाद उन्होंने क़ानून की पढ़ाई की। जिला अदालत के बाद सन् 1893 में उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की।

1909, 1918 और 1932 – 3 बार मदन मोहन मालवीय ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद सँभाला। 1911 के बाद मदन मोहन मालवीय ने वकालत के पेशे को अलविदा कह दिया। वो शिक्षा और सामाजिक कार्यों को अपना जीवन समर्पित करना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने अपने काले कोट को कहीं खूँटी पर टाँग दिया। हालाँकि, 12 वर्षों बाद एक ऐसा मौका आया जब उन्हें उस काले कोट से धूल-मिट्टी झाड़ कर उसे वापस पहनना पड़ा। आगे हम जानेंगे कि आखिर क्यों, लेकिन उससे पहले हमें असहयोग आंदोलन और गोरखपुर के चौरी-चौरा में 4 फरवरी, 1920 को हुई एक घटना के बारे में समझना पड़ेगा।

असहयोग आंदोलन और चौरी-चौरा की घटना

असल में चौरा और चौरी, दोनों अलग-अलग गाँव हैं। चौरा में रेलवे स्टेशन और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद थाना बन जाने के बाद ये गाँव अधिक महत्वपूर्ण हो गया था। ये व्यापारिक रूप से एक समृद्ध इलाका था, जहाँ सरसो तेल से लेकर चीनी मिल तक के कारोबार स्थित थे। डुमरी खुर्द, यानी छोटकी डुमरी में हुई किसानों की एक सभा के बाद यहाँ विद्रोह भड़का था। चौरा, मुंडेरा और भोपा – ये वहाँ के प्रमुख बाजार हुआ करते थे। तेल, अरहड़ की दाल, गुड़ और चमड़े का कारोबार यहाँ हुआ करता था, जो दूर-दराज के इलाक़ों तक जाते थे।

‘शहरनामा गोरखपुर’ में डॉ वेद प्रकाश पांडेय चौरी-चौरा की घटना का कारण समझाते हुए बताते हैं कि यहाँ के बाजारों का स्वमित्र विभिन्न जागीरों के पास था। जैसे, भोपा और चौरा सरदार जागीर के अंग थे वहीं तो मुंडेरा विशुनपुरा जागीर के अंतर्गत आता था। पुस्तक में डॉ पांडेय लिखते हैं कि इन्हीं दोनों सत्ता केंद्रों की प्रतिद्वंद्विता के कारण विद्रोह भड़का। अगर 1 फरवरी, 1922 को अगर थाने के दरोगा गुप्तेश्वर सिंह ने विशुनपुरा जागीर के कारिंदों के कहने पर भगवान अहीर को नहीं पता होता तो ये घटना नहीं होती।

इस विद्रोह के शुरुआती नायकों में लाल मुहम्मद, नजर अली, भगवान अहीर और अब्दुल, इंद्रजीत कोइरी और श्याम सुंदर का नाम आता है। इसमें द्वारिका प्रसाद पांडेय का नाम भी आता है, जो 4 फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा में हो रहे विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने पंडित मोतीलाल नेहरू के कहने पर विदेशी कपड़ों व सामानों के बहिष्कार के मुद्दे पर मंथन करने के लिए यहाँ भेजा गया था। लेकिन, पुलिस ने 3000 आंदोलनकारियों पर गोली चलाई और भीड़ उग्र हो गई और उसने थाने में आग लगा दी। 22 पुलिसकर्मी ज़िंदा जल के मर गए।

महात्मा गाँधी ने इसके बाद बीच में ही असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इस कारण चौरी-चौरा का नाम पूरे देश में फैला। ये महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हुआ पहला आंदोलन था जिसमें श्रमिक वर्ग बड़ी संख्या में शामिल था। अंततः ये आंदोलन बीच में बंद किए जाने के कारण असफल रहा। महात्मा गाँधी का कहना था कि आंदोलन में हिंसा हो गई, इसीलिए अब इसे जारी रखना उपयुक्त नहीं है। क्रांतिकारियों ने महात्मा गाँधी के इस क़दम का विरोध किया। 1922 में गया में हुए कांग्रेस के 37वें सत्र में प्रेमकृष्ण खन्ना और रामप्रसाद बिस्मिल ने महात्मा गाँधी का विरोध किया।

