भारत के पौराणिक इतिहास को लेकर हमारी कई पीढ़ियों के भीतर एक तरह की हीन-भावना भर दी गई है। हमारी पुरातन शिक्षा पद्धति को निम्न बता कर गुरुकुल परंपरा को खत्म कर दिया गया। हमारे धार्मिक साहित्य को समाज विरोधी बता कर मनुस्मृति को जलाया जाता है। मुस्लिम हर शुक्रवार को मस्जिद जाते हैं, ईसाई प्रत्येक रविवार को चर्च जाते हैं, लेकिन हिन्दुओं का मंदिर जाना आधुनिकता विरोधी बता दिया गया। संसद से लेकर सड़क तक, हिन्दुओं को अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया। अब राहुल गाँधी को ही देख लीजिए। संसद में हिन्दू विरोधी बयान देने का उन्होंने रिकॉर्ड सा बना दिया है।
पिछली बार कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष ने भगवान शिव की तस्वीर संसद में दिखा कर उनके बारे में उलटी-सीधी बातें की थीं। उन्होंने कहा था कि भगवान शिव अपनी त्रिशूल को अलग रख देते हैं और अभय मुद्रा दिखाते हैं। इस्लाम को लेकर वो ऐसी कोई तस्वीर दिखाने की हिम्मत नहीं कर पाए। अब राहुल गाँधी का ताज़ा बयान ले लीजिए। संसद में बहस हो रही थी संविधान पर, लेकिन शनिवार (14 दिसंबर, 2024) को उन्होंने बयान दिया हिन्दू धर्म के खिलाफ। अबकी वो द्रोणाचार्य और एकलव्य की कहानी लेकर आ गए।
द्रोणाचार्य-एकलव्य को लेकर राहुल गाँधी ने गढ़ी कहानी
राहुल गाँधी ने कहा, “जैसे हिंदुस्तान पहले चलाया जाता था, वैसे ही आप हिंदुस्तान को चलाना चाहते हैं। हजारों साल पहले एक जंगल में एक 6-7 साल का बच्चा रोज सुबह 4 बजे उठ कर तपस्या करता था। वो धनुष उठा कर तीर-कमान चलाता था। घंटों, सालों उसने तपस्या की। लड़के का नाम एकलव्य था, उसने गुरु के पास जाकर कहा – ‘मैं सालों से धनुष चलाना सीख रहा हूँ। मैंने अपनी पूरी शक्ति इसमें डाली है। आप मेरी मदद कीजिए।’ द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा – ‘आप ऊँची जाति के नहीं हो, आप द्विज नहीं हो। मैं आपका गुरु नहीं बनूँगा। तुम यहाँ से चले जाओ।’ एकलव्य चला गया और उसने फिर से तपस्या शुरू की।”
राहुल गाँधी ने अपनी महाभारत की ‘शिक्षा’ देते हुए आगे कहा, “कुछ वर्षों बाद द्रोणाचार्य पांडवों के साथ उसी जंगल से गुजरे। एक कुत्ता भौंक रहा था, अचानक उसकी आवाज़ शांत हो गई। द्रोणाचार्य और पांडव जब पास गए तो देखा कि बाणों के जाल में वो कुत्ता फँसा हुआ था, एक तीर मुँह में थी और वो शांत था। लेकिन, कुत्ते को चोट नहीं लगी। एकलव्य ने अहिंसा से कुत्ते को शांत किया। द्रोणाचार्य ने अब एकलव्य से पूछा कि उसने ये कैसे सीखा, तब एकलव्य ने जवाब दिया कि उसने उनकी मिट्टी की मूर्ति बना कर प्रैक्टिस की। द्रोणाचार्य खुश नहीं हुए। उन्होंने कहा कि तुम्हें गुरुदक्षिणा देनी होगी। द्रोणाचार्य ने कहा कि मुझे तुम्हारा अँगूठा चाहिए। उन्होंने कहा कि मुझे तुम्हारा भविष्य, तुम्हारा अँगूठा चाहिए। एकलव्य ने अँगूठा काट कर उन्हें दे दिया। जैसे द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा काटा, आप वैसे ही आप पूरे देश का अँगूठा काटने में व्यस्त हैं।”
