‘भारत पर इस्लामी आक्रमण होगा, तो किस तरफ होंगे सेना के मुस्लिम’? अंबेडकर को था संदेह, लिखा – इस्लाम के लिए हमारा देश दारुल हर्ब

बाबासाहेब डॉ भीमराव आंबेडकर मुस्लिमों की कट्टरपंथी सोच और लगातार होते दंगों को देखकर व्यथित रहते थे। यही कारण था कि वे पाकिस्तान की माँग को तार्किक तरीके से स्वीकार करते थे।

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डॉ अंबेडकर के अनुसार, मुस्लिम ये नहीं भूलते कि हिंदू उनसे नीची और घटिया जाति है

बाबासाहेब डॉ भीमराव अंबेडकर इस्लाम के कट्टरवाद के खिलाफ बेहद मुखर थे। वे मानते थे कि हिंदू और मुस्लिम ना ही स्वभाव में एक हैं, ना ही आध्यात्मिक अनुभव में और ना ही राजनीतिक एकता की इच्छा में। अंबेडकर ने तो यहाँ तक कह दिया था कि हिंदू ये भ्रम पाले हुए हैं कि पाकिस्तान सिर्फ मोहम्मद अली जिन्ना की सनक का नतीजा है। वे हिंदू बुद्धि के इतने मंद और शिथिल होने जाने से आश्चर्यचकित थे।

हिन्दू-इस्लाम इतिहास पर बाबासाहेब डॉ भीमराव आंबेडकर

डॉक्टर अंबेडकर इसके पीछे हिंदू-मुस्लिम के इतिहास को संदर्भ देते हैं। उनका मानना था कि हिंदू-मुस्लिम संबंधों की कड़ी इतिहास के पन्नों से जुड़ी हुई है। डॉक्टर अंबेडकर ने डॉक्टर टाइटस की पुस्तक ‘इंडियन इस्लाम’ और लेन पूल की ‘मेडिवल इंडिया’ का हवाला देते हुए लिखा है कि मुस्लिम आक्रमणों का उद्देश्य सिर्फ लूटपाट नहीं था, बल्कि वे मूर्तिपूजा और बहुदेववाद पर प्रहार करके भारत में इस्लाम को प्रसारित करने के उद्देश्य से भारत आए थे। वे कहते हैं कि सन 712 ईस्वी में मुहम्मद बिन कासिम से शुरू हुई हिंदुओं की खिलाफ हिंसा, धन-दौलत की लूट, मंदिरों का तोड़फोड़, महिलाओं का अपमान, जबरन धर्मांतरण, हिंदुओं को गुलाम बनाने की प्रवृति मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा आगे भी जारी रही। इसकी यादें मुस्लिम में बनी रहीं और वे इस पर गर्व करते रहे हैं, जबकि हिंदू इससे लज्जित होते हैं।

मुस्लिम पक्ष की राजनीतिक प्रेरणा के बारे में अंबेडकर लिखते हैं, “मुस्लिम कानून के अनुसार दुनिया दो भागों में विभाजित है- दारूल इस्लाम (इस्लाम का घर) और दारूल हर्ब (संघर्ष का घर)। इस्लामी कानून के अनुसार, भारत हिंदुओं और मुस्लिमों का साझी मातृभूमि नहीं हो सकता। यह मुस्लिमों की जमीन तो हो सकती है, लेकिन मुस्लिमों की बराबरी करते हुए हिंदुओं की साझी जमीन नहीं हो सकती। यह जमीन मुस्लिमों की भी तभी मानी जाएगी, जब इस पर अधिकार मुस्लिमों का हो।”

डॉक्टर टाइटस अपनी किताब में लिखते हैं कि जब अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा किया तो मुस्लिम अगले 50 वर्षों तक इसी बात पर मंथन करते रहे कि भारत दारूल इस्लाम है या दारूल हर्ब। इसके खिलाफत जैसे आंदोलन हुए। डॉक्टर अंबेडकर कहते हैं कि खिलाफत आंदोलन के दौरान भी जब हिंदू मुस्लिमों की बढ़-चढ़कर सहायता कर रहे थे, तब भी मुस्लिम ये नहीं भूले कि हिंदू उनसे नीची और घटिया जाति है।

मुस्लिम इच्छा को तृप्त करना कठिन: इस्लाम पर बाबासाहेब

डॉक्टर अंबेडकर ने लिखा है कि मुस्लिम इच्छा को तृप्त करना कठिन है। इसका उदाहरण देते हुए अंबेडकर कहते हैं, “गोलमेज सम्मेलन के दौरान मुस्लिमों ने जो-जो माँगें रखी थीं और जो-जो उन्हें दिया गया, उसे देखकर कोई भी यही सोचता कि मुस्लिम माँगे अपनी सीमा प्राप्त कर चुकी हैं और 1932 का यह समझौता निर्णायक होगा। परंतु ऐसा लगता है कि मुस्लिम इससे संतुष्ट नहीं है। अपनी नई माँगों के साथ उनकी एक नई सूची तैयार है।”