172 किसानों/मजदूरों को सुनाई गई फाँसी की सज़ा

यही वो घटना थी जिसने कांग्रेस को ‘गरम दल’ और ‘नरम दल’ में बाँट दिया। कुल 228 लोगों को मुक़दमा चलाया गया। इनमें से कई ऐसे अभियुक्त थे जो अनपढ़ थे और उन्हें न क़ानूनी प्रक्रियाओं की कोई जानकारी थी और न ही उनके पास कोई वकील था। महात्मा गाँधी और कांग्रेस ने उन्हें छोड़ दिया था। कइयों ने अदालत में बताया कि रंजिश के कारण किसी ने इस केस में उनका नाम डाल दिया है। मीर शिकारी नाम का शख्स इसमें सरकारी गवाह बन गया था और उसने कइयों को फँसाया। सेशन कोर्ट ने 172 किसानों/मजदूरों को फाँसी की सज़ा सुना डाली।

इन्हें जेल में डाला गया। गोरखपुर का जेल भर गया तो उन्हें अन्य शहरों के कारागारों में भेजा गया। ये लोग कहते थे कि वो देश के लिए दूसरा चोला धर कर फिर आएँगे। यहीं पर एंट्री होती है पंडित महामना मदन मोहन मालवीय की। उन्होंने अपना काला कोट फिर से पहना और इन अभियुक्तों को बचाने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में वाद दायर किया। उन्होंने हाईकोर्ट में दलील दी कि इस मामले के जो गवाह हैं उन्होंने विरोधाभासी बयान दिए हैं। साथ ही इसे न्यायपालिका में ले जाए जाने से पहले प्रांतीय सरकार की अनुमति नहीं ली गई थी।

उन्होंने अपनी दलील में निचली अदालत की कार्रवाई को अवैध बताते हुए कहा कि उनके द्वारा तय किए गए आप तथ्यपरक नहीं थे। मदन मोहन मालवीय इस केस की पैरवी में इतने डूब गए थे कि शाम के समय फाइलें लेकर बैठते थे तो अध्ययन करते-करते सुबह हो जाती थी। ख़ास बात ये कि उन्होंने इस केस की पैरी निःशुल्क की। उनकी बहस को सुनने के लिए अन्य प्रांतों के वकील आया करते थे। उनके अकाट्य तथ्यों से न केवल जज बल्कि वहाँ उपस्थित लोग भी प्रभावित होते थे। 6 सुनाई में 150 से अधिक की फाँसी की सज़ा को खत्म करवाने में वो सफल रहे।

मदन मोहन मालवीय ने चौरी-चौरा के क्रांतिकारियों को बचाया

यही वो समय था जब असहयोग आंदोलन के बाद देश में उपजे निराशा के माहौल के बीच हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क गए। जगह-जगह हिन्दुओं पर हमले हुए। पंडित मदन मोहन मालवीय ने इस दौरान ‘अखिल भारतीय हिन्दू महासभा’ को मजबूत करने की पहल शुरू की। मदन मोहन मालवीय ने चौरी-चौरा काण्ड में दोषी करार दिए गए 152 किसानों/मजदूरों को फाँसी के फंदे से बचाया। उनकी सज़ा कम की गई। इस पूरे प्रकरण के दौरान सेशन कोर्ट के जज जज HE Holmes की खूब किरकिरी हुई, जिन्होंने इतनी बड़ी संख्या में आम लोगों को फाँसी की सज़ा सुना दी थी। उस समय के राष्ट्रवादी अख़बारों ने इसे न्याय की हत्या बताया था।

अंततः इस मामले में 11 लोगों को फाँसी की सज़ा हुई और 2 से 11 जुलाई , 1923 के बीच उन्हें फाँसी के फंदे पर लटका दिया गया। जिस जज ने इस मामले की सुनवाई हाईकोर्ट में की थी, उसने भी मदन मोहन मालवीय की तारीफ़ की। इस तरह कांग्रेस नेतृत्व द्वारा नकार दिए गए राष्ट्रवादियों को पंडित मदन मोहन मालवीय ने न्याय दिलाया। आज मदन मोहन मालवीय की अधिक बात नहीं की जाती, शायद क्योंकि वो एक हिन्दू राष्ट्रवादी थे। उन्होंने हिन्दू धर्म को मजबूत करने और हिन्दुओं की एकता सुनिश्चित करने के लिए प्रयास किया।

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