क्या राहुल गाँधी ने सही बोला? चूँकि राहुल गाँधी ने ऐसा बोला है, इसकी उम्मीद नहीं ही है। फिर भी, हम बता देते हैं कि सच्चाई क्या है क्योंकि राहुल गाँधी व कांग्रेस का इकोसिस्टम झूठ फैलाता है और हिन्दू उनके झाँसे में आ जाते हैं। जैसे, लोकसभा चुनाव 2024 के समय ये झूठ फैलाया गया कि भाजपा आरक्षण खत्म कर देगी और संविधान बदल देगी। भाजपा को सीटों का नुकसान हुआ। बाद में पता चला ये सब झूठ है। इसी तरह, कांग्रेस पार्टी के हर झूठ की पड़ताल आवश्यक है। हमारी युवा पीढ़ी हमारे ही इतिहास को लेकर हीनभावना से ग्रसित हो जाए – यही उनकी साजिश है। आइए, आपको बताते हैं कि द्रोणाचार्य और एकलव्य की पूरी कहानी क्या है। असल में क्या हुआ था।
कौन था एकलव्य, क्यों द्रोणाचार्य ने माँगा अँगूठा
राहुल गाँधी ने इसी साल सितंबर महीने में अमेरिका के ऑस्टिन स्थित ‘यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास’ में छात्रों के साथ संवाद करते हुए भी द्रोणाचार्य-एकलव्य की कहानी को ग़लत तरीके से पेश किया था। आज बहुत संविधान-संविधान की बातें की जाती हैं। प्राचीन काल में भी संविधान होते थे। उसके तहत सामान्यतः एक नियम यह भी होता था कि राजपरिवार के छात्रों को शिक्षा दे रहा गुरु किसी अन्य को शिक्षा नहीं दे सकता है। ऐसा करने पर द्रोणाचार्य को संदेह से देखा जाता। उनकी निष्ठा हस्तिनापुर के प्रति थीं। वहीं एकलव्य मगध के राजा जरासंध के सेनापति हिरण्यधनु का बेटा था।
उसने जिद थी कि वो जब भी धनुर्विद्या सीखेगा, गुरु द्रोणाचार्य से ही। उस समय मगध की हस्तिनापुर और मथुरा से शत्रुता चलती थी, ऐसे में अगर ये बात फैलती कि हस्तिनापुर के किसी शत्रु को द्रोणाचार्य ने अपना शिष्य बना लिया, तो उन्हें निश्चित ही नुकसान होता। उनकी वफादारी पर सवाल उठते। हस्तिनापुर में उन्हें शक की निगाह से देखा जाता। इसीलिए, उन्होंने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में अँगूठा माँग कर हस्तिनापुर के प्रति अपनी वफादारी भी सिद्ध कर दी और अपने उस ‘शिष्य’ का नाम भी इतिहास में अमर कर दिया। ऐसा नहीं था कि एकलव्य उसके पाद एकदम से पंगु बन गया। उसने इसके बाद भी कई युद्ध लड़े।
हम ये सुनी-सुनाई बातें नहीं बता रहे बल्कि वही कह रहे जो महाभारत में लिखा है। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को आशीर्वाद दिया था कि विश्व में उसे बड़ा धनुर्धर कोई नहीं होगा। राहुल गाँधी ने जो कहानी कही, उसमें वो ये बताना भूल गए कि जब एकलव्य को पांडवों ने वन में देखा तो अर्जुन नाराज़ हो गया था। उसने द्रोणाचार्य से जाकर कहा था कि निषादराज का पुत्र आपका शिष्य है और मुझसे अधिक श्रेष्ठ है, ये कैसे संभव हुआ। गुरु द्रोण जिस राजपरिवार के प्रति वफादार थे, जिस शिष्य से वो सबसे अधिक प्रेम करते थे – उसे नाराज़ नहीं कर सकते थे। अतः, इसे जातिगत भेदभाव का मामला न जान कर इस रूप में भी देखा जा सकता है।
महाभारत के ‘आदि पर्व’ के 123वें अध्याय के इस श्लोक को देखिए:
नन्वहं परिरभ्यैकः प्रीतिपूर्वमिदं वचः।
भवतोक्तो न मे शिष्यस्त्वद्विशिष्टो भविष्यति॥
अथ कस्मान्मद्विशिष्टो लोकादपि च वीर्यवान् ।
अस्त्यन्यो भवतः शिष्यो निषादाधिपतेः सुतः ॥
इसका अर्थ है, अर्जुन अपने गुरु द्रोणाचार्य से कह रहे हैं, “हे आचार्य, पूर्व में अपने एकांत में मुझे गले लगाते हुए प्रेम से कहा था कि मेरा कोई भी शिष्य तुमसे श्रेष्ठ नहीं होगा। फिर, वीर्यवान निषादराज का पुत्र आपका दूसरा शिष्य होकर सिर्फ मुझसे ही नहीं बल्कि वरन् संपूर्ण लोगों से श्रेष्ठ कैसे हो गया?”