डॉक्टर अंबेडकर की यह बात सच साबित हुई। पंडित नेहरू और जिन्ना ने आपसी विवाद सुलझाने के लिए बात की तो जिन्ना ने 14 माँगों वाली एक नई सूची रख दी। इसमें गोहत्या की आजादी, मस्जिदों को वापस देने, वंदे मातरम को त्यागने जैसे कई हिंदू विरोधी माँगें शामिल थीं। अंबेडकर ने लिखा है कि कॉन्ग्रेस ने मुस्लिमों को राजनीतिक एवं अन्य रियायतें देकर उन्हें सहन करने और उन्हें खुश करने की नीति अपनाई, क्योंकि कॉन्ग्रेस को लगता था कि मुस्लिमों के बिना वे स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकते।

‘पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इंडिया’ में डॉक्टर अंबेडकर लिखते हैं कि मुस्लिम राजनेता जीवन की संप्रदाय निरपेक्ष भौतिक अपनी आवश्यकताओं को अपनी राजनीति का आधार नहीं बनाते थे, क्योंकि उन्हें लगता है कि मुस्लिम समुदाय हिंदुओं के खिलाफ अपने संघर्ष में कमजोर पड़ जाएगा। वे मुस्लिमों की कट्टरपंथी सोच और लगातार होते दंगों को देखकर व्यथित रहते थे। यही कारण था कि वे पाकिस्तान की माँग को तार्किक तरीके से स्वीकार करते थे। साथ में यह भी सवाल करते थे कि पाकिस्तान बन जाने के बाद वहाँ के हिंदुओं का क्या होगा और भारत में रह जाने वाले मुस्लिमों का क्या होगा।

सेना में मुस्लिम समाज की वफादारी पर भी अंबेडकर को था संदेह

इसका भी समाधान उन्होंने खुद बताया। बाबा साहेब मानते थे कि हिंदू और मुस्लिम एक साथ कभी नहीं रह सकते। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है, “हिंदुस्तान के करोड़ों हिंदुओं के हित में यही होगा कि भारत का दो भागों में बँटवारा करके एक भाग मुस्लिम पाकिस्तान और एक भाग गैर-मुस्लिम हिंदुस्तान बना दिया जाए।” वे मानते थे कि दोनों देशों की अल्पसंख्यक आबादी की भी अदला-बदली होनी चाहिए, क्योंकि यह उनकी सुरक्षा के लिए जरूरी है। इसके अभाव में वे मानते थे कि भारत की संप्रभुता संकट में पड़ जाएगी और भारत में सांप्रदायिक वैमनस्य बना रहेगा।

सेना में मुस्लिमों की अधिक हिस्सेदारी को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ते हुए अंबेडकर ने कहा था, इस बात की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि किसी देश के महत्वपूर्ण बात स्वतंत्रता प्राप्ति नहीं बल्कि उसे अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सुनिश्चित साधन उपलब्ध होना चाहिए। किसी देश की स्वतंत्रता की निर्णायक गारंटी उस देश की सेना होती है।” उन्होंने सवाल उठाया था कि हिंदू-मुस्लिम वाले संयुक्त भारत में सेना में हिंदू और मुस्लिम दोनों होंगे। ऐसे में हिंदू भाग वाले भारत पर कोई मुस्लिम आक्रमण होता है तो क्या सेना का मुस्लिम उसे रोकने का प्रयास करेंगे?”

इस तरह डॉक्टर अंबेडकर मुस्लिम नेताओं और इन नेताओं का साथ देने वाले मुस्लिमों की मनोवृत्ति को बहुत करीब से जानते थे और बंटवारा नहीं होने की स्थिति में आने वाली समस्याओं को लेकर वे मुखर थे। इसके पीछे वे मुस्लिमों की कट्टरपंथी सोच और आक्रमणकारियों पर गर्व करने की उनकी वैचारिक प्रेरणा को महत्वपूर्ण मानते थे। यही कारण था कि डॉक्टर अंबेडकर शुरू से ही भारत के बँटवारा के पक्षधर थे।

आज जो कांग्रेस अंबेडकर-अंबेडकर का रट्टा लगा रही है, उसे अपना इतिहास जानना चाहिए। उसे जानना चाहिए कि कैसे बाबासाहेब डॉ भीमराव अंबेडकर की दो-दो बार लोकसभा चुनावों में जवाहरलाल नेहरू ने हार सुनिश्चित की और अपनी मित्र एडविना माउंटबेटन को पत्र लिख कर इसका जश्न भी मनाया। ऐसे में, बाबासाहेब अंबेडकर ने इस्लाम और मुस्लिम समाज को लेकर क्या कहा था ये हमें पढ़ना चाहिए।

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