अगर आप ये पढ़ने के बावजूद द्रोणाचार्य और एकलव्य की कहानी को जाति वाले कोण से देख रहे हैं तो कहीं न कहीं आपकी समझ में कमी है। हाँ, द्रोणाचार्य ने सही किया या गलत इस पर बहस हो सकती है। लेकिन, उन्होंने जाति के कारण ऐसा नहीं किया। ये उनके शिष्य के प्रति अत्यधिक प्रेम के कारण हो सकता है, ये हस्तिनापुर के कारण उनकी वफादारी के कारण हो सकता है – जाति इसमें कहीं है ही नहीं।
Mediterranean Draw: आधुनिक तीरंदाजी, अँगूठे का इस्तेमाल नहीं
एकलव्य ने मगध की तरफ से कई सैन्य अभियानों में भाग लिया, कटा अँगूठा होने के बावजूद। आजकल ओलंपिक में भी तीरंदाजी का खेल होता है। इसमें सामान्यतः अँगूठे का इस्तेमाल नहीं किया जाता। तीरंदाजी की आधुनिक तकनीक में अँगूठे का इस्तेमाल नहीं होता। इसमें Mediterranean Draw तकनीक का इस्तेमाल होता है, जिसमें तर्जनी और मध्यम उँगली का इस्तेमाल कर के बाण का संधान किया जाता है। पश्चिमी दुनिया में तीरंदाजी के लिए इसी तकनीक का इस्तेमाल होता है। जबकि, एशिया में Thumb Draw, यानी अँगूठे से तीर का संधान किए जाने की तकनीक रही है।
इसे सामान्यत: उच्च स्तर की आर्चरी में इस्तेमाल किया जाता है और यह तकनीक विश्वभर में काफी प्रचलित है। इसमें सामान्यतः अँगूठे का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। ये एशिया में धनुर्विद्या की तकनीक से अलग है। ये बताने का कारण ये है कि एकलव्य ने ज़रूर अँगूठा कट जाने के बाद भी अपने लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया होगा, जिससे वो अन्य युद्धों में भी सफल रहा।
बाद में भी एकलव्य ने लड़े कई युद्ध, राजा भी बना
ऐसे में संभावना ये भी जताई जाती है कि एकलव्य की निष्ठा को देखकर द्रोणाचार्य ने थोड़े कड़े तरीके से ही सही लेकिन उसकी तकनीक को ठीक कर दिया। कारण – एकलव्य ने कटे अँगूठे के साथ जिन युद्धों में भाग लिया उसमें उसने बेहतर प्रदर्शन किया। उदाहरण के लिए, उसने श्रीकृष्ण एवं बलराम की सेना के साथ युद्ध के दौरान कई यदुवंशी योद्धाओं को मार गिराया। ये बताता है कि उसकी तकनीक बेहतर ही हुई थी। एक माहौल बनाया जाता है कि एकलव्य का जैसे उसके बाद सब कुछ खत्म ही हो गया हो। लेकिन, ऐसा कुछ भी नहीं था। अब थोड़ी और पौराणिक इतिहास की बात कर लेते हैं।
राहुल गाँधी की नहीं, बल्कि वेद व्यास द्वारा रचित असली वाले महाभारत में एकलव्य को ‘निषादराज का पुत्र’ कह कर संबोधित किया गया है, अर्थात उसके पिता निषादों के राजा थे। महाभारत में ये भी वर्णित है कि युधिष्ठिर द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ में वो राजा के रूप में पहुँचा था। यानी, जो लोग कहते हैं कि एकलव्य तथाकथित निम्न जाति का था और उस समय ऐसे लोगों को ब्राह्मणों या क्षत्रियों के साथ बैठने की अनुमति नहीं थी, उन्हें ये इतिहास जान कर धक्का लगेगा। एकलव्य न केवल उस समारोह का हिस्सा बना था, बल्कि उसने उपहार के रूप में युधिष्ठिर को जूते भी भेंट किए थे।
महाभारत के स ‘सभा पर्व’ के द्यूतपर्व के अध्याय 49 में वर्णित इस श्लोक को देखिए:
मत्स्यस्त्वक्षानवाबध्नादेकलव्य उपानहौ।
आवन्त्यस्त्वभिषेकार्थमापो बहुविधास्तथा॥
इसका भावार्थ इस प्रकार है, “मत्स्यराज ने रथ में घोड़ों को जोड़ा। एकलव्य दोनों जूते उठा लाया। अवंती के राजा अभिषेक के लिए बहुविधि के जल लेकर आए।”
दुर्योधन अपने पिता धृतराष्ट्र से युधिष्ठिर की राजसभा की शोभा का वर्णन करते हुए ऐसा कह रहा है। इसी में एकलव्य का भी जिक्र है। अर्थात, साफ़ है कि एकलव्य को वनवासी होने के बावजूद भी न केवल राजसभाओं में आने का अधिकार था, बल्कि उसका भी उतना ही सम्मान था जितना बाकी के राजाओं का। एकलव्य ने भी युधिष्ठिर का अधिपत्य स्वीकार किया था। उस समय के जो राजनीतिक हालात थे, विभिन्न राज्यों की के बीच जो छद्मयुद्ध चल रहे थे, उसे जाति का रंग देकर हिन्दू धर्म को बदनाम करने की कोशिश की जाती है। ऐसा वही लोग करते हैं जिन्हें इतिहास का ज्ञान नहीं।
उस राजसूय यज्ञ में आए जिन राजाओं के नाम हैं, उसमें एकलव्य भी आता है। यानी, उस समय कोई निषाद भी राजा बन सकता था। आजकल भ्रम फैलाया जाता है कि उस काल में भारत में महिलाओं को अधिकार नहीं थे, दलितों को अधिकार नहीं थे – ये सब झूठ है। राहुल गाँधी इसी झूठ को आगे बढ़ा रहे हैं।